असली कमाई.. मंजू सक्सेना

“ये क्या… तू अभी तक मारुति800पर चल रहा है…हद् हो गई यार”,डा.जयंत ने हैरानी से कहा तो डा. मधुर मुस्कुरा दिये।

मेडिकल कालेज से निकलने के बाद डा. जयंत की डा. मधुर से बीस वर्ष बाद किसी पार्टी मे उस दिन अचानक भेंट हो गई थी।कालेज के ज़माने मे दोनों चार साल रूममेट  थे फिर इत्तिफाकन पीजी भी दोनों ने एक ही कालेज से किया।हालांकि…  दोनों के रहनसहन और स्वभाव मे बहुत अंतर था… जहां जयंत एक पैसे वाले घर का इकलौता बेटा था… मधुर साधारण परिवार से था जहाँ दो जून रोटी नसीब हो जाए यही बहुत था।और इसी स्तर पर उनके स्वभाव मे भी अंतर था।पर पढ़ाई मे दोनों ही अव्वल थे और यही उनकी मित्रता की नींव थी।

“यार हम लोगों ने कोठी बंगला सब बना लिया… बड़ी गाड़ी खरीद ली….आख़िर ग्यारह साल पढ़ाई मे झोंके थे…पर तू..?तूने कुछ कमाया- जमाया भी..या अभी तक फ़क्कड़ घूम रहा है”?डा. जयंत ने फिर कहा तो मधुर ने मुस्कुरा कर कहा,

“मैने भी बहुत कुछ कमाया है…”

“अच्छा… तो पैसा छिपा के बैठे हो..और दिखावे के लिए ये टुटही मारुति….इन्कमटैक्स से बचने के लिए….जवाब नहीं है तुम्हारा….तुम हम सबसे तेज़ निकले”,डा. जयंत का ठहाका गूंज गया।

और आज जब डा. मधुर ने उन्हें अपने जन्मदिन की पार्टी मे फोन से आमन्त्रित किया तो वो उनकी दौलत देखने का लोभ न छोड़ पाए।हालांकि  डा.मधुर का घर भी शहर की सीमा पर करीब चालीस किलोमीटर की दूरी पर था।


घर ढूंढने मे उन्हें ज़रा भी मुश्किल नहीं हुई..डा. मधुर बाहर ही मिल गये…आज जयंत ने गौर किया कि जहाँ उसके सब दोस्त और वो ख़ुद इन बीस वर्षो मे बहुत बदल गये थे डा. मधुर को जैसे उम्र ने छुआ भी नहीं था।मधुर ने अंदर ले जा कर अपनी पत्नी से मिलाया…

“मेरी पत्नी… डा.मीना… “,तो वो और हैरान हो गए… ‘साधारण सा घर और दोनों पति पत्नी डाक्टर?’

“पार्टी ….क्या किसी होटल मे है”?जयंत ने इधर उधर सरसरी नज़र दौड़ाते हुए पूछा तो मधुर के साथ मीना भी हँस दी,

“चलो..वहीं चलते हैं… तुम्हारा ही इंतज़ार था”।

कुछ ही मिनटों मे वो उस जगह पहुंच गए जहाँ बड़े शामियाने के नीचे जैसे पूरा कस्बा ही इकट्ठा हो गया था।लोगों मे गज़ब का उत्साह था।एक बड़े मंच पर डा.मधुर और उनके परिवार के बैठने का इंतज़ाम था।और फिर जो डा. साहब को बधाई

देने का सिलसिला शुरू हुआ तो जयंत हैरान रह गया… बच्चे जवान बूढ़े सब मधुर को बेहद् अपनेपन से छोटे मोटे उपहारों से लाद रहे थे।सब की ज़ुबान पर एक ही बात थी…”डा. सा’ब तो देवता हैं।”सबकी आँखों मे कितना प्यार और आदर था।जयंत को अपने मरीज़ याद आ गए जिनकी नज़र मे वो काबिल डाक्टर तो था पर उसकी लम्बी चौड़ी फीस चुका कर पीठ पीछे सब उसे मरीजों का खून चूसने वाला कहते थे।

“डाक्टर चाचू…मैंने ये अपने हाथ से बनायी है..।”एक छोटी सी बच्ची ने एक पेन्टिंग भेंट करते हुए कहा तो मधुर ने प्यार से उसका माथा चूम लिया।


“इस बच्ची को डा. साब ने ही ज़िन्दगी दी है…इसके पिता के पास पैसा नहीं था इलाज का..जब इसे तपेदिक हो गई थी.. डाक्टर साब ने मुफ़्त दवा इलाज किया इसका…”,जयंत से कोई बता रहा था और जयंत को कुछ दिन पहले अपने नर्सिंग होम मे हुई तोड़ फोड़ याद आ गई… जहाँ एक मरीज़ की मृत्यु होने पर भी उसके भाई को अस्पताल का दो लाख का बिल चुकाना पड़ा था।

पार्टी में खाना बेहद् स्वादिष्ट था… पर किसी मशहूर कैटरर ने नहीं बल्कि कस्बे की औरतों ने मिल कर बनाया था।

“जयंत…यही मेरी दौलत है…जो मुझे भरपूर मिली है।.मैने ग्यारह साल अपने लिए नहीं इन्हीं लोगों के लिये मेहनत की थी..और मेरी पत्नी भी इसमे सहयोगी है “,चलते समय डा. मधुर ने गम्भीरता से कहा तो जयंत भावुक हो उठा,

“यार.. तुमने तो असली दौलत कमाई है ….हम तो बस कागज़ के टुकड़ों मे ही फंसे रह गए”,उनके दिल से एक हूक उठी थी,’काश!वो भी मधुर की भांति सच्चे मायनों में डाक्टर हो सकते’।

मंजू सक्सेना

लखनऊ

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