शैली को इस शहर में आए कुछ ही दिन हुए थे । उसकी दो जुड़वाँ बेटियाँ थीं । एक दिन वह दोनों बेटियों को लेकर कॉलोनी के पार्क में गई । बच्चियाँ खेलने में मशगूल हो गईं और शैली किनारे बेंच पर बैठ गई । तभी एक अधेड़ महिला उसके पास आकर बैठीं और बातचीत करने लगीं ।
“ये दोनों बच्चियाँ तुम्हारी हैं ?”
“जी ! क्या आप हमें जानती हैं ?”
“हाँ ! मैं रोज सुबह तुम्हें इन्हें लेकर बस स्टॉप जाते हुए देखती हूँ । मैं तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हूँ, बस दो मकान बाद ।”
“जी आंटी ! मुझे आपसे मिलकर अच्छा लगा ।”
“तुम्हारे और बच्चे नहीं हैं ?”
“नहीं आंटी ! दो तो हैं ही ! पर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं ?”
“मेरा मतलब है, तुम्हारी इच्छा नहीं हुई कि तुम्हारा एक बेटा भी हो ?”
” आंटी ! अब आज के जमाने बेटा-बेटी में फ़र्क कहाँ है ? जो बेटे कर सकते हैं, वह बेटियाँ भी कर सकती हैं ।”
“लेकिन तुमने कभी सोचा है कि पन्द्रह-बीस बरस के बाद जब तुम इन्हें ब्याह कर ससुराल भेज दोगी, फिर तो तुमलोग अकेले ही रह जाओगे । बेटियों को कितना भी बेटा बनाकर पालोगी, वो बेटा नहीं बन पाएँगी ।”
“आंटी जी मैं एक बात पूछूँ ?”
“पूछो !”
“आपके कितने बेटे हैं ?
“दो बेटे हैं ! ईश्वर की कृपा से दोनों अच्छी नौकरी में हैं । दो बेटियाँ भी हैं । सबका ब्याह हो गया । नाती-पोतों से भरा परिवार है मेरा ।”
“यहाँ आपके साथ कौन-कौन रहते हैं ?”
“यहाँ तो हमदोनों ही रहते हैं । बेटे तो एक बैंगलोर और एक पुणे में हैं । बड़ी कम्पनी में नौकरी है उनकी ।”
“मतलब आपलोग भी अकेले ही रहते हैं !”
©पूनम वर्मा
राँची, झारखण्ड ।