तिरस्कार का कलंक मिट गया – विभा गुप्ता

  ” सौदा, कहाँ मर गई, यहाँ सारा काम पड़ा है और महारानी आराम फरमा रहीं हैं।” अपनी चाची की आवाज सुनकर सौदा बोली, ” आई चाची ” और हाथ में लिए कपड़ों को बाल्टी में ही छोड़ कर वह रसोईघर की ओर चली गई।

             सालों से वह चाची के मधुर वचनों को सुनने की सौदा आदी हो चुकी थी।उसके पिता ने बड़े प्यार से बेटी का नाम सौदामिनी रखा था।बचपन में उसे पोलियो वाली दवा के ‘ दो बूँद’ पिलाने के बाद भी न जाने कैसे उसके दाहिने पैर में पोलियो का असर आ गया और दस वर्ष की छोटी उम्र से ही वह अपने एक पैर को घसीटकर चलने लगी।मोहल्ले में खेलने जाती तो सभी उसका मजाक बनाते और स्कूल में तो बच्चों ने उसका नाम ही ‘लंगड़ी ‘रख दिया था।माँ अपनी बेटी का दुख सह नहीं पाई और एक रात ऐसी सोई कि फिर कभी नहीं उठी।वह बहुत रोई, पिता ने उसे संभाला।उसे तैयार करके स्कूल भेजना,उसका होमवर्क कराना इत्यादि सभी काम उसके पिता कर रहें थे।मित्र-हितैषी उसके पिता पर पुनर्विवाह के लिए दबाव डालते लेकिन दूसरी औरत न जाने कैसी हो, सौदामिनी को नई माँ का प्यार न मिला तो, इन्हीं सब आशंकाओं को सोचकर वे टालते रहें।फिर एक दिन सौदामिनी ही अपने पिता से नई माँ लाने की ज़िद कर बैठी तो उसके पिता ने अपने गाँव की ही एक हमउम्र महिला से ब्याह कर लिया।

         नई माँ के आने से सौदामिनी बहुत खुश रहने लगी थी।वह माँ से बातें करती, उनके कामों में हाथ भी बँटाती।एक दिन उसकी नई माँ का भाई आया और उसने न जाने अपनी बहन को क्या पट्टी पढ़ाई की कि नई माँ को सौदामिनी से नफ़रत होने लगी।बात-बात पर उसे कोसने,गालियाँ देना और बेवजह उसे काम में उलझाए रखना उसकी नई माँ का स्वभाव बन गया।पिता सबकुछ देखकर भी अपनी पत्नी को कुछ कह नहीं पा रहें थें और इसी दुख और घुटन के कारण एक दिन उनका हार्ट फेल हो गया।उसी दिन से उसकी नई माँ ने उसे सौदामिनी की जगह ‘सौदा’ पुकारना शुरु कर दिया था।

          पिता के देहांत के बाद वह पूरी तरह से टूट गई थी।उस पर से नई माँ का ज़ुल्म भी कहर बनकर उस पर टूट पड़ा था।दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई भी छुड़वा दी गई।उसकी सुबह गालियों से होती तो दिन की पिटाई से रात को उसका बदन दुखता।



          साल भर बाद उसके पिता की बरसी पर जब उसके चाचा आये तो नई माँ ने यह कहकर उसे चाचा के हवाले कर दिया कि लंगड़ी लड़की को संभालना उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है और वह चुपचाप चाचा संग शहर आ गई।यहाँ पहले से ही चाचा के चार बच्चे थें जिनमें से तीन तो उसके हमउम्र ही थें।कुछ दिनों तक तो चाची शांत रहीं, फिर उन्होंने अपना असली रूप दिखाना शुरु कर दिया।कभी चाची ताने देती कि माँ-बाप को खाकर अब हमें खाने आई है तो कभी उसके चचेरे भाई-बहन उसका एकमात्र सहारा उसकी बैसाखी को छुपाकर उसे परेशान करने लगते।

          एक पैर से लाचार होते हुए भी सौदा ने चाची का पूरा घर संभाल लिया था,फिर भी चाची उसके कामों में नुक़्स निकालने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी।एक दिन उसकी चचेरी बहन ने पानी माँगा और चाची ने मालिश वाली तेल की शीशी।उसने पहले चाची का काम पूरा किया,फिर बहन को पानी देने गई तो बहन ने गिलास का पानी उसके मुँह पर ही फेंक दिया।सौदा का अपने परिजनों द्वारा तिरस्कृत होना उसके चाचा को अच्छा नहीं लगता था लेकिन चाहकर भी वे अपनी पत्नी और बच्चों को कुछ नहीं कह पाते थें।

           समय गुज़रता गया और एक शाम चाय पीते हुए उसके चाचा ने उससे कहा कि एक जगह तुम्हारे रिश्ते की बात चलाई है,परिवार अच्छा है पर लड़के का रंग…।वह बोली, ” चाचाजी, मैं चली गई तो यहाँ कैसे…।” 

” यहाँ की छोड़ो, तुम अपनी राय बता दो तो मैं बात पक्की करूँ।” 

          सौदा भला क्या कहती।भाग्य उसे जिधर ले जाता,वह तो उधर ही चल देती थी।चट मंगनी पट ब्याह हो गया।ससुराल में सास-ससुर थे नहीं, दो भाईयों का छोटा परिवार था।परिवार की कमान जेठानी भैरवी ने संभाल रखी थी।भैरवी के तीनों बच्चे बड़े थें।बड़ा बेटा कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ पिता के व्यवसाय में भी हाथ बँटाता था।सौदा का पति बीए पास करके एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क था।अपनी आमदनी में वह खुश था और सौदा को भी पूरा समय देता था।भैरवी ने सोचा था कि लंगड़ी पत्नी के साथ उसका देवर खुश नहीं रहेगा, फिर वह उम्र भर सौदा को अपनी ऊँगलियों पर नचायेगी,परन्तु ऐसा हुआ नहीं।सौदा को अपने पति के साथ हँसते-बोलते देखकर उसकी छाती पर साँप लोटने लगे और अब वह सौदा के काम को बिगाड़ने लगी।सौदा चाय बनाकर रखती तो कभी उसमें नमक तो कभी पानी डाल देती।खाने में मिर्च डाल देती जो सौदा के पति को पसंद नहीं था।वह सौदा पर झल्लाता,बात-बात पर उसे अपमानित करता।ऐसे में भैरवी को मौका मिलता और वह भी सौदा पर बरस पड़ती।



           बस ऐसे ही पति-जेठानी की गालियाँ खाते और उनके हाथों तिरस्कृत होते सौदा का एक साल बीत गया। एक दिन सौदा का पति किसी काम से दो दिनों के लिए शहर से बाहर चला गया ,तब भैरवी ने सौदा पर लांछन लगा दिया कि मेरे जवान बेटे पर डोरे डालती हो।सौदा कुछ कहती, उससे पहले ही भैरवी ने उसके बाल पकड़कर घर से निकाल दिया।मोहल्ले वाले तो तमाशबीन होते हैं।भैरवी ने अपने पति और देवर के कान में भी सौदा के खिलाफ़ ज़हर भर दिये थे, इसलिए उस घर में ‘सौदा ‘ नाम का अध्याय बंद हो गया।

              भैरवी ने देवर की दूसरी शादी के लिए प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी।बेटी को विदा करके दो बहुएँ ले आईं जो अब उसे ही नचाने लगी थी।एक दिन उसके चार वर्षीय पोते को बुखार हो गया।उसे लेकर वह डाॅक्टर के पास गई।क्लिनिक के रिसेप्शन पर बैठी महिला को देखकर वह चौंक पड़ी।वह सौदा थी।सौदा ने मुस्कुराते हुए पेशेंट का नाम पूछा और एक पर्ची पर लिखकर उन्हें डाॅक्टर के केबिन में भेज दिया।डाॅक्टर से मिलकर भैरवी वापस सौदा के पास आईं और उससे पूछा, ” यहाँ कैसे?”

          सौदा बोली, ” ससुराल से तिरस्कृत होकर मेरी जीने की इच्छा खत्म हो गई थी।मैं मरने ही जा रही थी कि एक डाॅक्टर ने मुझे बचा लिया और अपने घर ले गये।उनके अपंग बेटे को देख कर मेरे मन में जीने की इच्छा फिर से जगी।मैं उनके बेटे की देखभाल करने लगी, साथ में क्लिनिक का काम भी सीखने लगी।पिछले साल से ही मैं यहाँ का काम संभाल रही हूँ।” सौदा की बात सुनकर भैरवी के मन का लालच फिर से जागा,बोली, ” सौदा, मैंने तुम्हारा तिरस्कार करके,तुम्हें घर से निकालकर बहुत बड़ी भूल की है।मुझे माफ़ कर दो और घर चलो।” सौदा बोली, ” नहीं जीजी, आपने तो अच्छा ही….।” तभी डाॅक्टर साहब आ गये और बोले, ” सौदामिनी ,घर चलें।” सौदामिनी ने भैरवी को बताया, ” ये डाॅक्टर जतिन हैं और मेरे पति भी।” कहकर वह डाॅक्टर जतिन के साथ चली गई और भैरवी ठगी-सी रह गई।उन दोनों को एक साथ जाते देख वह अफ़सोस करने लगी कि हाय, मैने सौदा का तिरस्कार क्यों किया?

                तिरस्कार का अंधेरा कितना भी गहरा क्यों न हो, एक दिन दूर हो ही जाता है।जैसे कि डाॅक्टर जतिन का साथ पाकर दामिनी के जीवन का तिरस्कार रूपी कलंक हमेशा के लिए मिट गया।

                               — विभा गुप्ता 

      # तिरस्कार 

 

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