तेरे सब अरमान पूरे हों (भाग 1)-  विभा गुप्ता   : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ” अरे….! आप फिर से भिंडी पाव भर ही लाए हैं।कितनी बार तो आपसे कह चुकी हूँ कि भिंडी गल जाती है, घर में पाँच जने हैं… पूरी नहीं पड़ती लेकिन आप हैं कि सुनते ही नहीं…।” सब्ज़ी के थैले में कम भिंडी देखी तो बीना अपने पति मनोज पर चिल्लाई।

     ” अरी मेरी रामप्यारी…, हम भी तो हमेशा तुमसे यही कहते हैं ना कि आलू मिलाकर उसे बराबर कर लिया करो।” मुस्कुराते हुए मनोज ने पत्नी को जवाब दिया और दुकान चला गया।

          बचपन से मनोज अपने माता-पिता का आज्ञाकारी बेटा रहा था।पिता की हर आज्ञा का पालन करना वह अपना धर्म समझता था।उसके पिता दीनदयाल वर्मा एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क थें लेकिन दो बेटियों के बाद जन्मे अपने इस बेटे से उनको बहुत उम्मीदें थें।वो मनोज को एक बड़े अफ़सर के रूप में देखना चाहते थें।इसीलिये उन्होंने बेटियों का दाखिला तो सरकारी विद्यालय में कराया और बेटे का प्राइवेट स्कूल में।

       मनोज जब दसवीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा था तब एक दिन उसकी कालिंदी बुआ आईं और रोते हुए अपने भाई से कहने लगी कि अपना पेट काटकर उस नासपिटे(बेटा)को पढ़ाया लेकिन नौकरी करने दूसरे शहर गया तो वहीं का होकर रह गया।पहले तो कभी-कभी आ भी जाता था लेकिन इधर दो साल से तो उसे देखने को अंखियाँ तरस गयीं हैं।कुछ दिनों पहले उसके पड़ोस के शर्मा अंकल भी उसके पिता को दुखी होकर बता रहें थें कि दीनदयाल जी…, नौकरी करते ही मेरे बेटे मुरली के तो पर लग गये हैं।

      अब मनोज सोचने लगा कि मैं नौकरी करने बाहर चला जाऊँगा तो मेरे माँ- पापा भी अकेले रह जाएँगे।उसी समय उसने ठान लिया कि वह नौकरी नहीं करेगा। उसके पिता ने सोचा, समय के साथ उसके विचार बदल जाएँगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

     बहनों की शादी के बाद तो मनोज ने अपनी पढ़ाई ही छोड़ दी और अपने एक मित्र के किताब की दुकान पर बैठकर काम सीखने लगा।वहीं उसे स्टेशनरी शाॅप खोलने का ख्याल आया।मेहनती तो वह था ही और बुद्धिमान भी, बस कुछ ही महीनों में उसने अपनी छोटी-सी काॅपी पेन-पेंसिल की दुकान को स्टेशनरी शाॅप में बदल दिया।स्कूल-काॅलेज़ के नये सत्र के आरंभिक समय में तो उसकी शाॅप में तिल रखने की भी जगह नहीं होती थी।उसके पिता ने संतोष कर लिया कि मेरी इच्छा पूरी न हुई तो क्या…बेटा अपना शौक तो पूरा कर रहा है ना।

 बेटे को अपने पैर पर खड़े देख दीनदयाल जी ने बीना नाम की एक सुंदर-सुशील लड़की से उसका विवाह करा दिया।साल भर बाद बीना ने एक पुत्र को जन्म देकर अपने सास-ससुर के दादा-दादी बनने का अरमान पूरा कर दिया।मनोज की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गई लेकिन फिर भी वह हर छोटे-बड़े काम में अपने पिता की सलाह अवश्य लेता था।पास-पड़ोस वाले तो उसकी माँ को यहाँ तक कह देते,” मनोज की माँ…तुम्हारा बेटा तो श्रवण कुमार है।”सुनकर वे फूली नहीं समाती थीं।

      बेटे मनु के दूसरे जन्मदिन पर मनोज ने अपने पिता से कहा,” पापा…,बीना की इच्छा है दिल्ली घूमने की।आपलोग कब चलना चाहते हैं?” सुनकर दीनदयाल जी हा-हा करके हँसने लगे।अपनी अलमारी से रुपयों की एक गड्डी निकालकर बेटे के हथेली पर रखते हुए बोले,” तुम लोग जाओ बेटे…बहू आई है जब से..कहीं बाहर नहीं निकली है।उसे घुमा लाओ…उसका मन बहल जायेगा।”

  ” नहीं बाबूजी…हम सब साथ..।”

” कहा ना…तुम लोग जाओ…।” दीनदयाल जी कड़क कर बोले तो ‘जी पापा’ कहकर मनोज अपनी पत्नी-बेटे के साथ ही घूमने जाने के लिये टिकट लेने चला गया।

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विभा गुप्ता

    

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