“अभिमान” – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

“सलोनी , हम सुबह की गाड़ी से गांव निकल जायेंगे। सोचा तुम देर तक जगती हो। कहीं हमें घर पर नहीं देख कर परेशान हो जाओ इसलिए बता दिया है।”

बड़ी बहन की बात सुनकर सलोनी थोड़ी देर के लिए चुप हो गई। फिर बोली-”  क्या दीदी तुम तो पंद्रह दिन के लिए आई थी। सप्ताह दिन में अचानक जाने की बात क्यों कर रही हो? “

“नहीं- नहीं ऐसी कोई बात नहीं है कुछ जरूरी काम याद आ गया है सो जाना जरूरी है ।सुगंधा इतना कह कमरे की ओर जाने लगी।”

सलोनी मूंह बनाते हुए बोली-” बताओ दीदी जब तुम्हें यहां रूकना ही नहीं था तो बेकार में मैंने इतने रुपये खर्च कर तुम लोगों के लिए टिकट भेज यहां आने का इंतजाम किया।”

 तुम्हारे साथ -साथ तुम्हारे चारों बच्चों के रहने के लिए कब से बंद पड़े कमरे को साफ -सुथरा करवाया ,बाजार से खाने-पीने की महँगी चीजे मंगवाई। यहां तक की तुम लोगों को कोई असुविधा नहीं हो इसके लिए अलग से एक नौकर को लगा दिया। कौन सी कमी रह गई अब और क्या करूँ । 

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सुगंधा बोली- ” तू सही कह रही है तूने ढेरों  पैसे खर्च कर दिये हमें यहां बुलाने में।इसका अफसोस है पर बच्चों को यहां मन नहीं लग रहा है और कोई बात नहीं है ।”

दोनों बहनें अभी बात ही कर रही थीं तभी सलोनी के पति आंखें लाल -पीले  करते हुए सीढियों से गुस्से में उतर रहे थे।

सलोनी के पूछने पर कि क्या हुआ?

वह बिफर पड़े-” अरे यार! किस जंगल से आये हैं ये बच्चे?”बाई गॉड मैं तो पागल हो जाऊंगा। इनके पास तो मैनर जैसी कोई चीज ही नहीं है। बालकनी में खड़े होकर सामने वाले फ्लैट के पेट डॉगी को चिढ़ा रहे हैं।इनको सोसाइटी के रूल्स का भी नॉलेज नहीं है।

सलोनी हंसते हुए बोली-” बच्चों को गाँव में बंदरों की तरह कूद -फांद करने की आदत है न!  यहां के लग्जरी बंगले में उनका दम घुटता होगा। कभी भी अनुशासन में रहे नहीं सो रोक -टोक से परेशानी हो रही है।

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अब कल की ही बात देखो लॉन में लगे झूले पर ऐसे जोर- जोर से झूल रहे थे मानो गांव के बगीचे में हो। आखिरकार तोड़ ही दिया। नौकर समझाने गये तो उनके साथ भी उलझ गए। लुका-छिपी के चक्कर में सारे फूलों के पेड़ तहस -नहस होकर रह गये। बच्चों को तौर-तरीके सिखाया नहीं और दीदी कहती है कि उनका मन नहीं लगता है।”

सलोनी के पति ने देखा नहीं था कि सुगंधा पिछे की तरफ खड़ी है बोलना जारी रखा-” यार तुम बूरा मानो या भला बिल्कुल ही लोअर ग्रेड के हैं ये लोग तुमने इन्हें बुलाकर हेडक् पाला है। अब भुगतो सप्ताह दिन तक। 

सलोनी ने कई बार इशारा किया पर उसके पति ने नजरंदाज कर दिया और बच्चों के आड़े सलोनी के  मायके वालों को नीचा दिखाता रहा। उसने आगे कहा-“हाँ एक बात और, कल मेरे कुछ फ्रेंड्स आयेंगे देखना ड्रॉइंग रूम में ये बच्चे नहीं आयें इनकी चिप टाईप हरकत देख कर वो भांप न जाएं कि कैसे गँवार फैमिली है तुम्हारी। मैंने नौकरों को भी समझा दिया है कि इनपर नजर रखे। इनका क्या कहीं उनलोगों की गाड़ी पर चढ़ने लगे।

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सुगंधा कभी बहन को और कभी उसके पति के मूंह से निकलते कड़वे शब्दों को  सुनकर आहत हो रही थी। सलोनी के पति की बातों से ज्यादा सलोनी के द्वारा बच्चों को दी गई टिप्पणी ने उसके दिल को  छलनी  कर दिया था। कितनी अभिमानी हो चुकी है सलोनी।

वह सोचने लगी कि क्या यह वही छोटी सी नटखट सलोनी है जिसके हजारों नखरे दोनों बड़ी बहने बर्दाश्त करती थीं। स्कूल से छुट्टी होने के बाद भी यदि उसका मन है कि उसे झुला पर बैठना है तो वहीं रूककर दोनों बहनें पहले उसे झुला झूलाती फिर बस्ता उठाकर घर के लिए चलतीं। कई बार सलोनी  को बचाने के लिये माँ से  डांट भी खा लेती थीं।

   बाबूजी जो कुछ भी जेब खर्च के लिए देते थे अपने हिस्से से निकाल कर वह छोटी बहन के लिए रख देतीं थीं ताकि बहन को कुछ भी लेना हो तो ले सके। 




चारों भाई बहनों में सबसे दुलारी सलोनी थी। माँ बाबूजी के साथ -साथ भाई बहनों का का प्यार उसे सबसे ज्यादा मिलता था। गांव में संसाधनों की कमी  की वजह से इंटरमीडिएट से ज्यादा ल़डकियों को नहीं पढ़ाया जाता था। दोनों बड़ी बहने भी नहीं पढ पाई  लेकिन उन्होंने बाबूजी से जिद कर  सलोनी को शहर में पढ़ने के लिए भिजवाया। उसे कोई कमी न हो इसके लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया। बाबूजी की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी इसलिए दोनों बड़ी बहनों की शादी साधारण घरों में छोटी -मोटी नौकरी करने  वाले लड़कों से कर दी गई।

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लेकिन बहनों की जिद पर पढ़ाई पूरी होने तक सलोनी को किसी ने शादी के लिए बाध्य नहीं किया। पढाई पूरी करने के बाद बाबूजी ने कर्ज लिया और एक पैसे वाले घर में अच्छे पद वाले लड़के से सलोनी की शादी की। सबका मानना था कि अपने से ऊंचे स्तर वाले घर में शादी होने से उनलोगों की भी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी और बेटी भी खुश रहेगी।

दीदी ,तुम जाना ही चाहती हो तो ठीक है मैं कैसे रोक सकती हूँ लेकिन इतनी जल्दी ट्रेन में एसी टिकट नहीं इंतजाम हो पायेगा ।

सुगंधा बोली-” अरे बहन मुझे एसी में सफर करने की आदत नहीं है तुम चिंता मत करो।”

“ठीक है तुम्हें मैं टिकट के पैसे दे दूँगी तुम्हें जैसे जाना हो चली जाना।”

इस बार सुगंधा का धर्य टूट गया रुआँसी होकर बोली-” सलोनी बेटा यह रुपये पैसे लेकर मैं क्या करूंगी।”

 मुझे इसकी जरूरत नहीं  देना है तो सम्मान   देना सीखो। तुम्हारे मूंह से प्यार नहीं अभिमान बरस रहा है “मान का पान” बड़ा होता है। बड़ी बहन होने के नाते तुमसे कहूँगी कि रिश्ते सम्मान से निभाए जाते हैं अभिमान से नहीं। तुम्हें वक्त ने अभिमानी बना दिया मगर हमारे पास भी स्वाभिमान है हमारे लिए सबसे बड़ा दौलत वही है ।”

#अभिमान 

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

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