साइकिल – कनक केडीया

सन्ध्या, हाँ यही नाम था उस सरल गाँव की गृहिणी का। सन्ध्या सा सुरमई रंग, मन मोहने वाली सादगी बस इतना था परिचय उसका। पति नारायण पास के शहर में किसी मील में नौकरी करता था। एक साइकिल थी जो उसके मील केआवागमन का साधन थी। गृहस्थी को सम्पूर्ण करने लड्डू गोपाल सा एक बेटा प्रबोध भी था। कुल मिला कर सुखी संतुष्ठ गृहस्थी थी संध्या -नारायण की। समय बीत रहा था मज़े में पर वक़्त ने करवट बदली।

प्रबोध बारह बर्ष का हो चला था। माँ पिता ने कभी उस पर दुःख की छाया भी  नहीं पड़ने दी थी,उसे देख कर जीते थे दोनो। एक दिन नारायण मील से ही बुखार ले कर लौटा। दस ही दिन के बुखार ने उसका भोग ले लिया। 

भरी जवानी की दुपहरी में सन्ध्या के जीवन मे काली अंधेरी रात उतर आयी। ऐसे ही कुसमय जब वक़्त कोई जुल्म करता है तो उसे अनहोनी

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कहते हैं। अनहोनी तो हो गयी थी, सन्ध्या ने जो सपने में भी नही सोचा था वो सच उसके सामने था। उसे अपना और मोहन के पेट पालने और पढ़ाई लिखाई की व्यबस्था करनी थी। गम को दिल मे छुपा सन्ध्या गावँ के सम्पन्न घरों में काम करने लगी। पैसा तो मिलता ही,उसके मधुर व्यवहार से कभी कपड़ा और  राशन भी मिल जाता। एक बार फिर सन्ध्या की गाड़ी पटरी पर आ गयी। अब तो उसका सहारा कहें,अपना कहें या मन बहलाने का खिलौना जो भी था,प्रबोध ही था। प्रबोध था भी बहुत ही संस्कारी मृदु भाषी और पढ़ने में तेज। गावँ वाले उसे सहज ही स्नेह करते थे।

वक़्त का पहिया घूमता रहा,प्रबोध अब तगड़ा सुंदर नौजवान हो गया। उसने राजनीतिशास्त्र में एम ए कर लिया। पास के जिस शहर में नारायण




काम करते थे उसी शहर के एक कॉलेज में उसे प्रोफेसर की नौकरी लग गयी। दुःख भरे दिन बीत गए। प्रबोध ने शहर आने जाने के लिए एक स्कूटर ले लिया।ब्याह के सम्बंध आने लगे और एक दिन खिली धूप सी सूरजमुखी सी चम्पा उसकी दुल्हन बन सन्ध्या के घर आ गयी। सन्ध्या को तो जाने किसी ने कितनी दौलत दे दी,उसकी मुस्कान चिपक कर रह गयी थी उसके चेहरे से। उसके आंगन में चम्पा के आने से बहार आ गयी। चम्पा थी भी बाल हृदय की बातूनी भली सी लड़की। उसे तो सन्ध्या में माँ,बहन और सहेली तीनों मिल गयीं।

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बड़े मनुहार से वो सन्ध्या के केश सवांरती उसे सवांरती,बिंदी लगाती।

चम्पा के आने से सन्ध्या का प्रौढ़ सौंदर्य खिल उठा। घर मे ठहाके गूंजने लगे। मैं जो कि उसी गाँव का नीम का पेड़ था,मुझे बहुत भला लगा सन्ध्या का मुस्कुराना।लगता भी क्यों ना सन्ध्या भी मेरे सामने ही भोली सी दुल्हन बन हमारे गावँ आयी थी।एक चीज जो उस घर मे न बदली थी वो थी नारायण की साइकिल। सन्ध्या ने उसे नारायण की निशानी के तौर पर रख छोड़ा था।साफ सफाई भी करती रहती थी। प्रबोध समझ चुका था माँ के मन को इसलिए चुप रहता था । कभी बेचने की बात न उठाता । चम्पा तो ठहरी चंचल हिरनी। एक दिन उसने साइकिल निकाली चला कर देखी फिर रख दी। उस दिन उसने सन्ध्या को अच्छे से सवांरा और खुद भी तैयार हो गयी।शाम को सन्ध्या को एकाएक चौंका कर साइकिल पर  बैठा चम्पा तो उड़ा चली। इतना मज़ा तो सन्ध्या को कभी नही आया था। उसे पेट मे गुदगुदी सी प्रतीत हो रही थी। हवाएँ दोनो चम्पा और संध्या के केशों से अठखेलियाँ कर रहीं थीं। उफ्फ देखने लायक नज़ारा था एक डूबते सूरज की सुंदरता एक दोपहर के सूरज सी प्रचंड सुंदरता। अद्भुत था दोनों का मिलन,उसमे उनकी मीठी हंसी की स्वरलहरी। सच मैं उस गावँ का बहुत पुराना बूढा नीम हूँ पर ऐसी शाम मैंने नही देखी जिसकी सुंदरता देख आँखें भीग जाए,कलेजा जुड़ा जाए। साइकिल भी इतरा उठी। उसका भी इंतज़ार सार्थक हुआ।

एक शाम,एक दोपहर वाह

नारायण की आत्मा तृप्त हो गयी।

कनक केडीया

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