“साढ़े सात बज गए हैं, अभी तक आपकी लाडली बहू का पता नहीं। रोज़ तो छह, साढ़े छह बजे तक आ जाती है”। राधिका ने बड़बड़ाते हुए अपने पति शेखर से कहा।
“अरे भाग्यवान। आ जाएगी। आज सुबह भावना ने कहा तो था, आज आने में देरी हो जाएगी। तुम तो जरा-जरा सी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती हो”। शेखर ने लापरवाही से कहा।
“पर मैंने भी तो कहा था देर मत करना, जल्दी आ जाना। तभी तो मैं रोहित की शादी घरेलू लड़की से चाहती थी। रोहित की जिद के कारण ही ऐसा करना पड़ा। अब कब बहूरानी आएगी और कब खाना बनेगा?”
“बहुरानी आती ही होगी। ऐसा करो, आज तुम ही दाल-चावल बना लो। मैं भी इसमें तुम्हारी मदद कर देता हूँ।
“क्या ज़माना है। अब इस उम्र में खाना बनाऊं। कैसे दिन आ गए हैं। सही ही कहा है, बहू का सुख किस्मतवालों को मिलता है”।
“तुमको तो बात का बतंगड़ बनाने की आदत हो गई है। ज़ुबान की जगह थोड़े हाथ-पैर भी चला लिया करो। सेहत ठीक रहेगी”।
“आपसे तो बात करना ही बेकार है”। राधिका ने गुस्से से कहा।
“क्या कमी है मेरी बहू में। बिना कहे सारे काम कर देती है। तुम्हें कोई भी काम नहीं करने देती। ऑफिस जाते समय सारे काम करके जाती है। बर्तनवाली को दोपहर के लिए रोटी और शाम को चाय बनाकर जाने को कहा हुआ है। और क्या चाहिए! ज़रूर हमने पिछले जन्म में कोई अच्छे कर्म किए होंगें तभी तो ऐसी बहू मिली है। हर समय मम्मी-पापा करती रहती है”।
“यह तो उसका फ़र्ज़ है”।
“सारे फ़र्ज़ तो बहुओं के ही होते हैं। सास का तो कोई फ़र्ज़ नहीं होता”।
“क्या मतलब”!
“कभी दो पल भी बेटी समझकर प्यार से बहू से बात की है। जब देखो उसपर हुकुम चलाती रहती हो। आज के जमाने में बेटियाँ भी नहीं सुनती हैं। उसे बेटी समझोगी तो सब आसान हो जाएगा”।
“किस बात पर बहस हो रही है”। रोहित ने घर में प्रवेश करते हुए पूछा।
“कुछ नहीं रोहित बेटा। आज अभी तक बहू नहीं आई है। क्या खाना बनाना है, उस बारे में सोच रहे हैं”। शेखर ने बात बदलते हुए कहा।
“भावना आने ही वाली है। अभी फोन पर बात हुई है। मैं दाल-चावल बना देता हूँ। मम्मी आप बता देना”।
“बहू आने वाली है तो वही बना देगी”। राधिका ने कहा।
“वह भी तो थकी होगी”।
“अब तू लड़का होकर खाना बनाएगा”! राधिका ने तुनकते हुए कहा।
“मां, कैसी बात कर रही हो। आज ज़माना बदल गया है। अब लड़के-लड़की में कोई अंतर नहीं है। सब बराबर हैं”।
“यह पट्टी भी तुझे भावना ने ही पढ़ाई होगी”।
“मां। कैसी बात कर रही हो”!
“यह नहीं सुधरेगी। ऐसा कर बेटा। आज बाहर से ही खाना मंगवा लेते हैं”।
“पर आप तो बाहर का खाना कम ही खाते हैं”। रोहित ने कहा।
“कभी-कभी बाहर का खाना खाने से कुछ नहीं होगा। कभी कभी चेंज भी आवश्यक होता है। भावना को आने दो। फिर मंगवाते हैं”।
“ठीक है पिताजी”।
“क्या मंगवाने की बात हो रही है”। तभी भावना की आवाज़ आई।
“अरे! तुम आ गई। खाना मंगवाने की बात कर रहे थे”। रोहित ने कहा।
“कुछ मंगवाने की जरूरत नहीं है। फटाफट खाना बना देती हूँ” भावना ने कहा।
“बड़ी मुश्किल से तो आज अवसर मिला है। अब जल्दी से फ्रेश होकर आ जा। फिर तय करते हैं, क्या मंगवाना है”।
“पर पिताजी”।
“पर वर कुछ नहीं। वैसे भी तेरी सास का मन बहुत दिनों से बाहर के खाने का कर रहा था। बहुत चटोरी है यह”।
“मैंने कब कहा। कुछ तो शर्म करो”।
“मैं तो मजाक कर रहा था। आखिर बहू भी तो इस परिवार का हिस्सा है”।
“आप सबको जो पसंद हो मंगवा लीजिए। तब तक मैं तरोताजा होकर चाय बनाती हूं। बहुत थक गई हूँ”। भावना ने कहा।
“तुम तरोताजा होकर आओ। आज मैं सबके लिए इलायची-अदरक वाली चाय बनाता हूँ”।
“आपको चाय बनानी आती है”! भावना ने हैरानी से पूछा।
“तुम्हारे जैसी अच्छी तो नहीं। तुम फ्रेश होकर तो आओ। फिर सब चाय पीते- पीते खाना क्या मंगवाना है, तय करेंगे”।
“मेरी तो आज पार्टी हो गई”। भावना ने हँसते हुए कहा।
अर्चना कोहली “अर्चि”
नोएडा (उत्तर प्रदेश)