अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 41) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

पति को रसोई के दरवाजे पर देख अंजना का ट्रे पकड़े अंजना का हाथ कांप गया था और दिल की धड़कन बेशक बढ़ गई लेकिन चेहरे पर शून्य का भाव पसर गया। जिसे अंजना के पति ने भी महसूस किया।

“तुम अपनी चाय भी ले आना।” कातर दृष्टि से अंजना की ओर देखकर उसके पति कहते हैं और वहाॅं से हटकर डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गए।

“वो मैंने खुद के लिए चाय नहीं बनाई है।” पीछे से आकर अंजना धीरे से चेहरे पर छाए उसी भाव के साथ कहती है।

“इसी में से आधी आधी कर लेते हैं।” पतिदेव किसी तरह मुंह के पानी को गटकते हुए कहते हैं।

“नहीं, मैंने बच्चों के साथ ले लिया था, आप लीजिए।” प्याला पतिदेव की ओर खिसकाती हुई अंजना कहती है। उसका स्वर पतिदेव के प्रति कुछ कठोर सा हो गया था या यूं कहें कि इन सालों में वो इस रिश्ते के प्रति असहिष्णु और कठोर हो गई थी।

पतिदेव चुपचाप से चाय की प्याला उठा कर अपने होंठों के पास ले जाते हैं। अंजना के चेहरे पर एक गहरा दुःख होता है, जो किसी से नहीं कहा जा सकता, लेकिन वह चाहती है कि पति इसे समझें। दोनों की नजरें मिलती हैं, लेकिन दोनों की नजरों में कुछ अधूरापन का एहसास बना रहता है।

पतिदेव अपनी पत्नी की आँखों में छुपे दुःख को चाय की हर घूंट के साथ महसूस कर रहे थे, लेकिन उनके मुंह से बात नहीं निकलती। अंजना भी अपने पति की दर्द भरी आँखों को समझ रही थी, परंतु वह भी अपनी खामोश लबों को खोलना नहीं चाहती थी। 

डाइनिंग टेबल के इर्द गिर्द चाय की खुशबू रची बसी हुई थी, परंतु अंजना और उसके पतिदेव मुकुंद के बीच की खामोशी में एक अजीब सा तनाव छाया हुआ था। वे एक दूसरे के दर्द को समझते थे, परंतु बोलते नहीं थे, जैसे कि कुछ अज्ञात समस्याएं उनके बीच खड़ी थी। चाय की खुशबू भी मानो एक अजीब सी तनाव की कहानी सुना रही थी, जिसमें शब्दों का सामर्थ्य हार रहा था और खामोशी उनकी भावनाओं को गहराई से छूने का कार्य कर रही थी।

नथुने में जाती चाय की महक, बंद खिड़की से आ रही धीमी धीमी ठंडक और उस महकती चाय के प्याले में बसी अतीत की परछाइयों की छाप, ये सभी मिलकर एक अजीब सा वातावरण बना रही थी। उनका साथ होने के बावजूद, वे एक दूसरे से अलग थे, जैसे खोए हुए सितारे एक दूसरे के सामने खड़े दिए गए हों और दोनों अजनबियों से एक दूसरे को देख रहे हो।

यह उनकी मुलाकात का मौसम था पर शब्दों की जगह एक खामोशी दोनों की कहानी सुना रहा था। वे चाय के प्याले की ओट में अपनी भावनाओं को छुपाए बैठे थे और उनकी आंखों एक दूसरे को समझा रही थी, बिना कुछ कहे। साथ होते हुए भी इस अजीब से अलगाव में कुछ खोया सा था। दोनों के उनके बीच बैठे मौन से एक नई शुरुआत का एहसास हो रहा था। वे अपने दिल की बातें बिना शब्दों के साझा कर रहे थे और इस खामोशी में उनका संवाद एक नए संबंध की ओर बढ़ रहा था। चाय की महक, पत्नी की मेहनत और पति की आँखों में छुपे दर्द के साथ, यह अजीब सा संवाद उनके बीच एक नई ज़िंदगी की शुरुआत कर रहा था।

अंजना का ध्यान पति से विलग होकर विनया की ओर केंद्रित हो गया था, “विनया अपने सारे अहम् ताक पर रख, सारी इच्छाएं, सारी खुशियां ताक पर इस घर को, इस घर के सदस्यों को एक करने में जुटी है और मेरे गिले शिकवे समाप्त ही नहीं हो रहे हैं। चाह कर भी मैं साथ बैठकर चाय तक नहीं ले पाई। जो इन्होंने मुझसे छीना, वो मैं इन्हें इतनी आसानी से क्यों दूं। लेकिन वो लड़की जिसकी जिंदगी अभी अंगराई ही ले रही थी, उसने घर को एक सूत्र में बांधने का बीड़ा उठा लिया।

उसके हृदय में विचारों का ज्वार–भाटा उठ रहा था, जिसमें समझदारी भरी भावना भी छिपी हुई थी, जो विनया को अपनी जिम्मेदारियों संचेतन देखकर प्रकट हुई थी और उसकी अनुपस्थिति में वो अपने मनोभाव के साथ उसका विश्लेषण कर रहा था, साथ ही उस ज्वार–भाटा में बीते क्षणों का हिसाब की लेने की चाह के अंगारें भी धधक थे।

समय की गहराईयों में अंजना की आंखों में सतत एक सवाल था, जो मुकुंद को आत्मनिरीक्षण में डाल रहा था क्योंकि मनीष के परिवर्तित रूप ने उन्हें भी सोचने पर मजबूर कर दिया था, जिसका नतीजा था कि वो अंजना के साथ सारे दुःख दर्द बांटना चाह रहे थे। लेकिन इस वक्त अंजना के स्त्रीत्व के लिए ये गंवारा नहीं था।

उसे एक ही बार सालती जा रही थी, अगर मुकुंद पति धर्म भी निभा पाते तो उनके मध्य ये दूरियां नहीं आती और यह असमानता का अहसास उसके हृदय में घर नहीं बनाता। अगर पति उससे गुण अवगुण साझा  करते तो इन दूरियों का समापन हो सकता था। अंजना का हृदय और मन दोनों ही एक ही दिशा में सोच रहे थे। क्या वही गलती अंजना भी करने जा रही थी, जो गलती बरसों पहले अंजना के मायके से वापस आने पर उसके पतिदेव ने की थी। उस समय अंजना मुकुंद से हालातों पर चर्चा करना चाहती थी और मुकुंद नजरंदाज करते रहे। आज मुकुंद हालातों के बारे में चर्चा करना चाहते हैं तो अंजना मुंह सिले बैठी थी। उसे इस बीतते वक्त का एक एक सेकंड भी एक साल की तरह प्रतीत हो रहा था, उसे लग रहा था मानो वो एक ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई है, जहां एक मार्ग उसे पीछे धकेल कर अतीत के बियाबान में ही विचरण करने के लिए उकसा रहा था और एक राह उसे मुकुंद के समकक्ष ले जाना चाहती थी, उस दोराहे में विनया का हॅंसता मुखड़ा भी उसके सामने बार बार प्रकट होकर समकक्षता की बात कर रहा था।

उसने एक गहरी सांस ली और सोचा, “कभी-कभी सान्त्वना का सबसे बड़ा रूप खामोशी होता है।” वह अपने पति के परिचित संबंधों को फिर से समझने का प्रयास कर रही थी, लेकिन इस खामोशी को भी महसूस कर रही थी, जो उनके बीच बढ़ी हुई थी। लेकिन अभी दोनों के आमने सामने होते हुए भी घर में पसरा यह अकेलापन उसके मन की गुत्थी को सुलझाने का कार्य करता भी महसूस हो रहा था, जो उसकी आत्मा को छू रहा था। अंजना ने मुकुंद की ओर एक नजर देखकर नजरें चुराईं और मन में गहरा विचार किया कि कैसे इसे सुलझाया जा सकता है।

उसने निश्चय किया कि किसी को तो पहल करनी होगी। एक बार विनया की तरह वो भी दोस्ती का हाथ बढ़ा कर देखेगी और अगर मुकुंद इस समय को फिर से थाम सके तो दोस्ती के एक सिरे को वह हमेशा पकड़े रहेगी।

वह इस रिश्ते को नए मोड़ पर ले जाने के लिए खुद को तैयार कर रही थी। अगर मुकुंद इस अवसर को सही तरीके से बचा सकें, तो दोनों का मेल और समर्थन एक नए सफर की शुरुआत कर सकता है। अंजना मुकुंद के प्लेट में पसरे ठंडे पोहे की ओर देखती है और उस प्लेट को पोहे के डोंगे सहित उठाकर रसोई की ओर बढ़ गई। मुकुंद अंजना के क्रियाकलाप को देखते चुपचाप बैठे रहे। कहना तो वो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन एक अज्ञात मौन ने उन्हें जकड़ लिया था। उन्हें अपनी गलतियों का अहसास था, जिसे कबूल कर वो अंजना के तप्त हृदय के मरुस्थल पर ठंडे फुहारों का छींटा तो दे ही सकते थे। लेकिन उनके लिए सब कुछ समझते हुए जज्बातों के बूंद टपकाना कठिन हो रहा था।

और उधर अंजना फिर से प्लेट और डोंगे के साथ डाइनिंग टेबल पर लौट आई साथ ही मुकुंद को भी उनके विचारों की धारा से निकाल कर यथार्थ में ले आई। उसके आहट को सुनते ही मुकुंद सजग होकर बैठ गए, लेकिन अपनी पत्नी के ही सामने सहज नहीं हो पा रहे थे।

अंजना मुकुंद की ओर देखे बिना एक प्लेट में गर्म भाप में लिपटा पोहा निकाल कर मुकुंद की ओर बढ़ाती है और दूसरे प्लेट में पोहा निकाल अपने सामने रख लेती है। उस उड़ते भाप के साथ शायद मुकुंद का संकोच भी उड़े जा रहा था। उन्होंने नजर उठाई और अंजना के सामने रखी प्लेट उठाकर अपने सामने और अपनी प्लेट अंजना के सामने रखते हुए धीमे से मुस्कुराते हैं। वे दोनों अपनी अपनी भावनाओं को अपने हृदय में छुपाए बैठे थे, अंजना को ऐसा लगा जैसे प्लेट की अदला बदली और मुस्कान में मुकुंद का आश्वासन साकार रूप ले रहा था, जैसे कि एक नदी की प्रारंभिक धारा का आगमन हो रहा था। अंजना की ऑंखों में वह नदी बांध तोड़ने के लिए आतुर हो उठी थी। कभी मुकुंद की यह आदत उसमें माधुर्यपूर्ण भावना भर देती थी, उसके अधर पर मुस्कान नृत्य करने लगते थे और “तुम्हारी प्लेट में ज्यादा है” का झूठा उलाहना देता मुकुंद उसे बहुत ही मासूम लगता था। लेकिन कालांतर में यही झूठा उलाहना इस रिश्ते को ही झुठला बैठा। अंजना प्लेट की ओर देखती हुई कई सवालों से घिरी मुकुंद की ओर देखने लगी। हमसफर होकर भी दोनों अपनी अपनी राहों पर चल पड़े थे और अब मुकुंद की बारी थी फिर से इस रिश्ते को जीवित करने की।

“अंजना”, पत्नी का नाम लेते हुए मुकुंद गला साफ करते हुए आगे कहना जारी रखते हैं “बहू के आने के बाद घर में जो कुछ हुआ, खासकर इन दिनों में, मैंने समझा कि केवल घर का मुखिया कहलाना ही काफी नहीं होता है बल्कि मुखिया वो होता है जो मुख्य बातों को समझ कर निर्णय ले। मैं ये करने में असफल रहा। जिसका खामियाजा तुम्हें भुगतना पड़ा, बच्चों को भुगतना पड़ा।” बोल कर मुकुंद अंजना की प्रतिक्रिया देखने के लिए रुकते हैं और अंजना उनकी ओर एकटक देखती हुई मिलती है।

“मैं समझता हूं उस समय जो हुआ सही नहीं हुआ था, उचित नहीं था।” मुकुंद झेंपता हुआ कहता है।

“जी आपने सही कहा, आप मुख्य बातों को अपने पीछे छिपा कर चलते हैं, जिससे वो आपको दिखे नहीं और आप इस गफलत में रहें कि सब कुछ ठीक है। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है लेकिन ये गड़बड़ी तो बेल की तरह पसरती ही चली गई और एक अनजान लड़की इस घर में आते ही इसे भांप कर विचलित हो गई तो मैं तो विचलन की साक्षात प्रतिमूर्ति ही हो गई हूं।” अंजना बोलती हुई व्यग्र हो उठी।

“अंजना तुम मेरी इस गलती के लिए जो भी सजा मुकर्रर करो, मुझे मंजूर है। लेकिन अब मैं भी इस घर की खुशी में अपना योगदान देना चाहता हूं। तुम्हारा या मेरा वो समय वापस मुड़ कर आ नहीं सकता है, ना ही मैं तुम्हें मेरी गलती कभी भूलने दूंगा। लेकिन इस तरह कट कट मैं अब जीना भी नहीं चाहता।” बोलते हुए अंजना वाली व्यग्रता अब मुकुंद के चेहरे पर दिखने लगी थी।

अंजना अपने आपको संभालती हुई विवेकपूर्ण भावना के साथ कहती है,” इन दिनों आपने सही सीखा है कि घर का मुखिया न केवल निर्णय लेने में बल्कि बच्चों को सही रास्ते पर चलाने में भी सहायक होना चाहिए। हम बच्चों से उस समय अपना प्यार छीन कर बैठ गए, जब उन्हें हमारी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। हम अब भी एक साथ हो सकते हैं, अपने भावनाओं का आदान प्रदान बिल्कुल उसी तरह कर सकते हैं, जिस तरह आपने प्लेट को बदल दिया। अंजना की आँखों में समझदारी और स्नेह की चमक है, जो मुकुंद को सहानुभूति और प्यार का अहसास कराती है। अगर विनया इस मकान को घर बनाने की पहल कर सकती है तो हमने तो इस मकान को खड़ा ही किया था और अब उसके कदम से कदम मिला कर चल तो सकते ही हैं।

मुकुंद अपने वचनों के साथ अंजना की ओर देखते हुए भावनाओं में बदलाव महसूस करता है और एक नए प्रारंभ की ओर कदम बढ़ाता है। यह उनके जीवन में एक नए युग की शुरुआत को सूचित करता है, जहां उनका मिलनसर संबंध नई ऊर्जा और समृद्धि के साथ नए आयामों की ओर बढ़ रहा है।

इस बातचीत के बाद, वे एक दूसरे के साथ एक नए दौर की शुरुआत करते हैं, जिसमें समझदारी, समर्थन, और प्यार की मिठास है और बर्फ की तरह ठंडा हो चुका पोहा का स्वाद दोनों के लिए अप्रतिम बन चुका था।

“कितना रोएगा मनीष, पूरे रास्ते मुंह सुझाए ही आया है। तुम्हारी ही बुआ हैं, जब चाहो बुला लो। लेकिन हमें भी तो इनकी जरूरत है। गोलू को अकेले संभालना कोयला के वश में नहीं है।” स्टेशन के लिए निकलते हुए संभव रोते हुए मनीष को समझा रहा था। मनीष ने माॅं के बाद किसी का पल्लू थामा तो वो उसकी बुआ ही थी। चाहे इन तीन चार दिनों में सच्चाई सामने आ गई हो लेकिन हृदय का लबालब भरे प्रेम से पूर्णतः रिक्त होना असम्भव ही प्रतीत होता है।

सभी को स्टेशन पहुंचा कर आने के बाद विनया के लिए मनीष को संभालना कठिन हो गया था। रात के खाने के बाद अपने कमरे में बिस्तर पर बैठी विनया सजल नैनों से सोफे पर लेटे मनीष को देखती अपनी डायरी गोद में लिए कलम को मुंह में चबाती विचारों के घोड़े पर सवार विचरण कर रही थी और कुछ सोचती सिर झुकाए लिखती भी जा रही थी।

“घर कितना खाली खाली सा हो गया।” मनीष की आवाज इतने निकट से आई कि अचंभित विनय के हाथ से डायरी हड़बड़ाहट में नीचे गिर गई।

विनया की सोचों की गहराई में खोए और डायरी में भावनाओं को उकेरते देख मनीष उससे अपने दिल के राज उसके सामने रखने का निर्णय करता है और विनया खुद में इस कदर खोई थी कि उसे मनीष के कमरे में चहलकदमी करने का भी पता नहीं चला, जिस कारण उसकी आवाज सुनकर वो अचंभित हो डर गई। 

“ऐसे देख रही हो, जैसे कमरे में तुमने भूत देख लिया हो।” मनीष नीचे गिरे डायरी को उठाता हुआ कहता है।

“नहीं, ये इधर दीजिए।” सफेद हो गए चेहरे के साथ मनीष के हाथों से डायरी झपटती हुई विनया कहती है।

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