अटूट बंधन -उमा वर्मा । Moral stories in hindi

भाभी  के पेट का आपरेशन हुआ था ।करीब पन्द्रह दिन पहले ।अम्मा बाहर अपने आफिस के ग्रुप के साथ तीर्थ यात्रा पर गई हुई थी ।बीच में ही मेरी भाभी की तकलीफ इतनी बढ़ गई कि आपरेशन के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था ।भाई आकर मुझको ले गया था ।देखभाल के लिए किसी का रहना जरूरी था।आपरेशन सफल रहा ।लेकिन अस्पताल से लेकर घर में, देखभाल की मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई ।भाई तो आफिस चला जाता ।बच्चे बाहर पढ़ाई कर रहे थे ।मै भाभी को रोज खाना, नाश्ता बना कर देती ।समय पर फल और दवा देती ।बाहर आँगन में कुर्सी पर बिठा कर नहला देती ।करीब बीस दिन हो गये ।अब वह थोड़ी थोड़ी ठीक हो रही थी ।फिर अम्मा भी अपनी यात्रा से लौट चुकी थी ।एक दिन सुबह सुबह बेटे का फोन आया “माँ, मौसी खत्म हो गई है, कल ही “कौन मौसी?मै हड़बड़ा गई ।कहीं—मेरी छोटी बहन तो नहीं?” नहीं माँ, वीणा मौसी ” मै फोन पर ही रोने लगी थी ।वीणा दीदी की  मृत्यु से जुड़ी खबर मेरे लिए बहुत कष्ट दायक थी उनसे मेरा “अटूट बंधन “का रिश्ता था।यादें बहुत पीछे चली गई थी ।जब हमारा नया नया क्वाटर मिला था।हमलोग घर सजाने में व्यस्त रहते ।अभी बहुत जान पहचान नहीं थी सबसे ।साथ में अम्मा जी, बाबूजी, जेठ जेठानी जी भी  थी तो मेरा निकलना थोड़ा मुश्किल होता ।तीसरे तल्ले पर वीणा दीदी थी।दो महीने के बाद मेरी बिटिया ने जन्म लिया ।छठी का आयोजन किया गयाथा ।पूरे परिवार की भीड़ जुटी और मायके से माँ ,पिता जी भी  आये ।माँ थोड़ा जल्दी ही सबसे घुल मिल जाती थी ।छठी में वीणा दीदी को निमंत्रण नहीं दिया गया था, मै क्या कर सकती थी ।मै तो खुद नयी बहू थी।फिर एक दिन मेरी माँ ही जाकर परिचय कर आई।मिलना मिलाना होने लगा ।वरना वीणा दीदी तो हमेशा सुनती थी कि मै बंगाल से आईं हूँ और मै हमेशा पैरों में आलता लगाए रहती थी तो उनहोंने सोच लिया था कि वर्मा जी किसी बंगाली लड़की को ब्याह कर के ले आये हैं ।शायद लव मैरिज ।वह तो माँ जाकर उनको स्पस्टीकरण दे आई थी कि ऐसी बात नहीं है ।माँ जबतक रही, उपर जाकर वीणा दीदी से खूब दोस्ती निभाती रही ।और उनसे रिश्ता भी जोड़ लिया ।फिर एक महीने के बाद माँ वापस चली गई ।और हमारी वीणा दीदी से नाता जुड़ गया ।वह मुझसे चार साल की बड़ी थी।मुझे भी वह बहुत अच्छी लगी ।एकदम शांत, शालीन, और नम्र ।कम बोलने वाली ।लेकिन सही बोलने वाली थी वह ।हमारे विचार भी आपस मे बहुत मिलते ।पढ़ाई लिखाई में उनकी रूचि भी मुझसे मिलती ।उनके यहाँ भी अच्छी अच्छी पत्रिकाएं आती ।और मेरे यहाँ भी ।हम दोनों आपस में बदल बदल कर पढ़ते।फिर हमने आपस में विचार करके एक पुस्तकालय खोल लिया, और इस तरह बहुत सारे अच्छे लेखकों की रचनाओं को स्थान दिया ।बहुत अच्छा लगता ।हमारी दोस्ती देख कर बहुत लोगों को अच्छा नहीं लगता ।उनकी भी एक बेटी थी और मेरी भी ।फिर हम तीज त्योहार पर एक साथ घूमने फिरने में मगन हो गये।दुर्गा पूजा पर दोनों घर में एक समान बच्चों के कपड़े सिलते।हमारी दोस्ती खाना, पीना, एक साथ सिनेमा जाना और खाली समय पर किताबें पढ़ना में ही चल रहा था ।वे मुझे अपनी छोटी बहन जैसी मानती थी ।और मेरे लिए तो वह अपनी बड़ी दीदी ही थी।उनकी एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती कि अगर मुझसे कोई गलती हुई तो बेबाक होकर डांट भी देती ।फिर अचानक किसी पड़ोसी के गलत बातों से हमारे मन में कुछ कड़वाहट आ गई ।वीणा दीदी ने बात करना छोड़ दिया मुझसे ।मै बहुत बेचैन हो गई ।कुछ अच्छा ही नहीं लगता ।लोगों ने कहा “क्या बात है, आप दोनों की इतनी दोस्ती थी अचानक बोल चाल क्यो बन्द हो गई है “”हाँ, तो क्या हुआ, एक घर में भाई बहन भी तो आपस में टकराते हैं तो क्या वे अलग हो जातें हैं “मै सुनते ही दौड़ गई थी ” दीदी मुझसे कोई गलती हुई तो क्षमा प्रार्थी हूँ “मैं लिपट गयी थी उनके पैरों पर ।उनहोंने भी मुझे कलेजे से लगा लिया ।हमारी फिर पहले जैसी ही अपनापन शुरू हो गई ।हमदोनों के पति की भी अच्छी बनती आपस में ।फिर एक दिन अचानक मेरी तबियत बहुत खराब हो गई ।ज्वर उतरता ही नहीं था।घर में छोटी बच्ची, देखभाल करने वाला कोई नहीं ।उस वक्त दीदी ने ही आकर संभाल लिया ।वे रोज सुबह आ जाती, और खाना बना कर रख देती।घर की सफाई करती, मेरी बेटी की देखभाल करती ।मुझे भी मालिश कर देती, कपड़े बदल देती ,अपने हाथ से खिलाती ।दीदी की अनवरत सेवा से एक सप्ताह में मै ठीक हो गई ।न जाने किस मिट्टी की बनी थी वह ।दो दो घर अच्छी तरह संभालना आसान नहीं था ।मेरे जीवन में उनकी इज्जत बढ़ती गई ।समय के साथ हमारे बच्चे बढ़ते गये।दोनों के पति रिटायर हो गये ।और दीदी पटना चली गई ।वहां उनका अपना घर था।हमने यहाँ छोटा सा मकान बना लिया और शिफ्ट हो गये ।बीच बीच में हमारा किसी काम से पटना जाना होता तो सबसे अधिक वीणा दीदी के यहाँ ही रहना होता ।मेरे पति की पसंद का भोजन बनाती वह और बड़े प्रेम से खिलाती ।एक माँ की ममता से भरी पूरी थी वह।जब मेरी बेटी की शादी तय नहीं हो पा रही थी तो उनके ही प्रयास से उनके ही रिश्ते में ब्याह तय कराया था।यादें तो बहुत हैं उनके साथ बिताये हुए एक एक क्षण की।उसदिन वर्षा जोरो पर थी ।मै घर में किताबों में खोयी हुई थी तभी उनकी बेटी बुलाने आई”मौसी, आपको माँ बुला रही है “क्या बात है?क्यो बुला रही है?”नहीं मालूम, मौसी ।फिर सोचा, चलती हूँ, कोई जरूरी काम होगा ।उनको टालना मेरे बस की बात नहीं है ।उपर छत पर थी वे।पहुँची तो एक दम से हाथ पकड़ कर खींच लिया ।फिर झमाझम पानी में घंटों भीगते रहे हमदोनों ।हम बच्चे नहीं थे।पर उस दिन की बच्चो वाली हरकत बहुत मजा आया ।उनकी याद में बिताए एक एक पल मेरे लिए खुश नुमा थे।और आज अचानक उनके जाने की खबर से मन बेचैन सा हो गया ।बेटे ने पूछा “जाना है?” मेरे हामी भरते ही टिकट का इन्तजाम कर दिया ।दूसरे दिन सुबह आठ बजे पहुँची ।घर में लोगों की भीड़ थी उनकी बेटी सीने से लगकर रो पड़ी ।उनका कमरा, उनकी रसोई सबकुछ दिखाया उसने ” मौसी, ये देखिये, माँ के हाथ का सना हुआ गीला आटा,अभी तक वैसे ही रखा हुआ है “उसने अपनी माँ के सने हुए आटे को हृदय से लगा लिया और रोती रही ।मै क्या कहती।मेरे पास शब्द नहीं थे कहने के लिए ।तेरहवीं बीत गयी ।घर में हवन पूजन हुआ ।वीणा दीदी गायत्री परिवार से थी और उनकी इच्छा थी कि घर में उनके अंतिम क्रिया कर्म पर हवन हो।सबकुछ उनके अनुसार ही हुआ ।बेटे ने वापसी का टिकट करा दिया था ।मै लौट गई, भारी मन से ।कैसे भूल सकती थी मै उनको ।वह मेरी माँ बहन जैसी थी।फिर जिंदगी अपनी रफ्तार से चलने लगी ।मै भी अपनी गृहस्थी में मगन हो गई ।दो साल पहले ही उनकी बेटी अर्चना की भी शादी हो गई थी ।किसी कारण वश में नहीं जा पाई।इस बात की शिकायत बहुत थी दीदी को ।मैंने इस बात के लिए माफी मांग ली थी।सोचा था अगले बार  जाकर खूब रह लेंगे  और उनकी शिकायत का मौका नहीं दूँगी ।पर ईश्वर ने वह मौका ही नहीं दिया ।अर्चना से कभी कभी संपर्क हो जाता फोन से।वह भी अपनी गृहस्थी में रम गयी थी।दो साल और बीच गया ।एक दिन सुबह अपने गृह कार्य में लगी हुई थी कि मेरी बेटी ने फोन किया ” माँ, अर्चना खत्म हो गई है ” -“कब?कैसे?”फोन पर बेटी भी रोने लगी थी ।मेरे रोने का भी अंत नहीं था ।इतनी बड़ी दुखद समाचार? बाद में किसी से मालूम हुआ कि उसे लीवर कैन्सर था।मगर वह किसी से बताती नहीं थी।पिछले बार जब वीणा दीदी के काम में गई थी तो उसे बहुत सारे दवाई खाते देखा था ।मैंने पूछा था कि “इतनी सारी दवाई किसलिए खा रही हो”?तों टाल दिया था उसने ।”कुछ नहीं मौसी, यहसब तो चलते रहता है ” ।फिर मालूम हुआ एक महीने के बाद उसके पापा भी नहीं रहे ।”हे भगवान, कैसे घर उजाड़ हो गया?” हँसता खेलता परिवार खत्म हो गया ।मगर वीणा दीदी अब भी बहुत याद आती है ।ऐसा था हमारा उनसे, उनके परिवार से अटूट बंधन ।

उमा वर्मा ।राँची, झारखंड ।स्वरचित ।मौलिक ।

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