अकेले – पूनम वर्मा

शैली को इस शहर में आए कुछ ही दिन हुए थे । उसकी दो जुड़वाँ बेटियाँ थीं । एक दिन वह दोनों बेटियों को लेकर कॉलोनी के पार्क में गई । बच्चियाँ खेलने में मशगूल हो गईं और शैली किनारे बेंच पर बैठ गई । तभी एक अधेड़ महिला उसके पास आकर बैठीं और बातचीत करने लगीं ।

“ये दोनों बच्चियाँ तुम्हारी हैं ?”

“जी ! क्या आप हमें जानती हैं ?”

“हाँ ! मैं रोज सुबह तुम्हें इन्हें लेकर बस स्टॉप जाते हुए देखती हूँ । मैं तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हूँ, बस दो मकान बाद ।”

“जी आंटी ! मुझे आपसे मिलकर अच्छा लगा ।”

“तुम्हारे और बच्चे नहीं हैं ?”

“नहीं आंटी ! दो तो हैं ही ! पर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं ?”

“मेरा मतलब है, तुम्हारी इच्छा नहीं हुई कि तुम्हारा एक बेटा भी हो ?”

” आंटी ! अब आज के जमाने बेटा-बेटी में फ़र्क कहाँ है ? जो बेटे कर सकते हैं, वह बेटियाँ भी कर सकती हैं ।”


“लेकिन तुमने कभी सोचा है कि पन्द्रह-बीस बरस के बाद जब तुम इन्हें ब्याह कर ससुराल भेज दोगी, फिर तो तुमलोग अकेले ही रह जाओगे । बेटियों को कितना भी बेटा बनाकर पालोगी, वो बेटा नहीं बन पाएँगी ।”

“आंटी जी मैं एक बात पूछूँ ?”

“पूछो !”

“आपके कितने बेटे हैं ?

“दो बेटे हैं ! ईश्वर की कृपा से दोनों अच्छी नौकरी में हैं । दो बेटियाँ भी हैं । सबका ब्याह हो गया । नाती-पोतों से भरा परिवार है मेरा ।”

“यहाँ आपके साथ कौन-कौन रहते हैं ?”

“यहाँ तो हमदोनों ही रहते हैं । बेटे तो एक बैंगलोर और एक पुणे में हैं । बड़ी कम्पनी में नौकरी है उनकी ।”

“मतलब आपलोग भी अकेले ही रहते हैं !”

©पूनम वर्मा

राँची, झारखण्ड ।

 

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