ऊंचाइयां – गोविन्द गुप्ता 

सुधीर एक राजनीतिक दल का समर्पित कार्यकर्ता था उसका पूरा परिवार वर्षों से उसी पार्टी का अनुयायी था,

अभी पार्टी कभी भी सत्ता में नही आई थीं पर विचारधारा के कारण सुधीर और उसका परिवार हमेशा पार्टी के साथ खड़ा रहा,

एक बात सत्ताधारी दल की बहुत बुराई बढ़ गई लोग अंदर ही अंदर बदलाव की बात करने लगे,

सुधीर की पार्टी को उम्मीद ही नही थी कि वह सत्ता में आ सकती है,

पर चुनाव की घोषणा होते ही प्रत्याशी भी घोषित हो गये पार्टी के ही कार्यकर्ता राजेन्द्र को टिकिट मिला तो जोश उफान पर आ गया सुधीर का क्योकि वह उसके बड़े करीब थे,

सुधीर ने सोंच लिया कि क्या क्या करवाएंगे चुनाव में जीतने के बाद,

चुनाव के रिजल्ट आये तो नतीजे चौकाने वाले थे सत्ताधारी दल को जनता ने विल्कुल नकार दिया था और सुधीर की पार्टी ,देश समाज पार्टी ,को भारी बहुमत से सत्ता सौंप दी,

सुधीर के मित्र भी विधायक बन गये,

जश्न शुरू हो गया और देखते ही देखते सत्ताधारी दल जो हार गया था उसके कार्यकर्ता विधायक जी के आसपास नजर आने लगे और विधायक जी से बोले कि हम सब आपके लिये कार्य कर रहे थे हंमे पता था कि आप जीतेंगे,

सुधीर सुन रहा था और विधायक में बदलाव भी क्योकि एक बार भी उंन्होने सुधीर को अपने पास नही बुलाया,

मिठाई और माला भी वही लोग खिला और पहना रहे थे,

फोटो सेल्फी भी ,

सुधीर से न रहा गया और बापस घर आ गया निराश सुधीर सोंच रहा था क्या क्या सपने थे हमारे और पल भर में सौदा हो गया सपनो का,

धीरे धीरे उन लोगो ने विधायक जी को पैसों को कैसे पैदा करना है सिखा दिया और खुद भी करने लगे,

जनसमस्या सिर्फ सुनी जाने लगी पर क्रियान्वयन नही होता था,

असंतोष बढ़ने लगा और भविष्य में सबक सिखाने की ठान ली जनता ने,

विधायक और उनके परम सहयोगी जिनकी जनता में छवि शून्य थी ,

वह अगले चुनाव के प्रबंधक थे,

सुधीर को बार बार बुलाया जाता रहा पर सुधीर नही गया पांच वर्ष एक कप चाय भी पीने उसके घर नही आये विधायक जी ,

खैर चुनाव फिर घोषित हुये रिजल्ट आये फिर से बापसी हुई पर अंतर बहुत थोड़ा सा रहा हारजीत का ,हार होते होते ही बची विधायक की,

इस बार न तो सुधीर विजय जुलूस में था न स्वागत सभा मे,

पर सुधीर खुश था कि इस बार कोई अपेक्षा नही थी,

कोई उम्मीद भी नही थी,

लेखक

गोविन्द

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