ये कैसा प्यार – प्रीती सक्सेना

    मैं मनीषा,,, पंद्रह वर्ष की थी, जब ब्याह के अशोक के घर आई थी,,, मैं,, छोटे से कद की,, नाजुक दुबली पतली,, वहीं वो लंबा चौड़ा, सजीला जवान,,,बहुत अच्छा लगता था,,, मुझे तो हीरो जैसा लगता था,, मेरी सहेलियों कहती थीं,, मनीषा,, तेरी तो किस्मत खुल गई,,, पर जल्दी ही मुझे पता चल गया,, कि उसकी मर्जी के बिना ये शादी हुई है,, वो अभी शादी करना ही नहीं चाहता था। उसका नतीजा ये हुआ,,, कि उसको मैं कभी पसन्द आई ही नहीं।

      एक तो दिखने में कमजोर सी ,,, ऊपर से छोटी उमर,, तीसरी उसकी पसंद, नहीं थी मैं,,, सोचकर,, बहुत डरती थी ,,, उसको खोने के डर से कभी कुछ कहा ही नहीं उसे,,, क्योंकि,,, मैं ,, बहुत ,बहुत चाहने लगी थी उसे।

         वो शहर के बड़े सैलून में काम करता था,, उसका रहना सहना,, कपड़े पहनना,, सब हीरो जैसा रहता था,, मैं दिन भर घर के कामों में लगी,, थकी थकाई,, मुरझाई सी,, हमेशा बीमार सी दिखती,,, बिल्कुल साधारण परिवार था । सजने, संवरने, का न समय था न ही पैसा ही रहा मेरे पास।

नफरत,,, हिकारत से देखता मुझे,,, प्यार से कभी दो बोल भी नहीं बोले मुझे।

      पांच साल में तीन बच्चों की मां बन गई,, अब उसकी नाराजगी,, झल्लाहट,, खुलकर सामने आने लगी थी,,, मारना पीटना,, तो बहुत पहले ही शुरु हो चुका था,,, अब तो सीधे मुंह बात भी नहीं करता,,, शुरु से इतना दबी रही उससे कि,,, कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं थी मुझमें,, सब्जी पसन्द न आने पर,, खाने की थाली मेरे ऊपर फेंक देता,,, गरम सब्जी से कई बार जल भी जाती मैं,, सास अगर उसे डांटती तो,,, बोलता,, रखो अपनी पसन्द की बहू और,,, जलती आंखो से मुझे देखता चला जाता।


     बच्चे सहमे से रहते,, बच्चों के दादा दादी ही

   उनका ख्याल रखते,,,,, कुछ दिनों से देख रही थी,,, वो खुश रहने लगा था,,, बच्चों को टॉफी,, बिस्किट,,, लाकर देने लगा था,,, मुझे लगा,, शायद सब कुछ ठीक हो गया,,,, पर ये तो तूफान आने के पहले वाली शांति थी।

   रोज की तरह,, टिफिन लेकर गया,, मेरी तरफ़ तो देखता भी नहीं था,,, शाम हो गई,,, लौटा नहीं वो,,, उस समय मोबाइल तो होते थे नहीं,,, सैलून जाकर देखा ससुर जी ने तो,,, बंद था,, यार दोस्तों से पूछा,, वो भी अनभिज्ञ थे,, पूरा घर,,, घबराने लगा ,, मेरे आंसू रुक नहीं रहे थे,,, क्या हो गया,,, कहां चले गए,,, पुलिस में रिपोर्ट

कर दी,,, सैलून के कर्मचारियों से पता चला,, एक रईस क्लाइंट,,, आती थी,,, उसके आने से,, खुश हो जाता था,,, अटेंड भी वही करता था।

इससे ज्यादा,,, कोई कुछ नहीं बता पाया।

     उसे न मिलना था,,,, न आना था,,, नहीं आया,,, न सधवा हूं,, न ही विधवा,,, शायद अपने भरम को जिंदा रखने के लिए सुहाग चिन्ह धारण किए हुए हूं,,, बेटा नहीं,,,,तो चार लोगों

का खर्च कौन उठाए, ससुराल वालों ने भी किनारा कर लिया,,,,,, माता पिता ने,,, बाहें फैलाकर,, आवाज दी तो आ गईं,, उनके पास,,

घरों में काम करके ,,, पैसा कमा रही हूं,, माता पिता पर कब तक बोझ बनूंगी ,,, बेटी का ब्याह,,, कर दिया है ,, दोनों बेटे भी थोड़ा बहुत,,, काम,, करने लगें हैं ,, आज भी करवा चौथ का व्रत करती हूं,, उम्मीद तोड़ी नहीं है,,, मैंने,, ये भी नहीं जानती, वो इस दुनिया में है भी या नहीं,,,, पर मेरी आशा का दिया,, अनवरत जलता चला आ रहा है।

     ईश्वर पर आज भी आस टिकी है,,, शायद वो आ जाए,, दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हूं

प्रीती सक्सेना,,,, इंदौर

स्वलिखित

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