आखिर भेदभाव क्यों? – संगीता श्रीवास्तव

“तुम मानो या ना मानो धीरन की अम्मा! तुम्हारे बहुरिया के कोख में ही खोट हवे, तभी तो दोनों बार बहुरिया ने बेटी ही जनम दीहो है।”पड़ोसन सरला देवी ने बेधड़क, सुलोचना जी से कहा। कुछ और बातें सरला देवी कह न दे इसलिए सुलोचना जी ने उन्हें इधर -उधर की बातों में उलझाए रखा और काम का बहाना कर उन्हें जल्दी ही टरका (घर से बाहर) दिया। सरला के पति नामी-गिरामी वकील थे और यह सरला !जाहिल, अनपढ़ -गंवार, वकील साहब के मत्थे  मढ़ गई थी।

सरला देवी के जाने के बाद, सुलोचना जी सोचने लगी थी… आज पूरा देश विकास – क्रम में है और हर तरह से विकास हो भी रहा, फिर भी देश में लड़का- लड़की में भेदभाव क्यों? चलो, सरला देवी अनपढ़- जाहिल है लेकिन बहुत सारे लोग जो पढ़े लिखे भी हैं वह भी इस सरला की तरह ही क्यों सोचते हैं? जन्म देने वाली मां भी तो पहले लड़की ही थी न? फिर भी क्यों नहीं सोचते ,क्यों नहीं समझते, क्यों भेदभाव करते? मैं भी मां हूं, सरला भी मां है, बहू भी मां है, जितनी भी मांये हैं, वह पहले लड़की ही तो थी? फिर ये भेदभाव?

   तभी रुनुर-झुनुर पायल बजाती 2 साल की पोती दादी, दादी कहते हुए सुलोचना जी के गोद में चढ़ गई । उसे गोद में उठा मुस्कुराते हुए मन ही मन बोली”मैं नहीं करती भेदभाव”और उसे चूमने लगीं तो वह खिलखिला पड़ी।

   सुलोचना जी को एक बेटा जो मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर के पोस्ट पर था । बहू भी सुंदर ,सुशील और अच्छी पढ़ी लिखी थी। एक बेटी जो बी टेक कर रही थी। पति प्रोफेसर थे जो अब रिटायर्ड है।

सुलोचना जी अपनी बेटी से बातचीत कर रही थी कि अचानक से सरला देवी ने दस्तक दिया।”कहो बहन जी क्या हाल है? बिटिया की अब शादी कर देहु। आखिर पढ़ लिख कर चूल्हा- चौकी ही तो करना है।”बेटी गुस्से में उनकी ये बातें सुन वहां से चल दी। सरला देवी को यह कहां समझ कि जिससे वह बात कर रही है स्वयं एक शिक्षिका है। सुलोचना जी सरला देवी को आने से मना भी नहीं कर पाती थी और ना ही उनसे मुंह ही लगना चाहती थी। बस, जल्दी से चाय पिला उन्हें विदा कर दिया करती थी।

सुलोचना जी की बचपन की दोस्त चित्रा, इसी शहर में प्रोफ़ेसर थी। गाहे-बगाहे इनका मिलना हो जाया करता था।




   चित्रा ,पांच भाइयों के बाद सबसे छोटी थी। बचपन में वह हर एक काम करती थी जो उसके भाई करते थे। जब चित्रा की मां कहती कि “बिटिया, तू लड़की है भाईयों से तुलना ना कर।”तब तूनक  कर चित्रा कहती-“क्यों ना करूं मां? बता तो जरा, कौन ऐसा काम है जो मैं ना कर पाऊं?”कभी-कभी मां उसके सही तर्कपूर्ण बातों के आगे निरुत्तर हो जाती । चित्रा के मां -बाप भी उसे बेटों से कम नहीं आंकते।

      सुलोचना जी को भाई नहीं था, वह भी पांच बहने थीं। सबसे छोटी थी सुलोचना। दादी के कारण, बेटे के इंतजार में पांच बेटियां हो गईं। सुलोचना जी के पापा की कम तनख्वाह की नौकरी थी इसलिए सबको स्नातक करा शादियां कर दी। सुलोचना जी का सौभाग्य था कि शादी के बाद ससुर जी ने आगे पढ़ाई जारी रखने को कहा और अब वह इंटर कॉलेज में शिक्षिका हैं।

सुलोचना और चित्रा जब भी मिलती थीं तो तरह-तरह की बातें किया करती थीं। एक शाम बिना बताए अचानक से चित्रा आ पहुंची।” अरे चित्र बताया नहीं कि आ रही! नहीं तो, तुम्हारी पसंद का इडली और सांभर बनाती न! “

चित्रा ने कहा,”हम दोनों इडली -सांभर से कम हैं क्या? तुम साफ-सुथरी इडली और मैं चटपटी सांभर!!” दोनों ठठाकर हंस पड़े। उन दोनों में हर तरह की बातें हुआ करती थी। कभी-कभी सामाजिक बातें भी घंटों किया करती थीं। बातचीत के क्रम में सुलोचना ने सरला देवी की बातें बताई। सुनते ही चित्रा आग बबूला हो गई।

“देख सुलोचना, तू ठहरी सीधी- साधी। तू ऐसे लोगों की बातों का जवाब तो ना दे पाती होगी। मैं रहती तो ऐसा जवाब देती कि वह यहां आना तो दूर, इधर नजर भी न उठा कर देखती। ऐसा कर, एक दिन जैसे ही आती है सरला देवी, मुझे तुरंत फोन कर और जब तक मैं ना आऊं उसे रोके रखना। मैं इस सरला देवी की सारी हेकड़ी निकाल दूंगी।”




“धीरे बोल चित्रा , मार करायेगी क्या?”सुलोचना जी बोली।

“ठीक है ,ठीक है नहीं बोलती। चल फटाफट बहुरानी को आवाज दे और कॉफी बनवा, जल्दी जाना है मुझे।”कॉफी पी चित्रा चली गई।

1 दिन फिर मटकते- मटकते सरला देवी सुलोचना जी के यहां चली आई। आई नहीं कि शुरू हो गई। “कुछ भी कहो धीरन की अम्मा!, बेटा ,बेटा होता है। घर की शान, खानदान का चिराग। केतना रौनक होवत है बेटा से। देखत नाही हऊ तुम्म हमार पोतवन के, कमर में घुंघरू वाला डांरा (घुंघरू लगा हुआ गूथे काले रंग का धागा जिसे कमर में पहना जाता है) पहन के जब चलत हऊंए तो केतना मनमोहना लागत हवे ।देखो ना ,जुड़वा बेटा दे दीहो भगवान ने हमार बहुरिया को।”लगातार सरला देवी अपने पोते होने की खुशी  का बखान कर रही थी। हर दूसरे -तीसरे दिन आकर सुलोचना जी को अपने शब्दों के प्रहार से आघात कर जाती थी।

बहुत दिनों बाद एक दिन सरला देवी सुलोचना जी के यहां आ पहुंची। सुलोचना जी नहीं चाहती थी कि सरला देवी उनके यहां आए लेकिन मना करें भी तो कैसे?

यूं ही हमेशा की तरह अपने पोतों का गुणगान कर रही थी। सुलोचना जी,  सरला देवी के बातों को अनसुना कर अपने सात महीने की पोती की किलकारियों में मग्न थीं। पोती के साथ इनके स्नेह को देख सरला देवी जली-भुनी जा रही थी। कुछ देर बाद बहुरानी दो प्याली चाय रख गई। सरला देवी तिरछी नजरों से बहुरानी को देख रही थी और मन ही मन बुदबुदा रही थी “कैसे इस करमजली बहु को घर में रखी हैं। मैं होती तो दुसरी बहु ले आती और इसको तो नौकरानी बना कर रखती जो घर को एक चिराग न दे सकत है।”

सरला देवी कुछ उल्टा-सीधा बातें न करने लगे इसलिए उनके दिमाग को मोड़ते हुए सुलोचना जी ने कहा,”चाय पीजिए सरला जी, बहुत बढ़िया चाय बनाती है मेरी बहु “और एक चुस्की चाय का लिया।

“वो तो ठीक है बहन जी! लेकिन तुम सोच नाही रही कुछ।बताओ भी ,तुम्हारा वंश कैसे चलेगा जब बेटा ही ना हो। मैं तो कहती हैं,धीरन की दुसरी शादी कर दीहो।”  सुलोचना जी को काटो तो खून नहीं ,वह घबरा गईं। किसी तरह उन्हें काम का बहाना बना, घर से बाहर किया। सुलोचना जी अंदर जाकर देखीं, बहुरानी का चेहरा उदास है। उसने बहु रानी को गले लगाया और कहा, “क्यूं इन जाहिलों की बातों में आना। मैंने कभी कुछ कहा। वैसे तुम भी जानती हो , बायोलॉजिकली लड़का या लड़की होना पुरुष पर निर्भर करता है न कि महिला पर। मैंने या घर में किसी ने भेदभाव किया?”




   “नहीं मम्मी जी।”

“तो फिर ये उदासी क्यों?”  इतना कहना था कि बहुरानी सुलोचना जी से लिपट सुबकने लगी थी…..।

#भेदभाव 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

उत्तर प्रदेश, लखनऊ।

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