यह कैसा अन्याय! – गीता चौबे “गूँज”

 

     युद्ध की भयावहता सिर्फ मैदाने जंग में ही नहीं होती, वरन् आम जीवन में भी जिंदगी और मौत के संघर्ष में जब मौत का पलड़ा भारी होने लगे और आँखों के सामने जिंदगी की साँसें थमने लगे तो मौत की अनुभूति का खौफ किसी युद्ध से कम नहीं होता। अंतिम परिणति मौत का साम्राज्य दोनों में ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि देशों के बीच  होने वाला युद्ध प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। किंतु व्यवस्था के बीच होने वाला संघर्ष, मन-मस्तिष्क में अनवरत चलने वाला द्वंद्व अप्रत्यक्ष होकर भी कम भयावह नहीं होता …!           

 

      रंजन उन दिनों की भयानक यादों को कैसे भूल  सकता है! उस बार भयंकर सूखा पड़ा था। खेतों में पड़ी  गहरी दरारें चीख-चीख कर बदहाली की कहानी कह रही थीं।  सूखे की स्थिति की भयंकरता, वहाँ के रहनेवाले लोगों के साथ-साथ आसपास के प्रदेशों में लगना मुश्किल न था। वैसे उसके गाँव की भूमि अधिक ऊपजाऊ तो न थी, किंतु  किसी तरह पेट भरने भर अनाज तो पैदा हो ही जाता था। गाँव की बेटियों की शादियाँ तो हो जाती थीं, किंतु आसपास के इलाके का कोई भी बाप अपनी बेटियों को इस गाँव की बहू बनाना पसंद नहीं करता था। गरीबी के कारण शिक्षा का प्रसार भी न के बराबर था। सरकारी निःशुल्क योजनाओं का लाभ उठा कर कुछ युवक ग्रेजुएट थे भी तो वे बेरोजगारी की आग में झुलस रहे थे। रंजन भी उन्हीं युवकों में से एक था। हमारी आधुनिक शिक्षा-पद्धति एक सामान्य जीवन-यापन की जरूरतों में कहीं से भी उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रही थी। बी ए पास करने वाले लड़के मजदूरी करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। खेत सूखे भी पड़ें तो दूसरे क्षेत्रों में मजदूरी का काम कर पेट की क्षुधा बुझायी ही जा सकती है। लेकिन पढ़े-लिखे युवकों की मानसिकता मजदूरी करने में शर्म का अनुभव करती थी। मुफ़्त शिक्षा के साथ मुफ़्त भोजन मिलते रहने से उनका शरीर मेहनत के अनुकूल न रह पाया था ; क्योंकि आरक्षण नीति और मुफ़्त शिक्षा-पद्धति ने मुफ़्तखोरों को और बढ़ावा ही दिया था। उन्हें एक तरह से पंगु बना दिया गया था। फलस्वरूप अभावों की सुरसा का मुख बढ़ता ही जा रहा था। 

     गरीबी की इस दहकती आग ने आत्मीय जनों को इतना असहिष्णु बना दिया कि बात-बात में बात बढ़ते देर नहीं लगती थी। एक छोटी-सी चिनगारी भी शोला बन भड़क उठती। आपसी रंजिश के बादल गरज के साथ ऐसे बरस पड़ते थे जिसका परिणाम कभी-कभी खूनी संघर्ष के रूप में उभर आता था। सफेद-कारे बादलों की ही तरह लोगों की आँखों का भी नमकीन पानी सूख चुका था। उस क्षेत्र की तरफ से बादलों ने अपना मुख ही मोड़ लिया था जिससे गहरी दरारों से पटी धरती की कोख बंजर हो गयी थी। गाँव के गाँव भुखमरी से जूझ रहे थे। 




   रंजन के बड़े भाई मृत्युंजय की नौकरी एक बड़े शहर के एक सरकारी स्कूल में लगी तो जैसे  उस परिवार को संजीवनी बूटी मिल गयी। मृत्युंजय की शादी हो चुकी थी और एक नन्हीं-सी प्यारी बच्ची भी थी। स्कूल में ज्वाइन करने के एक महीने बाद वह अपने परिवार को वहाँ ले गया। माता-पिता तो थे नहीं। विवाह के योग्य उम्र की एक बहन थी जो थोड़ी मंद बुद्धि की थी। एक भाई रंजन और एक चचेरी बहन नीलू जिसके माता-पिता भी किसी हादसे का शिकार हो मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। परिवार में मृत्युंजय ही सबसे बड़ा था जिस पर सभी आश्रित थे, परंतु उसकी पत्नी रीता संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती थी। अक्सर दोनों पति-पत्नी में झगड़े का कारण यही होता। रीता अक्सर कहती, 

” हमने क्या ठेका ले रखा है इन लोगों का? कब तक अपने सर पर बोझ रखे फिरेंगे… अपनी-अपनी किस्मत जैसी होगी वो तो भुगतना ही पड़ेगा!” 

   परंतु मृत्युंजय साफ शब्दों में जवाब देता, 

“मैं अपने जीते जी इन्हें दर-दर भटकने नहीं दूँगा। चाहे तुम्हें पसंद हो या न हो…!” 

   रीता अपना सारा क्रोध देवर और ननदों पर निकालती। आए दिन हर छोटी-छोटी बातों पर महाभारत होता रहता। मृत्युंजय जब तक घर में रहता रीता किसी तरह स्वयं को रोके रहती, किंतु उसके घर से निकलते ही आग बरसाती रहती। जब रीता की बातें असहनीय हो जाती तो रंजन भी अपना आपा खो देता। फिर तो गाली-गलौज, ताने-उलाहनों का ऐसा वाकयुद्ध होता कि आसपास के लोगों को बीच-बचाव करना पड़ता। 

   ऐसा नहीं था कि रंजन बिस्तर पर पड़े रोटियाँ तोड़ना चाहता था। वह नौकरी के लिए बराबर प्रयास कर रहा था। कितनी जगह इंटरव्यू देता रहा, किंतु किस्मत साथ नहीं देती और फाइनल इंटरव्यू में छँट जाता। इस बात का प्रेशर तो था ही, साथ ही  भाई की अनुपस्थिति में दोनों बहनों का ध्यान भी रखता और ऊपर से भाभी की जली-कटी बातें। कभी-कभी तिलमिला उठता। वह नहीं चाहता था कि भाई जब शाम को घर आएँ तो ऐसी अप्रिय बातों से उन्हें तकलीफ हो! दोनों भाई की जोड़ी राम-लक्ष्मण की जोड़ी से कम नहीं थी। 

  वैसे रीता भी दिल की बुरी नहीं थी, किंतु  आय का साधन सीमित था जिससे मुश्किल से गुजारा हो पाता। ऊपर से मंदबुद्धि ननद कुसुम जो शादी की उम्र तक पहुँच चुकी थी, किंतु हरकतें बच्चों जैसी करती। आए दिन सारा दूध चट कर जाती। रीता की बेटी जिसका मुख्य आहार दूध ही था, भूख से रोती रहती। ऐसे में अपनी इच्छाओं को पूरा करना तो दूर की बात, रीता अपनी बच्ची की भूख मिटा पाने में भी असमर्थ रहती। कई बार कुसुम को समझाने की कोशिश करती, पर वह साफ मुकर जाती कि उसने तो दूध को छूआ तक नहीं। आँखों देखी बात को भी नकार देती। वह शायद नासमझी में ऐसा करती, किंतु रीता कब तक बर्दाश्त करती! 




      इधर रीता की तबीयत भी थोड़ी खराब रहने लगी थी जिससे काफी चिड़चिड़ी हो गयी थी वह भी! दूसरा गर्भ ठहर गया था। पहली संतान अभी बहुत छोटी थी। डाक्टर को दिखाया था तो पता चला कि खून की कमी है। पूरा ध्यान रखना होगा। खान-पान का विशेष ध्यान रखना होगा। जहाँ मुश्किल से गुजारा हो रहा हो, वहाँ विशेष की गुंजाइश कहाँ थी! मृत्युंजय के लिए विकट परिस्थिति आ गयी थी। न तो वह भाई-बहनों को और न ही पत्नी को दुखी देखना चाहता था। अब उसने स्कूल के बाद कई ट्यूशन्स लेने शुरू कर  दिये। मैथ सब्जेक्ट होने के कारण ट्यूशन आसानी से मिल जाता, किंतु इन चक्करों में वह स्वयं को जैसे भूल-सा गया था। कब सुबह होती, कब शाम रात में ढल जाती, उसे होश ही नहीं रहता।  घड़ी की सूइयों में उलझी उसकी जिंदगी की गाड़ी चल रही थी। उसे याद थे तो बस अपनी माँ के लड़खड़ाते अंतिम शब्द… 

“बेटा! अपने भाई-बहनों का ख्याल रखना… अब तुम ही… उनके माँ और बाप दोनों… मेरी आत्मा की तृप्ति …” 

   और फिर इसके आगे के शब्द लुढ़क गए…! 

   मृत्युंजय, जो मृत्यु को जीत ले! मृत्यु की अटलता को कौन जीत सकता है भला! किंतु इंद्रियों को जीतने में मृत्युंजय ने काफ़ी हद तक सफलता पायी थी। संयमित जीवन! उतना ही भर खाता जिससे काम पर जा सके! इससे अधिक की स्वयं के लिए इच्छा ही न थी। एक ही लक्ष्य बहनों की शादी और भाई की नौकरी! हाँ इसमें अपनी पत्नी से सहयोग की अपेक्षा अवश्य रखता था। पत्नी को लगता कि भाई-बहनों के कारण ही उसका पति उसकी उपेक्षा करता है। इस कारण देवर-ननद उसे दुश्मन लगते। कुसुम के मानसिक इलाज में भी पैसे खर्च होते। इस कारण वह अंदर ही अंदर सुलगती रहती और दो-दो दिनों तक किचन में घुसती ही नहीं। गर्भावस्था के कारण कभी तो सचमुच में तबीयत खराब रहती और कभी जान-बूझकर बिस्तर पर पड़ी रहती। 

      एक बार इसी तरह बीमारी का बहाना बनाकर लेटी थी। रंजन को मालूम था कि भाभी नाटक कर रही हैं। फिर भी उसने कुछ नहीं कहा। बहनों को बहला-फुसलाकर उनकी सहायता से रात का भोजन बना लिया। वैसे भी कौन-सा छप्पनभोग बनाना था। पानी वाली सब्जी के साथ भात थोड़ा ज्यादा बना दिया कि सुबह का नाश्ता भी हो जाएगा। अगले दिन उसे एक इंटरव्यू के लिए जाना था।  भाई के आने पर सबने साथ में खाना खाया। भाभी को भी पूछा, किंतु उसने खराब तबीयत की बात बताकर खाने से इंकार कर दिया। 

     रात में नहीं खाने के कारण रीता को भूख तो लगी ही थी। सुबह नहा-धोकर रात का बचा हुआ बासी भात खाने के लिए किचेन में गयी। यह देख कर रंजन भी किचेन में गया और विनम्रता से ही भाभी से कहा, 

“भाभी! आप ताजा खाना बना कर खुद भी खा लीजिए और बहनों को भी खिला दीजिएगा।  भइया चुनाव कार्य के लिए सुबह ही निकल गए। उन्हें वहाँ नाश्ता मिल जाएगा। मैं यह बासी भात खाकर इंटरव्यू के लिए चला जाता हूँ, क्योंकि मुझे देर हो रही है।” 

“मैंने क्या ठेका ले रखा है सबका…? रात में मैंने नहीं खाया था… सो यह बासी भात मेरे हिस्से का है। मैं तो यही खाऊँगी। मैं नहीं बनाने वाली…! “

 




 जिस रूखाई से रीता ने बात की, रंजन को एकदम से गुस्सा आ गया और उसने भात का डोंगा छीनने की कोशिश की। छीना-झपटी में डोंगा दोनों के हाथों से छूटा और सारा भात जमीन पर…! रंजन क्रोध से तिलमिला उठा और कुछ अपशब्द कह डाले भाभी के मायके वालों की परवरिश को लेकर। फिर क्या था रीता पर मानों चंडी सवार हो गयी। सच ही कहा था मुंशी प्रेमचंद ने कि स्त्रियाँ गाली सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं, पर अपने मायके के खिलाफ एक शब्द नहीं सह सकतीं। 

   रीता ने देवर के काॅलर पकड़े और गालों पर जोर का तमाचा दे मारा।  अपने बचाव के लिए हाथ उठाने की कोशिश में रंजन का हाथ रीता के ब्लाउज पर चला गया और जाने कैसे उसका ब्लाउज फट गया। इसी बीच घबरायी हुई किशोर नीलू झगड़ा छुड़ाने के लिए पड़ोस में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला को बुला लायी। शोर सुनकर कुछ और तमाशबीन इकट्ठे हो गए। सबने सिर्फ वह दृश्य देखा…जिसमें  रीता के हाथों में रंजन का काॅलर, रंजन के हाथ रीता के ब्लाउज पर… और रीता का ब्लाउज फटा हुआ… 

    यह दृश्य चीख-चीख कर कुछ और ही कहानी कह रहा था! रंजन को सफाई का मौका दिए बिना गुनहगार साबित कर दिया था। अपराधी की तरह सर झुकाए रंजन यही सोच रहा था कि भइया को अपना मुँह कैसे दिखा पाएगा! इतने लोगों की गवाही और भाभी की मौजूदा हालत के पीछे का सच क्या भइया देख पाएँगे! शायद नही! शायद वे भी गलत को ही सही समझ बैठें…! 

        तमाशबीन तमाशा देखकर तितर-बितर हो गए थे। एक धारदार सन्नाटा पसर गया था। मौका पाकर रंजन वहाँ से निकल गया और सड़क पर बेतहाशा भागने लगा। उसे होश ही नहीं था कि वह कहाँ और क्यों जा रहा था। बस! भागे जा रहा था… भागे जा रहा था। एक ही सोच उस पर हावी हो रही थी… 

‘भाई की नजरों में गिरकर इस जिंदगी का बोझ नहीं उठा सकता! गरीबी का दानव चाहे कितने  भी अपने नुकीले पंजों में दबोचे, पर ईमानदारी और चरित्र का बल इंसान की जिजीविषा को बनाए रखता है और वह जी-तोड़ कोशिश करता है उन पंजों से निकलने की और अपने प्रयासों से निकल भी आता है, किंतु इज्ज़त पर लगा दाग चाहे वह गलतफहमी से ही क्यों न हो, इंसान को स्याह तो कर ही जाता है। पूरी जिंदगी उस दाग के साथ जीना अत्यंत ही खौफनाक होता है। 




    अपनी बदहवासी में रंजन कब बीच सड़क पर आ गया, उसे ध्यान ही न रहा। हाइवे पर वाहनों की गति इतनी तेज होती है कि चालक को सँभलने का अवसर ही न मिल पाता। रंजन का क्षत-विक्षत शरीर हाइवे पर पड़ा था। आसपास भीड़ एकत्रित हो गयी थी। किसी ने पुलिस को फोन कर दिया। उसकी जेब से मिले  उसके पहचान-पत्र और इंटरव्यू-लेटर से उसकी शिनाख्त कर पुलिस उसके घर पहुँच गयी।  पुलिसिया कार्रवाई  करने में तब तक शाम हो गयी थी। 

     पुलिस की गाड़ी और एंबुलेंस के सायरन की आवाज से एक बार फिर मृत्युंजय के दरवाजे पर भीड़ इकट्ठी हो गयी। मृत्युंजय की ड्यूटी खत्म होने पर घर आया और वहाँ भीड़ देखकर काफी घबरा गया। उसे आशंका हुई कि उसकी मंदबुद्धि बहन के साथ कुछ हादसा तो नहीं हो गया…! 

   मनुष्य का स्वभाव है कि कुछ भी गलत होने पर उसका ध्यान अपनी कमजोरियों पर ही जाता है। बरामदे में सफेद चादर से ढँकी एक लाश पड़ी थी। मुहल्ले वालों के साथ सभी घरवाले भी विस्मयता से मुँह फाड़े उस लाश को घूर रहे थे। जैसे ही पुलिस ने लाश के चेहरे से कपड़ा हटाया, लोगों की चीख निकल गयी! चेहरा विक्षत होने के बावजूद रंजन को पहचानने में किसी से भूल नहीं हुई!  सुबह की यही भीड़ जो रंजन के गुनाहों पर थू-थू कर रही थी, अचानक से सिहर उठी! ऐसी दर्दनाक सजा की अपेक्षा किसी को न थी। रीता को तो मानों काठ मार गया। यह सब उसी के द्वारा किए गए क्लेश का परिणाम था। वह उस बासी भात के लिए छीना-झपटी न करती तो ऐसी नौबत न आती! भाभी माँ के समान होती है! उसने अपने लिए सहानुभूति पाने के लिए सुबह में उपस्थित हुए उस दृश्य का लाभ उठा लिया, जबकि वह अच्छी तरह से जानती थी कि रंजन थोड़ा उग्र जरूर है, किंतु उदंड कतई नहीं… फिर भी उसने बात को सँभालने की कोशिश नहीं की। लोगों को बातें बनाने से नहीं रोका।  अब वह आत्मग्लानि के बोझ से दबी जा रही थी। रंजन तो इस दुनिया से चला गया पर वह इतना बड़ा बोझ कलेजे पर लिए कैसे जी पाएगी? जाने-अनजाने रंजन के साथ यह कैसा अन्याय हो गया! लोगों के मुँह से सुबह वाली घटना सुनकर मृत्युंजय मानने को तैयार ही नहीं था कि उसका भाई ऐसा कुछ कर सकता है! रीता अब किस मुँह से उस घटना का वर्णन करती! आरोपी की तरफ से सफाई का अवसर ही समाप्त हो चुका था। किस्मत ने भी उसके साथ ऐसा अन्याय कर डाला जिसके लिए वह अब कभी न्याय की देवी का दरवाजा तक नहीं खटखटा सकता था। उस तथाकथित गुनाह का एकतरफा निर्णय हो चुका था जिसकी सजा  रीता को अब अपनी नजरों में ताउम्र काटनी थी। 

#अन्याय 

        — मौलिक एवं अप्रकाशित

           गीता चौबे गूँज

           राँची, झारखंड

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