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बरसात की रोटी – डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

पिछले साल से ज्यादा इस साल बारिश अपना विकृत रूप दिखा रही है। रात-दिन बिना रुके बारिश हो रही है। जिंदगी बिलकुल ही अस्त व्यस्त होकर रह गई है। चारो तरफ पानी ही पानी । 

 अमीरों के लिए यह मौसम सुखद और खुशनुमा होगा। लोग घर में बैठकर पकौड़े के साथ बारिश का आनंद लेते होंगे। पर भगवान ने सबका किस्मत एक जैसा कहां  बनाया है। बेचारे गरीबों के लिए तो यह आफत है जो आंखों में बरसात लिए  भूखे पेट सोने की  कोशिश करते हैं । लेकिन टूटी छत से टपकती बारिश की बूंदे बेचारों को सोने भी तो नहीं देती। 

आज दीपक के पिता सब्जी बेचने नहीं जा पाए क्योंकि सुबह से ही मूसलाधार पानी बरस रहा था। पिछले तीन दिनों से वह भींग-भींग सब्जियां बेच रहे थे जिस कारण उन्हें बुखार भी है।  बुखार की महंगी दवाइयों के लिए  पैसे भी नहीं है।   बेचारा कहे भी तो किससे। चुपचाप हाथों से सिर दबाये लेटा है। दीपक की माँ बहुत चिंतित थी कि बच्चे जब उठेंगे और खाने के लिए मांगेंगे तो वह क्या देगी।  कल रात जैसे-तैसे सबने सूखी रोटी नमक के साथ खाकर पेट की आग को शांत किया था।  बारिश थमने का नाम नहीं ले रही है।  वह कुछ  उधार पड़ोसियों से मांग लाती लेकिन उसके पति को यह बिल्कुल पसंद नहीं था। 

दीपक चार भाई बहनों में सबसे बड़ा है। वह  थोड़ा समझदार बच्चा है पास के सरकारी स्कूल में ही छठी कक्षा में पढ़ता है। वह अपने माँ की चिंता को भली -भांति समझ रहा था।  सुबह से भूख तो उसे भी लगी थी पर वह सोच रहा था कि यदि वह माँ से अपने भूख के विषय में कहेगा तो हो सकता है  माँ कुछ बचा खुचा उसे खाने को दे देगी। लेकिन जब छोटे भाई बहन को भूख सताने लगेगी तो फिर माँ क्या करेगी?

दुर्भाग्य ऐसा कि आफत की वजह से स्कूल भी आना मना था। स्कूल खुले रहने का बहुत बड़ा फायदा  यह था कि कम से कम एक वक्त का खाना तो मिल ही जाता था  गरीब बच्चों को सरकारी दया से।

दीपक कुछ सोच विचार कर माँ के पास गया और बोला “- माँ मुझे एक प्लास्टिक का बोरी दे दो मैं उसकी  छतरी बनाकर थोड़ी सी सब्जियां लेकर चौराहे पर बेच कर आता हूँ कुछ न कुछ  तो बिक ही जायेगी। “



माँ के मना करने के बाद भी दीपक सब्जियां लेकर घर से बाहर निकल पड़ा।  बारिश और तेज होती जा रही थी। एक घंटे बाद ही गाँव में हाहाकार मच गया।  बारिश के कारण नदी का बाँध टूट चुका था। पूरे गाँव में पानी भरता जा रहा था। सारे लोग  अपने अपने बच्चों को लेकर सुरक्षित स्थान पर भाग रहे थे। दीपक की माँ किसी आशंका से घबड़ाकर जोर -जोर से रोने लगी ।वह अपने बेटे को ढूंढने के लिए गांव के एक -एक आदमी से गुहार लगाने लगी। लोगों ने ढूंढने की कोशिश भी की उसका लाल कहीं ना मिला। 

दो दिन तक दीपक का कोई खोज -खबर नहीं मिला। लोगों ने यही अंदाजा लगाया कि दीपक पानी में बह गया होगा। सब लोग उसके माँ- बाप को नियति का खेल बताकर समझा बुझा रहे थे। दीपक की माँ  अपना होश खो बैठी थी। उसकी सूनी आंखों में  और  कुछ नहीं  बस आंसुओं की  बरसात थी। 

इस बरसात ने रोटी के लिए एक जिंदगी को हरा दिया और उस माँ के सामने इठला-इठला बरस रही थी जिसका लाल काल के गाल में समा चुका था। 

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

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