अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 36) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

सुबह की बेला जब सूर्योदय के साथ हवा में ठंडक भरी होती है, जिसके साथ जुड़ कर हृदय भी ताजगी व मिठास से भरा सुगंध लिए नए दिन का स्वागत करता है। रात का अंधेरा दबे पाॅंव विलीन होता नई उम्मीदों का किरण बिखेरता है, उस समय शोर और शंका के बजाय  शांति का अनुभव होता है। यह वह समय होता है जब प्राकृतिक सुंदरता अपने पूर्ण स्वरूप में चमकती है। फूलों का नृत्य, हरी हरी घास का खिल कर मुस्कुराना और पेड़-पौधों की गुनगुनाती चहचहाती शाखाएं, ये सभी एक नए दिन की खुशी और समृद्धि का संकेत देती हुई झूम रही होती हैं। यह एक नए युग की शुरुआत की एक अद्वितीय घड़ी होती है। यह जीवन का नया चरण है, जिसमें सभी संभावनाएं और सपने महकते हैं और इस बेला का आनंद उठाती हुई विनया बालकनी का रेलिंग पकड़े अपने श्वासों में ताजगी जमा करती मुस्कुराती सामने के वृक्ष पर विहग के एक जोड़े को किलोल करते देख मुग्ध होकर अधर पर मुस्कान संजोए देख रही थी।

“अहा भाभी, सुबह सुबह आपकी सुंदर मुस्कान देख दिन बन गया मेरा तो”… संपदा ऑंखें मलती हुई बालकनी में आकर विनया से लिपटते हुए कहती है।

अपनी धुन में खोई विनया स्तब्ध होकर चीख पड़ी थी। “ओह दीदी आप, मैं तो डर ही गई थी।”

उस आघातजनक क्षण के बाद संपदा धीरे अपनी मिलनसर मुस्कान के साथ कहती है, “ओह भाभी, मैंने आपको डरा दिया। मुझे खेद है।”

विनया की मुस्कान में साकार भावनाएं छुपी थी, जो संपदा को भी प्रभावित कर रही थी। विनया ने अपनी आत्मा को प्रकट करते हुए कहा, “नहीं दीदी, यह तो आपका प्रेम है जो मुझे हर क्षण खुद को पाने में मदद करता है।”

विनया संपदा को सामने का सुंदर दृश्य दिखाते हुए कहती है, “वो देखिए दी, कितना सुंदर बसेरा है ना उन पक्षियों का, छोटे छोटे चूजे। यहाँ मैंने एक पल के लिए अद्भुत अनुभव किया है।”

उसने बगीचे में बैठे पक्षियों की चहचहाहट और उनके खुले पंखों की छाया की ओर देखकर कहा, “भावनाओं का एक साकार रूप देखा है दीदी। इन पक्षियों की बोली की मिठास और खुले आसमान के नीचे होने का अनुभव करके, मैंने सच्चे आनंद की भावना पाई है।”

संपदा अवाक सी विनया द्वारा किए गए वर्णन को सुनती रही। “भाभी, हमने भी ये दृश्य जाने कितनी बार देखा है, लेकिन कभी आपकी तरह सोच पनप नहीं सकी।”

विनया का दृष्टिकोण और उसकी भावनाओं का वर्णन संपदा को आधुनिकता और संवेदनशीलता को नई दृष्टि से देखने में सहायक रहा। संपदा ने विनया की सोच को महत्वपूर्ण और अद्वितीय मानते हुए कहा, “आपकी सोच ने हमें हमारे चरित्र और जीवन की सार्थकता की नई दृष्टि प्रदान की है, भाभी।”

विनया के विचारों के माध्यम से, संपदा ने एक सामर्थ्यपूर्ण सोच को प्रेरित करने वाले संदेश को समझा और उसे महसूस किया। इस संवाद ने न केवल उनकी दृष्टि में नई बातें जागृत की, बल्कि सोचने के तरीके में भी एक नया रूप दिखाया।

“सबकी अपनी अलग अलग पसंद होती है दीदी, जैसे मैं आपके नाटक में फिट नहीं बठूंगी। उसी तरह आपने इस पर कभी गौर नहीं किया। बस इतनी सी बात होती है, दीदी।” विनया संपदा को अपराध बोध से निकालती हुई कहती है।

“ये सब अब बाद के लिए, ये बताइए माॅं का स्वास्थ्य कैसा है अब। रात नींद आई उन्हें।” विनया संपदा से पूछती है।

“आप निश्चिंत रहिए भाभी, ऑल ओके है।” संपदा उसे आश्वस्त करती हुई कहती है।

“भाभी आज की चाय का क्या करेंगे।” संपदा फुसफुसा कर विनया से पूछती है।

“मैं बना दूंगा। तुम्हें तो रिहर्सल के लिए जल्दी जाना होगा।” मनीष अंगराई लेते हुए आकार कहता है और अभी रात की खुद को कही गई बातों को याद कर विनया असहज हो गई और मनीष उसकी असहजता को देख मंद मंद मुस्कुराने लगा। उसका मुस्कराने का तरीका और उसकी स्वाभाविक शैली विनया को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा था और उसे मनीष पर से नजर ना हटाने के लिए मजबूर कर रही थी।

विनया की असहजता के पीछे छुपी भावनाएं और मनीष की अंगराई ने निशा के एक एक शब्द को आलोकित कर दिया था। वह भी और यह भी विशेष लम्हा था जो उनके एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए रिश्ते को दर्शा रहा था, उसमें मुखर होते प्रेम का का अहसास आत्मीयता की भावना से भरा हुआ था, जो उन्हें एक दूसरे के साथ गहरे तालमेल में लिपटने का अहसास करा रहा था। इस ताजगी भरे पल में, वे नए संगीतीय अभ्यास की दिशा में बढ़ रहे थे, जीवन की नई ऊर्जा के साथ।

“पापा”, अचानक बालकनी में संपदा की तेज आवाज गूंज गई और मनीष जल्दी से अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा और विनया पलक झपकाने लगी और उनकी हड़बड़ाहट देख संपदा की हंसी का फव्वारा बालकनी में बिखर गया।

संपदा की तेज आवाज ने बालकनी को जीवंत कर दिया और उसकी हंसी ने माहौल को हर्षित बना दिया। विनया की हड़बड़ाहट और संपदा की हंसी ने एक खुशी भरे पल को उत्पन्न कर दिया।

बालकनी में बिखरी हुई हंसी, शोरगुल के बीच, एक खास रोमांटिक और हास्यपूर्ण परिस्थिति बन रही थी। संपदा की हंसी से मनीष के मुख पर हर्ष और आश्चर्य से भरी आंखें संपदा की ओर टेढ़ी नजरों से झूठी नाराजगी से देख कर रही थीं। इस क्षण विनया की असहजता भी हंसी में बदल गई थी और तीनों के लिए ही यह सुबह हंसी, प्यार और मिठास के साथ सना हुआ एक यादगार सुबह बन गया था।

“हूं, तो भैया, रसोई उस तरफ है। अब जाकर चाय बनाइए। सभी को बिस्तर पर ही चाय चाहिए होता है। मैं माॅं को देखती हूॅं।” संपदा मनीष से कहती है।

“और भैया चाय मसाला भी जरूर डाल दीजिएगा, वो जो कल भाभी के घर से आया है। ना मिले तो भाभी को आवाज दीजिएगा।” मनीष रसोई की ओर चला तो संपदा पीछे से मुस्कुराती हुई कहती है। उसकी आवाज में शरारत छुपी थी। हमेशा ललाट पर कई रेखाएं लिए चलता मनीष आज बहुत ही नर्म मुलायम रेखा के साथ दोनों के सामने था तो संपदा इस अवसर को गंवाना नहीं चाहती थी इसलिए भाई के साथ चुहल करने से बाज नहीं आई।

“भाभी इस घर की हवा में आपकी ताजगी और खुशबू इस कदर घुल मिल गई है कि हमारे दिनों की रंगत बदल रही है।” संपदा मनीष के रुई के फाहे से नरमी लिए रूप को देखकर भावातिरेक में विनया के गले से लगती हुई कहती है।

रसोई की दिशा में बढ़ते हुए मनीष ने चाय के लिए सामग्री लेते हुए संपदा को आवाज दिया, “संपदा आकर कौन सी चीज कहां है, ये तो बता दो।”

“लीजिए आपके लिए पुकार आ गई।” अभी संपदा कुछ और कहती है, उससे पहले ही मनीष की आवाज दोनों के कानों से टकराई और संपदा विनया को रसोई की दिशा में धकेलती हुई कहती है।

विनया खुद को संपदा के हाथों से बचाती हुई कहती है, “दीदी आपको बुलाया है, आप ही जाइए। ख्वामखाह गुस्सा हो गए तो दिन भर की आदत ही हो जाएगी।”

“चलिए ये भी सही, हाय मेरे भैया। नाम भी जुबान पर नहीं ला पाते हैं।” बोलती हुई संपदा रसोई की ओर और विनया अंजना के कमरे की ओर बढ़ गई।

“ये चीनी कहाॅं रखी हुई है।” पदचाप सुनकर काउंटर के पास खड़ा मनीष मुड़ता है।

“तुम”, संपदा को सामने देख उसकी ऑंखें आश्चर्य से फैल गई। मनीष के चेहरे के भाव कुछ यूं थे जैसे ट्यूबलाइट ऑन होकर अचानक ऑफ हो गई हो और आसपास अंधेरा सा हो गया हो।

“हां, आप किसी और की उम्मीद लगाए बैठे थे क्या। नाम तो मेरा ही पुकारा था आपने।” संपदा मनीष की स्थिति के मजे लेते हुए कहती है।

उनकी मुस्कराहट में छिपी शरारत ने इस क्षण को और भी रंगीन बना दिया। संपदा ने अपने भाई के साथ मजाक मस्ती प्रारंभ करने में तनिक भी देर नहीं लगाई, इस पल के सामने आते ही उसे लपक कर पकड़ लिया। बिता समय वापस नहीं आता, लेकिन जो समय सामने है, उसके अतीत हो जाने से पहले तो प्रशंसात्मक बनाया जा सकता है। विनया ने संपदा की सोच को विस्तृत कर दिया था और जिसका प्रतिफल था कि अभी दोनों भाई–बहन एक साथ हंसी-मजाक में डूबे हुए एक दूसरे की सहायता करते हुए उन लम्हों को मित्रपूर्ण बना रहे थे।

रसोई में महकती चाय की खुशबू दोनों के बीच मिठास और आत्मीयता के माहौल को और भी सुगम बना रही थी। यह छोटा सा पल उनके जीवन को खास बना देने के लिए तैयार था, जो हर क्षण को आपसी समर्पण और आनंद से भर देने का आशीर्वाद दे रहा था।

“ओह ये क्या भैया, एक कप चाय ज्यादा हो गई।” कप में चाय डालती संपदा कहती है।

टिंग टोंग…इसी समय के लिए एक कप चाय ज्यादा बनाई है मैंने। कहता हुआ मनीष दरवाजा खोलने चला गया।

“ये, ये अखबार।” मनीष को दरवाजे पर देख प्रह्लाद मामा जी सकपका गए।

“जी, मम्मी से तो मिल लीजिए।” मनीष का अदब भरा व्यवहार मामा जी को आश्चर्य में डाल रहा था। क्योंकि उन्होंने सदैव देखा और समझा था कि इस घर के पुरुषों को उनका इस घर में आना नागवार गुजरता था, इसलिए अभी भी उनके चेहरे पर सकुचाहट का भाव था। लेकिन बहन को देखने की अदम्य इच्छा के कारण उन्होंने मना नहीं किया और मनीष के साथ घर के अंदर आ गए।

“संपदा चाय माॅं के कमरे में ले आओ”, पापा के कमरे में चाय देने गई मनीष संपदा को आवाज देता है।

“दादा, आप” तकिए के सहारे बैठी अंजना सीधी होकर बैठनी लगी। अंजना ये बोलते हुए मनीष की ओर जिज्ञासु नजर से देखती है। अंजना और विनया ही मनीष और प्रह्लाद मामा जी को साथ देख कर कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी। दोनों के भीतर सवालों का मंथन चल रहा था। दोनों का मौन संवाद मनीष तक पहुंच रहा था, लेकिन उसने उनके सवालों का उत्तर देने के लिए उन दोनों के साथ संवाद की आवश्यकता नहीं समझी। 

वह संपदा के हाथ से चाय की ट्रे लेकर कहता है, “मामाजी भांजे के हाथ की चाय बिस्किट के साथ। इसके अलावा आपका नालायक भांजा कुछ और नहीं बना सकता है और विनया मामाजी हैं मेरा, प्रणाम तो करो।” मनीष के इस कथन ने सिद्ध कर दिया कि उसने हृदय से प्रह्लाद मामा जी को बतौर घर का सदस्य समझ कर मान दे रहा है। इस हास्यपूर्ण दृष्टिकोण ने सभी को मुस्कराहट में लिपटा दिया और सबने घरेलू साझेदारी के रंग भरे पलों का आनंद लिया।

अंजना गदगद हो उठी और उसने ऑंखों से बगल में खड़ी विनया को ढेरों आशीर्वाद देते हुए उसके हाथ को कसकर पकड़ लिया था। वह ममत्व की भावना से भरी हुई थी। इस पल में एक गहरे संबंध की मिठास महसूस हो रही थी, जो शब्दों से परे था। दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े घर में आने वाली खुशियों के लिए दिल के दरवाजे खोल रही थी।

“आप लोग चाय लीजिए, मैं आता हूं”, कहकर मनीष रेडी से दूसरी ट्रे लेकर बुआ के कमरे की ओर चल पड़ा। जहां कोयल और संभव भी बैठे हुए थे।

“ये लीजिए आज मेरे हाथ की चाय बुआ और बताइए, कैसी बनी है।” चाय की ट्रे रखकर वही बैठता हुआ मनीष कहता है।

“भाई, आज तुमने चाय बनाई, क्या बात है।” संभव मनीष की पीठ पर शाबाशी देता हुआ कहता है।

“आज के दिन की शुरुआत तो मीठी मीठी हो गई।” कोयल भी पति की बातों को आगे बढ़ाती हुई कहती है।

“अरे ये सब क्या मर्दों के करने के काम हैं। घर की बहू बहू नहीं हुई, मेहमान हो गई जैसे।” बड़ी बुआ जल भुन गई थी, उन्हें अपनी इतने दिनों की कुटिल नीतियों की मेहनत बेकार होती नजर आ रही थी।

“क्या मम्मी जी, जब आप दादा दादी की बीमारी के डर से यहां आ जाती थी तो संभव और पापा जी ही तो सब कुछ करते थे। ये दोनों भी तो मर्द ही हैं।” कोयल तपाक से कहती है।

“क्या आप लोग भी, चाय को ही गरम रहने दीजिए अभी, आप लोग की गर्मी से चाय शरमा कर ठंडी हो जाएगी। पी कर बताइए, कैसी बनी है।” मनीष गरम होते माहौल को नरम करने के उद्देश्य से कहता है।

“मनीष इज बैक।” मनीष के इस तरह बोलने पर संभव ताली बजाते हुए खुश होकर कहता है।

“एक समय था मनीष के पास पल भर के लिए कोई मुंह बंद करके नहीं बैठ सकता था। मामी जी के पल्लू में घुसा घुसा वही से बातों की ऐसी फुलझड़ी छोड़ता था कि सभी को लोट पोट कर देता था। बिल्कुल वैसे ही जैसे कल विनया के भैया को देखा तुमने। फिर वो मनीष खो गया और अभी उसी मनीष की हल्की सी छवि दिखी।” कोयल की ऑंखों में तैरते प्रश्न को देखकर संभव बीते वक्त का स्मरण करता हुआ कहता है।

“संपदा मम्मी तैयार है क्या, डॉक्टर से अपॉइंटमेंट मिल गया है। पापा और मम्मी दोनों का ही आज पूरा चेक अप करा लाता हूं। ऑफिस से छुट्टी ले ली है मैंने और नाश्ता भी थोड़ी देर में आ जाएगा। तुम भी रेडी हो जाओ तो कॉलेज पहुंचाते निकल जाऊंगा।” अंजना के कमरे से निकलती संपदा को देख मनीष कहता है।

“ये क्या भैया, अभी लैपटॉप लेकर बैठे हैं, आप रेडी हैं।” संपदा बैठक में मनीष के करीब आती हुई कहती है।

“हूं, टिकट देख रहा हूं।” शायद मनीष अब सब कुछ व्यवस्थित करने का मन बना चुका था।

“विनया, तुम सभी को नाश्ता करा देना। हम लोग बाहर ही नाश्ता कर लेंगे और तुम भी नाश्ता कर लेना।” मनीष सबके बाहर निकलने पर दरवाजा बंद करने खड़ी विनया को देखते हुए कहता है। मनीष की नजरों में एक शांत ठहराव था, जिसमें विनया आज अपना अक्स देख रही थी और उस अक्स को देख उसका सलोना मुखड़ा आरक्त हो गया मानो सुबह की बेला में उगते हुए सूर्य ने अपनी कुछ लालिमा विनया के चेहरे पर बिखरा दिए थे।

आगे की कहानी पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 37)

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 37) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 35)

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 35) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

आरती झा आद्या

दिल्ली

2 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 36) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!