अनचाही सन्तान – आरती झा आद्या

आज अपनी बेटी का छब्बीसवाँ जन्मदिन मनाते हुए सपना बहुत ही खुशी और गर्व की अनुभूति कर रही थी। साथ ही छब्बीस साल पहले घटी घटना के दुःख को चाह कर भी भूल नहीं पा रही थी। 

    सपना जिसकी शादी बीस साल की उम्र में म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में कार्यरत क्लर्क सुरेश से हुई थी। अभी तो सपना की आँखों ने अपने जीवन के लिए सपने देखने ही शुरू ही किए थे। सपने अभी पूरी तरह जाग्रत हुए भी नहीं थे कि दादी ने पोती की शादी का फरमान सुना दिया और पापा के लिए उनकी माँ की कही बात अटल सत्य की भाँति था। समझने योग्य होते ही उसने समझ लिया था कि वो दोनों बहनें और उनकी माँ दादी और पापा के आँखों की लाडली नहीं किरकिरी है। दादी और पापा की झिड़की को ही दोनों बहनों ने प्यार और माँ ने नियति मान लिया था। ये तो उसने बहुत बाद में समझा कि पापा को बेटे और दादी को पोते की चाह थी और लड़का नहीं होने से .. फिर माँ की किसी बीमारी के कारण डॉक्टर के द्वारा तीसरा बच्चा करने से मना कर देने के कारण दादी और पापा इन तीनों को देखना नहीं चाहते थे।

सुबह की शुरुआत ही दादी की गालियों से होती थी। जिसमें उन्होंने कितनी बार जता दिया कि अनचाही हैं वो और मौत आ जाती तीनों को तो बेटे की दूसरी शादी कर पोते की चाह पूरी करती। हमेशा इसी अफसोस में रहती कि लोकलाज के कारण ना तो घर से निकाल सकती हैं और ना बेटे की दूसरी शादी कर सकती हैं। खैर बहुत अनुनय विनय के बाद भी सपना की शादी सुरेश से हो जाती है।




यहाँ भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी। माँ का इकलौता बेटा सुरेश बेटा ही बना रहा.. कभी पति होने की जिम्मेदारी नहीं समझ सका। शादी होते ही पोते की रट शुरू हो गई… शादी के दस ग्यारह महीने बीतते ना बीतते सपना गर्भवती थी। सासु माँ के खुशी का ठिकाना ना था.. सुरेश माँ की खुशी देखकर खुश था और सपना डरी हुई थी कि अगर बेटी हुई तो???? 

सासु माँ ने ऐसी नौबत ही नहीं आने दिया। कहने को तो हर जगह भ्रुण परीक्षण पर रोक है पर जहाँ चाह वहाँ राह की युक्ति हर अच्छे बुरे काम में परिलक्षित होती है। उन्हें भी ऐसे डॉक्टर.. ऐसे क्लिनिक मिल ही गए। जब तक सपना कुछ समझती.. उसकी बेटी की हत्या हो चुकी थी। सपना अब किसी से कुछ नहीं बोलती थी। बस रोबोट की तरह घर के काम निपटाती रहती थी।एक साल बाद फिर से उसकी गोद हरी हुई थी… किलकारियाँ गुँजने वाली थी… इस बार वो सजग हो गई थी… ना तो पति पर और ना ही सास पर और ना ही डॉक्टर पर भरोसा कर सकती थी। समय भी शायद मेहरबान था .. उसकी गोद में नन्ही परी उसकी उँगली थामे हँस रही थी… मानो कह रही हो.. धन्यवाद माँ…. सपना ने उसका नाम ही परी रख दिया।

सुन.. इसकी बेटी को इतना सताएंगे कि या तो ये घर छोड़ कर चली जाए या इसकी बेटी मर जाये और हमारा पिंड छूटे.. सपना की सास बेटे से कह रही थी और सुरेश भी माँ के हाँ में हाँ मिला स्वीकारोक्ति दे रहा था। चाय लेकर सास के कमरे में आती सपना दोनों की षड्यंत्र पूर्ण बातें सुन काँप उठी। उसे समझ नहीं आया कि क्या करे। अपने कमरे में आ परी को सीने से चिपकाए रोने लगी। 




अब स्थिति बिगड़ने लगी…प्रताड़ना का दौर जारी हो गया। पति और सासु माँ की हर सम्भव कोशिश होती सपना को कामों में लगाए रखे और नन्हीं सी जान भूख से रोती रहती। 8 महीने की हो गई थी परी… सासु माँ कहती मर भी गई तो क्या फर्क़ पड़ता है.. छाती पर मूंग दलने ही तो आई है। उस दिन तो हद्द कर दिया था सबने… बिस्तर से गिर गई थी परी। रोना नहीं रुक रहा था बच्ची का.. सपना उसके पास जाना चाहती थी पर माँ बेटे को गर्म रोटी खानी थी.. खुद ही चुप हो जाएगी.. तू रोटी बना.. पति ने आदेश दिया।

सच में परी रोते रोते चुप हो गई.. उसे लगा नीचे ही सो गई… काम खत्म कर जैसे ही दौड़ कर कमरे में आई तो अवाक रह गई। देखा तो परी  बेहोश हो गई थी। सिर से निकले खून आसपास बिखरे थे। जल्दी से उसने बेटी को गोद में लिया और बगल के सरकारी अस्पताल लेकर पहुँची। भगवान का शुक्र था कि चोट गहरी नहीं थी और बच्ची सदमे से बेहोश हो गई थी। घर आते आते सपना ने घर छोड़ने का निर्णय ले लिया था। अपने और अपनी बच्ची के कपड़े लेकर घर से निकल गई। किसी ने ना कुछ पूछा.. ना ही रुकने कहा। यूँ भी उस दोनों के घर छोड़ने का इंतजार ही हो रहा था।

क्या करे.. कहाँ जाए… मायके तो जा ही नहीं सकती थी। दो दिन से एक धर्मशाला में ठहरी हुई थी… सोच रही थी.. किससे सहायता माँगे। अचानक उसे अपने मायके की पड़ोस की चाची याद आ गई.. जो कि आँगनबाड़ी में काम करती थी और उसकी माँ की शुभचिंतक भी थी। उसी समय वो आँगनबाड़ी के दफ्तर चली गई। दफ्तर बंद होने का समय था… चाची निकल ही रही थी… उनकी नजर आती हुई सपना पर पड़ती है।




चाची – अरे सपना.. यहाँ कैसे.. कोई काम था.. 

सपना – हाँ चाची.. आपसे ही मिलने आई थी .. और सारी आप बीती बताती है… 

चाची – चलो घर चलो.. 

सपना – नहीं चाची.. कल मैं फिर यही आ जाऊँगी। घर पर तो माँ की आफत आ जाएगी.. कोई काम दिला दो।

चाची – ठीक है.. एक अनाथालय में खाना बनाने वाली चाहिए… रहना, खाना और कुछ पगार मिल जाया करेगा.. फिर बाद में देखते हैं।

सपना – चाची आपका अहसान होगा.. कल मिलती हूँ… 

चाची की पैरवी पर सपना को खाना बनाने का काम मिल जाता है। दिन कटने लगते हैं… परी भी बड़ी हो रही थी… सपना भी प्रशिक्षित होकर प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका हो गई थी। लेकिन उसने अनाथालय नहीं छोड़ा। उसके लिए अनाथालय मंदिर के समान था। लगाव हो गया था उसे उन बच्चों से… जो अनचाही सन्तान थे.. जिसे घर वालों ने छोड़ दिया था… क्या लड़का.. क्या लड़की.. जिसे जो अच्छा ना लगे.. उसे लावारिस छोड़ गए। वहाँ के सारे बच्चों के अच्छे जीवन के लिए प्रतिबद्ध थी वो। सपना की प्रतिबद्धता को देखते हुए अनाथालय के मालिक ने एक तरह से वहाँ की सारी बागडोर सपना को थमा कर निश्चिंत हो गए थे। 




        सपना ने परी को भी हर क़दम पर अनाथालय की हर तरह की मदद के लिए तैयार किया था। परी के उम्र के कई बच्चे नौकरी करने लगे हैं और आज अपने जन्मदिन पर परी भी सुपरिटेंडेंट का पद लेकर अपने शहर अपने घर अपनी माँ के आँचल तले आई थी। उस अनचाही सन्तान जैसी ही सबकी सन्तान हो.. ये चाहत हर किसी के आँखों में होगी। ऐसी औलाद सबको दें भगवान… परी की नजर उतारती अपने दिल को सुकून पहुचाती सपना की आँखें डबडबा आई थी।

#औलाद 

आरती झा आद्या 

दिल्ली

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