तिरस्कार का प्रतिकार – तृप्ति शर्मा

पापा तो न करने के लिए अड़ ही गये थे इस रिश्ते के लिए ।  उन्हें नहीं समझ आ रहा था ये रिश्ता पर माँ ने बहुत समझाया ,इतने रईस घर से उनकी लाडली निभा के लिए रिश्ता आया तो घर के हालात देखते समझते हुए माँ तो अडिग ही रहीं कि शादी होगी तो यहीं कम से कम बिटिया का भाग तो चमकेगा और कुछ नहीं तो यहां की सूखी नमक रोटी से तो बचेगी बेटी।

आगे और तीन लड़कियों की जिम्मेदारी भी थी । पापा ने बहुत समझाना चाहा पर वह टस से मस ना हुईं । खुद चलकर रिश्ता आया है । अच्छे खाते -पीते लोग हैं,जमा जमाया कारोबार,अच्छी भली सूरत का लड़का ।सब- कुछ तो अच्छा है और क्या चाहिए। माँ पापा को समझाते हुए बोलीं। कुछ हद तक पापा को भी बात सही लगी और जैसे तैसे इंतजाम कर उन्होंने अपनी दुलारी को विदा कर ही दिया।

जब भूख की आग से पेट जलता है  तो ताने की आंच नहीं दिखती ऐसा ही था माँ- पापा के साथ भी ,अपने अंदर बहुत से अरमान समेटे निभा भी पहुंच गई ससुराल ।

वक्त गुज़रता गया । मायके में भले ही पैसा कम था पर रिश्तों में प्यार दिखता था । यहां पैसे का घमंड और दिखावा होता था बस। निभा की सुंदरता देखकर उसकी सास उसे ब्याह तो लाई थी पर जब दहेज देखा तो उनकी त्योंरियां चड़ गई । हमें कुछ न चाहिए के झूठे ढोल पीटने वाली सास बस तभी से शुरू हो गई । हर तरफ़ तानों उलाहनों की आंधी जिस की गति दिन पर दिन साल दर साल बढ़ती ही गई। हद तो तब होने लगी जब उसके बाद ब्याही आई देवरानी के बच्चे हो गए और निभा की गोद सूनी ही रह गई । हर छोटी गलती पर मां पापा को बुलाया जाता ,जी भर के कड़वे बोल बोले जाते ,माँ- पापा और निभा उनके  इस व्यवहार से तिरस्कृत आंसू बहाते रहते। तीन लड़कियों को ब्याहने की चिंता माँ पापा को कोई भी ठोस कदम उठाने से रोक देते । वो मायूसी भरा हाथ निभा के सिर पर फेरते और लौट आते ।



निभा जो कि सिर्फ दसवीं पास थीं सोचती काश में पढ़ी लिखी होती तो माँ- पापा को इस अपमान से बचा लेती। वो अब बस छोटी बहनों को समझाती रहती कि खूब पढ़ें और अपने पैरों पर खड़ी हों।  जो होना था वो तो हो चुका था। परदे वाले घर में अब उसने अपनी इच्छाओं को मारकर जीना सीखना शुरू कर दिया था। वक्त गुज़रता गया ,हालात कुछ दुरूस्त हुए। निभा ने एक प्यारी सी बिटिया गोद ले ली थी,जिसे उसने पूरे जी जान से पाला पोसा, उसके चार वर्ष उपरांत उसने एक खूबसूरत बेटे को जन्म दिया, ये उस मासूम सी बच्ची के शुभ कदमों का ही प्रतिफल था। निभा ने अब पूरी तरह खुद को घर गृहस्थी में रमा लिया था।

वक्त बीतता गया पर निभा हमेशा उस सम्मान को तरसती रही जो उसका हक था। बच्चे बड़े हो रहे थे। अचानक निभा की रूकी थमी ज़िंदगी में एक बदलाव आया। ये उसके अच्छे ,सच्चे मन की सच्चाई ही थी,कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद उसने साहित्य में कदम रखा और धीरे-धीरे उसकी साहित्यिक समाज में पहचान बननी शुरु हो गयी। उसके अंदर के अरमानों और वेदनाओं ने कलम को अपना साथी बनाया और उकेर डाले कुछ ऐसे रंग जो उसकी बेरंग सी शख्सियत पर सतरंग बनकर हमेशा के लिए छा गये। 

 

 

 

कुछ कर दिखाने और खुद को परिवार ,समाज में साबित करने की ललक आज निभा को बहुत बड़े मुकाम पर ले आई थी जहां भले ही घर वालों के लिए वो आज भी वही निभा हो पर साहित्यिक समाज और कवि कुल में निभा अब एक परिचित नाम थी,जहां नाम,मान ,प्रतिष्ठा सबकुछ था।

#तिरस्कार 

 

तृप्ति शर्मा।

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