“परिवार” – ऋतु अग्रवाल 

 “संपदा, जल्दी करो भाई! कितनी देर लगाती हो तैयार होने में? तुम्हारे चक्कर में हर बार देर हो जाती है।”

पुलकित बाहर से आवाज लगा रहा था।

      “आई! बस दो मिनट।” संपदा ने प्रत्युत्तर दिया।

      “इसके  दो मिनट पता नहीं कब पूरे होंगे?” पुलकित बड़बड़ाने लगा।

    “चलो” संपदा बाहर निकल आई।

   पुलकित बस ठगा सा देखता रह गया। संपदा लग ही इतनी खूबसूरत रही थी।

     “हेलो! क्या देख रहे हो? कहा था ना कि जब मैं तैयार होकर आऊँगी तो तुम्हारे दिमाग में हवाएँ चलने लगेंगी।” संपदा खिलखिला कर हँस दी।

         पुलकित देखता रह गया। यह वही संपदा है जो कुछ महीने पहले मानो बावली सी हो गई थी। आखिर उसके घर वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी संपदा को परेशान करने में। अच्छी भली, हमेशा मुस्कुराते रहने वाली संपदा अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी। वह तो भला हो नवीन फूफा जी का जो समय रहते उसे एक मनोचिकित्सक के पास ले गए। धीरे-धीरे संपदा ठीक  हो रही थी।

        डॉक्टर ने परामर्श दिया,” पुलकित जी! आपकी पत्नी भले ही रिकवर कर रही है पर अब यह भी बहुत जरूरी है कि उसे इस माहौल से निकाला जाए वरना आप के परिवार वालों के व्यवहार का उस पर नेगेटिव प्रभाव पड़ सकता है।”




        सुगंधा की हालत देखते हुए पुलकित ने शहर में ही एक किराए का मकान ले लिया। सकारात्मक माहौल, उचित चिकित्सा और रोज की तनातनी से दूर सुगंधा जल्दी ही ठीक होने लगी थी। छ: महीने के भीतर ही हँसती खिलखिलाती सुगंधा उसके सामने खड़ी थी।

      “चलो भी! क्या सोचने लगे? अब देर नहीं हो रही।” सुगंधा ने पुलकित का हाथ खींचते हुए कहा।

       “हाँ,चलो।” पुलकित ने कार स्टार्ट करते हुए कहा।

      बहुत ही खुशनुमा माहौल था। पारिवारिक उत्सव वैसे भी तन मन खुशियों से सराबोर कर देते हैं। पुलकित के मामा जी की बेटी की शादी थी। सारे मामा,मौसी और उनके परिवार के सभी लोग इकट्ठे थे। सब हँसी मजाक कर रहे थे। सुगंधा परिवार की महिलाओं के साथ बैठी थी और बच्चे अन्य बच्चों के साथ मस्ती कर रहे थे।

       अचानक अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पाकर सुगंधा चौंक पड़ी। सुगंधा के चेहरे का रंग बदल गया पर जल्दी ही उसने खुद को संभाल लिया।

        “सुगंधा, कैसी है तू? तू तो हमें भूल ही गई। ना कभी फोन ना कोई हालचाल।” भाभी का स्वर सुनकर पुलकित वहाँ पहुँचा।




        “अरे, देवर जी! नाराज हो आप लोग हमसे। ऐसे भी कोई करता है क्या? आप तो बिना कुछ कहे सुने सब कुछ छोड़ छाड़ यहाँ आ गए। आखिर हम एक परिवार हैं, इतने साल साथ रहे। आप दोनों ने तो हमें पराया ही कर दिया।” भाभी कहे जा रही थीं।

         सुगंधा खामोश थी।

       “नहीं भाभी! हम परिवार थे पर अब हम एक परिवार नहीं हैं। सुगंधा ने आपको हमेशा बड़ी बहन का दर्जा दिया पर आपने हमेशा उसके साथ राजनीति खेली। आपने, बड़े भैया ने और आपके बच्चों ने मिलकर सुगंधा को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुगंधा की मानसिक अवस्था को खराब करने में आपका बहुत बड़ा हाथ था। मैं भूल नहीं सकता कि उस बुरे समय में मेरे बच्चे कैसे एक एक रोटी को तरसे थे और भाभी, परिवार वह होता है जो एक दूसरे के दुख सुख में काम आए ना कि एक दूसरे के खिलाफ बिसात बिछाये।” पुलकित सुगंधा का हाथ पकड़ कर वहाँ से ले जाने लगा।

    ” रूकिए, पुलकित भैया! मुझसे गलती हुई। मुझे माफ कर दीजिए। संपत्ति में ज्यादा हिस्सेदारी के लालच में मैंने जिन बच्चों के लिए इतना सा प्रपंच किया, आज वही बच्चे मुझे और आपके भैया को अकेला छोड़ कर जा चुके हैं। मैं आपसे माफी माँगती हूँ ।सुगंधा मुझे माफ कर दो।” भाभी की आँखों में आँसू आ गए।

      “भाभी, आप बड़ी हैं।मैंने हमेशा आपको अपनी बड़ी बहन माना। मैं भूल भी जाऊँ कि आपने मेरे साथ क्या किया पर मेरे बच्चे परिवार होते हुए भी जिस तरह दर-दर भटके हैं उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। आपने अपने बच्चों की गलतियों पर हमेशा पर्दा डाला, आज आप उसका नतीजा भुगत रही हैं। भाभी परिवार बनाना और उसे जोड़े रखना बहुत बड़ी बात होती है। इसके लिए प्रेम,त्याग और समर्पण की आवश्यकता होती है, राजनीति की नहीं और मैं अपने परिवार को यही गुण विरासत के तौर पर दे रही हूँ।आप मुझसे बड़ी हैं पर आप परिवार का मतलब कभी समझी ही नहीं और अब मैं आपको अपने परिवार में सम्मिलित करने का खतरा दोबारा नहीं उठा सकती। चलिए, पुलकित!” कहकर सुगंधा स्टेज की तरफ बढ़ गई जहाँ एक नये परिवार का आगाज हो रहा था। 

#परिवार 

मौलिक सृजन

ऋतु अग्रवाल

मेरठ

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