आखिरी पन्ना – पुष्पा पाण्डेय : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : पारुल बचपन से ही शिक्षण के क्षेत्र  में जाना चाहती थी। वह हमेशा शिक्षक बनने की इच्छा व्यक्त करती थी। स्नात्तर की परीक्षा के बाद उसका दोस्त प्रतीक उसे प्रशासनिक  प्रतियोगिता की तैयारी करने की सलाह दे रहा था, लेकिन पारुल अपना सपना पूरा करना चाहती थी। प्रतीक प्रशासनिक प्रतियोगिता की तैयारी में लग गया और पारुल आगे स्नात्कोत्तर की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चली  गयी। पिछले दो साल की दोस्ती न जाने कब प्यार में बदल गया,दोनों को पता ही नहीं चला। जब दूर जाने की बारी आई तो एहसास हुआ कि हम दोनों एक- दूसरे के पूरक हैं। एक वादे के साथ दोनों अपने-अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गए। —————

पारुल पर अब शादी का दबाव भी पड़ने लगा।

माता- पिता चाहते थे कि लड़का अच्छा मिला है शादी कर दें साथ ही पारुल अपनी पढ़ाई भी करती रहेगी। अच्छा लड़का और परिवार बड़ी मुश्किल से मिलता है। दूर के रिश्तेदार में ही एक लड़का था। उन लोगों को पारुल की पढ़ाई और और नौकरी से कोई एतराज भी नहीं था। लड़के के पिता दिल के मरीज थे।दो बार माइनर अटैक आ भी चुका था। अतः एकलौते बेटे की शादी करने की इच्छा प्रवल थी। बेटे को अभी आठ महीने पहले ही बैंक में उच्च अधिकारी का पद मिला था।

पारुल इस शादी के लिए तैयार नहीं थी। उसे तो प्रतीक का इंतजार था। प्रतीक पहला साल असफल रहा। फिर से तैयारी में लग गया था। ऐसी स्थिति में वह अपने माता-पिता से कुछ कह भी नहीं सकती थी और भावनात्मक दबाव इतना बढ़ा कि पारुल और रवि को शादी करनी ही पड़ी।

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पारुल की ननद दुल्हन बनी पारुल को उसके कमरे मे पहुँचा दिया। पूरा कमरा फूलों से सजा हुआ था। पलंग पर बैठी पारुल अपने पति रवि का इंतजार करने लगी। बैठे- बैठे वह उकता गयी तो उठकर कमरे में टहलने लगी। कुछ इधर- उधर भी ताका-झाँकी करने लगी। तभी उसकी नजर दराज में पड़ी एक डायरी पर पड़ी। वैसे किसी की डायरी पढ़ना शिष्टाचार के विपरीत है, लेकिन पारुल की सोच ये थे कि अब मैं और रवि हम हो गये हैं। डायरी के पन्ने पलटने लगी। शेरो-शायरी से भरी डायरी काफी दिलचस्प थी। मन-ही-मन बुदबुदाती-



जनाब शायर भी है।

दिल की गहराईयों से लिखी गयी इस कविता की एक- एक पंक्तियाँ संयोग और फिर वियोग की वेदना से बोझिल थी। डायरी पढ़ते-पढ़ते रात के दो बज गये और पारुल को पता ही नहीं चला। अब आखिरी पन्ना पढ़ रही थी।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। झट से डायरी यथा स्थान रख दिया।

“लो भाभी, दूध भैया को पिला देना और खुद भी पी लेना।”

ननद रानी जो चली गयी, लेकिन डायरी का आखिरी पन्ना पढ़ने की ललक बनी रही।

वो पूरी डायरी किसी को समर्पित थी। वो निश्चिंत थी कि नीचे पारुल ही लिखा होगा और इसी उत्सुक्ता ने दुबारा वहाँ पहुँचा दिया जहाँ डायरी थी। नीचे नाम देखकर उसके होश ही उड़ गये। तो क्या रवि को भी ये शादी मजबूरी में करनी पड़ी? उसकी नुपुर उसकी जिन्दगी थी। उसे अब उधार की जिन्दगी जीनी पड़ रही है?

तभी दरवाजे पर आहट हुई और पारुल उस डायरी को यथास्थान रख  पलंग पर घूंघट में सिमट गयी।

रवि अन्दर दाखिल हुआ और पलंग के एक छोर पर बैठ गया। हल्की रोशनी में खामोशी छाई हुई थी पर पारुल को अपने दिल की धड़कने स्पष्ट सुनाई  दे रही थी।

खामोशी को तोड़ने के लिए रवि ने शब्दों का सहारा लिया।

” पारुल! —–

समझ में नहीं आता कि कहाँ से शुरू करूँ।जिन्दगी भर साथ चलने से पहले एक-दूसरे को जान लेना शायद सही रहेगा।”

इतना सुनते ही पारुल की धड़कने और तेज हो गयी। पता नहीं आगे का वाक्य क्या होगा? अचानक पारुल बोल पड़ी।

“जानने सुनने के लिए तो कल का भी वक्त है। आज हमदोनों थक गये हैं। कल से शुरुआत करते हैं।” एक फिकी मुस्कान के साथ पारुल ने कहा और दोनों ने राहत की साँस ली। सोने को तो दोनों सो गये, पर नींद किसी को नहीं आई।

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“अरे भाभी उठिए। आज मुह दिखाई और पहली रसोई का रस्म है। मेहमानों के जगने से पहले आप तैयार हो जाइये।”

पारुल एक विचारक की तरह आत्मविश्वास के साथ उठी और रवि को भी उठाया। ——————

फिर एकांत और खामोशी। इस बार पारुल ने खामोशी तोड़ी और डायरी रवि के हाथों में देते हुए कहा-

” आप यही कहना चाह रहे थे हमसे?”

रवि सकपका गया। काटो तो खून नहीं। अपलक पारुल को देखता रहा।

“ये नुपुर रहती कहाँ है?इसी शहर में?”

“नहीं।”

रवि छोटा सा जबाब देकर चुप हो गया।

फिर पारुल ने ही बात आगे बढ़ाई।

” इस शादी में रूकावट क्या थी।”

“उसके पिता विजातीय से शादी के पक्ष में नहीं हैं और नुपुर प्रशासनिक प्रतियोगिता की तैयारी कर रही है। अतः वह विरोध कर शादी करने की स्थिति में नहीं थी।”

“हनिमून पर चलना है?”

अप्रत्याशित ढ़ंग से पूछा गया यह प्रश्न रवि को हैरत में डाल दिया।

“वहीं, जहाँ नुपुर रहती है।”

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नुपुर से मिलकर पारुल समझ गयी कि नुपुर रवि को प्यार तो करती है पर विरोध करने की हिम्मत उसमें नहीं है। अभी नुपुर पारुल और रवि से बात कर ही रही थी कि उसी समय नुपुर को एक फोन आया।

” प्रतीक, मैं तुम से बाद में बात करूँगी। अभी मैं थोड़ी व्यस्त हूँ।”

नुपुर ने फोन तो रख दिया, लेकिन पारुल के दिल रुपी स्थिर तलाव में नुपुर ने प्रतीक नाम का कंकड़ फेक दिया।

“ये प्रतीक कौन है?”

“यह भी मेरे ही कोचिंग से तैयारी कर रहा है। इसकी भी स्थिति वही है जो मेरी है।”

“क्या आप मुझे  इस प्रतीक से मिला सकती हैं?”

यदि मोबाइल में तस्वीर होती तो वह झट से तस्वीर दिखा कर पूछ सकती थी, लेकिन मोबाइल से सारी तस्वीर डिलिट जो कर दिया था। रवि की जिन्दगी में आने से पहले ही प्रतीक से दूर निकल जाने का एक प्रयास किया था।

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चारो आमने-सामने खड़े थे। कोई किसी से बोल नहीं पाई रहा था। सिर्फ पारुल रोये जा रही थी। उसे चुप कराने कौन आगे बढ़े- रवि या प्रतीक?

तब-तक नुपुर आगे बढ़ गयी। अब किसी को कुछ भी समझने और समझाने की जरूरत नहीं रही और बात तब- तक के लिए टाल दिया गया जब- तक परीक्षाएँ नहीं समाप्त हो जाती। पारुल भी अपने छात्रावास लौट आई और अपने  आगे की पढ़ाई और सपनों को सजाने लगी।

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परीक्षाएँ समाप्त हुई दोनों सफ भी रहे और सभी बड़ों को समझाकर उनसे अनुनय-विनय कर आशिर्वाद के लिए तैयार किया गया। तब-तक रवि और पारुल के तलाक केदारनाथ भी तैयार हो गये थे। हाथ में वो कागज के पन्नों को निहारती हुई पारुल सोचने लगी- ये कागज- कलम भी कमाल है। यदि उस दिन आखिरी पन्ना नहीं पढ़ी होती तो न जाने इन  चारों जिन्दगी में कौन-सा रंग होता?

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

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