शुभांगी – जयसिंह भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : “ओंकार हॉस्पिटल में तुरंत आकर मिलो।”

यह मैसेज पढ़कर मैं ओंकार की तरफ भाग चला और जैसे ही रिसेप्शन पर उसके विषय में जानकारी लेकर उसके बेड के पास पहुँचा तो उसने तनिक सस्मित भाव से चिटकनी लगाने को कहा। पास बैठते ही मेरा हाथ थाम कर वह बोली, “सुनो! क्या अभी तत्काल तुम मुझे वो सुख दे सकते हो जिसकी प्राप्ति के लिए लड़कियाँ विवाह करती हैं… बोलो .. बोलो न!”

मैं चौंक कर खड़ा हो गया और दो कदम पीछे हटकर अवाक उसको देखने लगा। यह क्या कह रही है अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई यह बीमार लड़की! ठीक है चलो माना कि.. यह प्राइवेट रूम है.. हम दोनों एकाकी हैं.. द्वार बंद है और चिटकनी भी अंदर से लगी हुई है.. तब भी यह कैसी कामना! उफ्फ.. यह बन्दी तो ऐसी नहीं थी। कभी धोखे से भी इसके शरीर को कहीं पर छू जाता था तो तुरंत आँखें तरेरते हुए कहती, “ओए चश्मिश! कंट्रोल योरसेल्फ अदरवाइज मैं डिकन्ट्रोल हो गयी तो यहीं लत्ते छूट जायेंगे तेरे।” और आज यह क्या बोल रही है… मेरे विचारों की तीव्र मथानी को शांत करने वाली खनकती हँसी के साथ ताली बजाते हुए तनिक थके हुए स्वर में वह बोली, “अपना मुँह बन्द कर ले.. मक्खियाँ न घुस जाए कहीं। यार तू एकदम अकेला पीस है इस दुनिया में, ऐसा निश्छल और ऐसा निष्पाप!! मेरी सहेलियों के लिए भले ही तू बुद्धू और बच्चा हो किन्तु मेरे लिए तो मिस्टर परफेक्ट है!” कहकर उसने अपने हाथ के अँगूठे व तर्जनी को जोड़कर परफेक्ट चिन्ह को प्रदर्शित किया।

“पर तू ये बोली भी कैसे?” मेरे आँसू निकल आये यह कहते हुए।

“ओए रोंदू! इधर तो आ जरा तू।” अपने समीप आने का संकेत करते हुए वो बोली।




पास जाकर स्टूल में बैठ गया तो उसने वीगो लगी कलाई उठाकर मेरे चेहरे के आँसुओं को अपनी उँगलियों से पोछ कर मेरी ठुड्डी पकड़ कर बोली, “आप बहुत भोले हैं ‘जय’! मैं वही चाहती हूँ जो मैंने अभी आपसे कहा। यह लीजिये.. और मेरी माँग भर दीजिये। इसी के लिए तो हर स्त्री विवाह करती है.. है न!” कहकर दूसरे हाथ से सिंदूर की डिबिया मेरे सामने रख कर वह खिलखिला पड़ी।

तभी अटैच्ड बाथरूम से उसके मम्मी-पापा, भइया-भाभी और छोटी बहन सामने आगये। मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा कि अब हड्डीतोड़ पिटाई होने वाली है मेरी। मैं कुछ बोल पाता कि इसके पहले ही उसने मेरी कलाई पकड़ ली और अपने पापा से बोली, “और कितनी परीक्षा लोगे इस बेचारे की। मम्मी, क्या अब भी आपको कोई दुविधा है! भइया-भाभी क्या अब भी आप दोनों मुझे लेकर चिंतित हैं! और लाडो.. देख लो, ऐसे भी लड़के होते हैं इस दुनिया में। इस बन्दे के लिए तो मेरा साथ जैसे सूरज की धरती पर घर बना कर ठण्डक की अपेक्षा करने जैसा रहा है।”

परिवार के सभी सदस्य सलज्ज खड़े थे जबकि छोटी बहन फफक फफक कर रो पड़ी। मैने उसकी तरफ देखा तो वह मुझसे आकर लिपट गयी और बोली, “माफ करना जीजू! मैं आपको बनावटी भोलू और स्वार्थी समझ कर दीदी से बहस करती रहती थी।”

तभी पापा आगे बढ़े और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा, पिछले सत्ताईस महीनों में यह आपसे जब जब एकांत में कहीं मिली है तब तब यह अकेली नहीं रही बल्कि हममें से कोई न कोई इसके आसपास ही रहा है। यह इसकी जानकारी में रहता था। लड़की का पिता सदैव आशंकित रहता है। मैं भी था इसलिए इसके चुनाव को लेकर मैं सदैव तमाम प्रश्न करता रहता था। इसके जवाब में यह आपको कहीं आने को कॉल करती और हमें आसपास रख कर आपसे मिलती। वापस आकर यह रोती और कहती,’क्या बुराई मिली आपको मेरे चश्मिश में! बस दुनियादारी से परे एकदम स्वच्छ और धवल मन वाला है.. यही न!’ हम सभी चुप रह जाते। मुझे माफ़ करना मेरे बच्चे! आप एक जेन्युइन बन्दे हो। इसकी बीमारी के कारण हम न कभी आपके सामने आए और न ही वैवाहिक सम्बन्ध के उद्देश्य से आपके मातापिता से मिलने को सोचा।”




अब मम्मी आगे बढ़ीं और हाथ जोड़ते हुये बोली, “बेटे! आओ, मेरी बेटी की माँग भर कर उसे सुहागन बना दो।”

“लेकिन मम्मी जी न पण्डित, न मण्डप, न बारात और न अग्नि के फेरे, न मेरे मम्मीपापा… फिर यह कैसा विवाह!”

मेरी कलाई पर दबाव पड़ता महसूस कर मैंने उसे देखा जो अब अर्धमूर्छित सी हो चली थी। पास बैठने का संकेत किया फिर धीमे स्वर में बोली, “तुम्हें.. हमारी पहली मुलाकात याद है न! जब मैं मूर्छित होकर तुम्हारे पास गिर गयी थी। याद है न…”

मुझे सबकुछ याद आ गया। न केवल पहली मुलाकात बल्कि तबसे अबतक की पूरी घटनाएं चलचित्र की तरह स्मृतिपटल पर गुजर गयीं।

वह कह रही थी, “तब मैंने कहा था न कि डॉक्टर ने मुझसे मेरा अधिकतम तीस दिनों का जीवन शेष रहने को कहा था। लेकिन आज सत्ताईस माह बीत गए.. और यह सब सम्भव हुआ है आपके सानिध्य के कारण, आपकी उदासियों के कारण और आपके सदैव गम्भीर रहने वाले निष्पाप चेहरे के कारण। किन्तु अब शायद डॉक्टर की बात सच होने को है अतः मुझे सुहागन कर दीजिए ताकि अगले जन्म में मुझे आप अवश्य मिलें… मेरे प्रेमी और पति के रूप में।  रही बात अग्नि, बारात, पण्डित और मातापिता की तो हमारी पहली मुलाकात में आपने मन्दिर परिसर में भगवान के समक्ष अपना हाथ मेरे हाथ में दे कर कहा था ‘अब मैं आपका ही हुआ’… क्या आप भूल गए! नहीं न.. तो फिर प्लीज मुझे सुहागन बना दीजिये अब..ताकि अगले जन्म में आपको पाने का सर्टिफिकेट मिल जाये…” उसके याचना और करुणा से भरे स्वर में ऊर्जा नहीं थी। आँखें पथराने लगीं थी जबकि मेरी कलाई पर उसकी पकड़ दृढ़ हो चली थी।




मैंने दृढ़ हाथों से चुटकी भर सिंदूर उसकी भाभी द्वारा खोली गई उसकी माँग में भर दिया। भाभी के कहने पर दो चुटकी सिंदूर और भर दिया। पीले सिंदूर से भरी माँग व उसका बीमारी से पीला पड़ा चेहरा सहसा देदीप्यमान हो उठा। उसके नयन बन्द थे किंतु कोरों से दो आँसू झाँकने लगे थे। अधरों पर सस्मित भाव था। मेरी कलाई को थामे उसका हाथ सहसा ठण्डा होने लगा था। ध्यान से देखा तो उसकी काया अब स्पंदनहीन हो चुकी थी। तभी मेरी कलाई से उसका हाथ छिटक कर बेड की बाजू पर लटक गया। पल भर में मैं भी चेतनाशून्य हो कर उसी के ऊपर लुढ़क गया। मेरे कानों में अंतिम शब्द के रूप में मम्मी जी चीख सुनाई पड़ी “शुभांगी.. मेरी बेटी।”

हॉस्पिटल के नीचे सड़क पर गाते हुए जा रहे एक साधु का स्वर छन छन कर अंदर आ रहा था … ‘पिंजरे के पंछी रे! तेरा दर्द न जाने कोय.. तेरा दर्द न जाने कोय..’

(कहानी की तारतम्यता के लिए कृपया इसके पहले की तीन कहानियाँ क्रमशः “ब्रेकअप”, “आइसक्रीम” एवं “वो सत्ताईस दिन” को अवश्य पढ़ें।)

               -/उड़ गया पंछी/-

                 -//समापन//-

स्वरचित:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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