शक – सुषमा पांडे  : Moral stories in hindi

moral stories in hindi : समंदर का पानी लहरों के रूप में किनारे पर जोरदार थपेड़े के साथ टकराकर वापस  जाता है तो अक्सर किनारों पर रह जातीं हैं छोटी छोटी मछलियाँ जो तड़प तड़प कर मर जाती हैं,ऊपर मंडराते पंछी इन मछलियों को झपटकर  अपनी चोंच में दबाकर उड़ जाते हैं।….कुछ इसी तरह की अवस्था आज प्रेम की भी थी…. 

विचारों के समंदर में वह हिचकोले खा रहा था,मछली की तरह उसका मन छटपटा  रहा था,मोहल्ले के लोगों  की नजरें उसे थपेड़ों की तरह तमाचे मार रही थी ,शिकारी पंछी की तरह पुलिस हथकड़ी लिए उसे गिरफ्तार करने आई थी…           गिरफ्तार होने से पहले उसने अपने घर के  कंपाऊंड के बीच बने उस दरवाजे को प्रणाम किया जिस पर चिन्हित दिल के  आधे हिस्से में     

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और आधे में  पी  कुरेदा था ।उसकी आँखों से आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। पुलिसवालों ने चलिए कहा ,तो फौरन उनकी गाडी में सिर झुकाए बैठ गया। किसी पर उसने निगाह तक न डाली।

कल पुलिस प्रेम को अदालत में पेश करेगी और उसे अपने ही दोस्त अमर की हत्या का आरोपी तय करते हुए रिमांड माँगेगी…।जेल की सलाखों के पीछे प्रेम बार बार तड़प  कर रह जाता,अपने आप से नफरत हो रही थी उसे। अकेले में जी भरकर रो लेना चाहता था वह। सिपाही द्वारा भोजन के बुलावे पर भी उसने भोजन नही किया… आज भूख और नींद उससे कोसों दूर थी. रोते रोते  फर्श पर लेट गया ,अतीत का चलचित्र उसकी आँखों के आगे स्पष्ट होने लगा।

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मेरे  पिता बैंक कर्मचारी थे,माँ घरेलू महिला थीं ,मैं ग्यारह महीने का था जब पडोस के माथुर परिवार में दो बेटियों के बाद बारह साल बाद कुलदीपक पैदा हुआ  तो दोनों घर के आँगन चहक उठे,उसका नाम अमर रखा।

 बचपन से ही अमर-प्रेम साथ साथ पले बढ़े। खेले कूदें ,हम दोनों  की दोस्ती इतनी गहरी थी कि किसी शरारत पर दोनों सजा भुगतने को तैयार  रहते,पर मजाल है कि  कोई दोनों में से किसी का भेद उगलवा ले! पूरे मोहल्ले में हमारी दोस्ती विख्यात थी..मेरी उम्र पाँच वर्ष की थी जब छोटी बहन स्नेहा का जन्म हुआ। 

दोनों परिवार का स्नेह उसे मिलने लगा। ठंड के दिनों में माँ और माथुर चाची दोपहर तक घर का सारा काम निपटाकर आँगन में कँटीली तार के पास दरी बिछाकर बीनने चुनने का काम लेकर बैठती. नन्ही स्नेहा दरी पर लेटी रहती।….अगर कभी धूप तेज लगती तो माँ तुरंत तार पर कपड़ा डालकर छाया का प्रबंध कर देती।

सूरज ढलने पर जब दोनों घर के कर्तापुरूष वापस आते तब माँ और माथुर चाची अपना सामान समेट कर अंदर जाती । अमर और मुझे किसी प्रकार का बंधन नहीं था,हम दोनों बेरोकटोक एक दूसरे के घर आते जाते, इस आवाजाही में अक्सर गेट खुले रह जाते और गाय अंदर घुसकर आँगन में लगी सब्जी , पौधे खा लेती और बिना वजह हमें डाँट पड़ जाती,मजे की बात तो ये थी दोनों की माताएँ मिलकर हम दोनों को डाँटती थी।पर इस डाँट का असर हमारी दोस्ती पर जरा भी न पडता। 

अमर मुझसे छोटा था पर दिमाग का बड़ा तेज था,एक ही स्कूल में हम दोनों  पढ़ते थे। एक दिन  अमर ने मेरे कान में कुछ कहा  तो मेरी आँखों में चमक आ गयी।इतवार की सुबह अपने इरादों को अंजाम देनें में जुट गये,कँटीली तार काटकर  आँगन से ही आवाजाही का रास्ता बनाया ।बाद में माथुर चाचा की मदत से वहाँ लकडी का छोटासा दरवाजा लग गया।

अब  गेट खुले रह जाने,और  डाँट खाने का अध्याय ही समाप्त हो गया।अगस्त महिने का दूसरा इतवार था,अमर और प्रेम ने लकड़ी के दरवाजे पर कील से कुरेद कुरेदकर दिल बनाया और आधे हिस्से मे अपने अपने नाम का पहला अक्षर   ए और आधे में  पी कुरेदते हुए मित्रता दिवस मनाया था।

…समय बीतता गया, माथुर चाचा अपनी बड़ी बेटी अंजूदीदी की शादी करके चार महीने बाद ही परलोक सिधार गये। अब तीन साल बाद छोटी बेटी मंजूदीदी की शादी थी । माँ और पिताजी माथुर चाची को पूरा सहयोग देते हुए अपना पडोसी धर्म निभा रहे थे, पर चाची को अपने पती की कमी बेहद खल रही थी, इसी वजह से उनकी हिम्मत टूटती जा रही थी।

ऐसे में मैं और अमर  अपने आपको अचानक  बड़ा हुआ सा महसूस कर रहे थे,और बखूबी शादी की जिम्मेदारी निभा रहे थे। सबके सहयोग से शादी  अच्छे तरीके से संपन्न हो गयी। दोनों दीदीयाँ अपने घर परिवार में व्यस्त हो गयीं , और माथुर चाची भी अब काफी संभल चुकी थी।

दिन बीतते गये अब हम बड़ी कक्षाओं में आ गये थे । स्नेहा को पढ़ाई करते समय कोई भी कठिनाई होती तो फौरन अमर से पूछकर हल कर लेती,अमर के ही बनाए मॉडल पर  इनाम की ट्रॉफी लेकर स्नेहा स्कूल बस से उतरी तो सोफे पर बैठे अमर को थैंक्यू कहते हुए लिपट गयी उस समय मेरे अलावा माँ और माथुर चाची भी वहाँ थी,ना जाने मन को पहली बार कुछ अच्छा नही लगा।

रात को स्नेहा हॉल में लेटकर टीव्ही देख रही थी और मैं उसे देख रहा था। स्नेहा अब तेरह साल की हो जाएगी ,अब वह बच्ची नही रही,किशोरी से युवती बनने का यही संक्रमण काल होता है, स्नेहा को यूँ बडी होता देख अचानक ही मन में चिंता के भाव जागृत होने लगे,आखिर वह मेरी सुंदर और लाडली बहन थी।…अमर के साथ मेरी हर तरह की बातचीत होती । एकदूसरे के घर के काम भी हम साथ में ही करते ,बाजार जाते,चक्की जाते, उसके साथ मैं घंटो बतियाता रहता ।

…समय रफ्तार पकड़ रहा था,स्नेहा इस साल बारहवीं में थी ,उस दिन फिजिक्स का फायनल प्रैक्टिकल था, लाख कोशिश करके भी स्कूटी स्टार्ट नही हो रही थी ।  परेशान स्नेहा ने अमर को बाहर से  आता देखा तो फौरन उससे स्कूल छोड़ने का आग्रह करती हुई बाईक की सीटपर बैठ गयी।शाम को यह बात माँ ने मुझे बताई थी।

रात को  मैं अमर के साथ बाहर बैठकर बतिया रहा था पर उसने इस बात का मुझसे कोई जिक्र न किया,मै हैरान था फिर भी मैं चुप ही रहा। दो महिने बाद स्नेहा का रिजल्ट आया।90प्रतिशत से ऊपर की चाह रखने वाली स्नेहा को 86प्रतिशत अंक मिले ,रो रोकर उसका बुरा हाल था।शाम को अमर ने ही उसे  समझाया और मना लिया ।आज एक बार फिर मेरे मन में कुछ खटक रहा था। 

एक दिन मैं घर से बाहर जाने की तैयारी में था कि आँगन में माथुर चाची को माँ से बतियाते हुए सुना, जिसमें उन्होने स्नेहा को अपनी बहू बनाने की मंशा व्यक्त की।माँ का जवाब सुने बिना मैं अपने कमरे में आ गया।ऐसे लगा जैसे किसी ने भारी हथोड़े से उसके सिर पर प्रहार कर दिया हो….,

बाहर जाने का इरादा छोड वह अपने कमरे में ही लेटा रहा,और माथुर चाची के कथन पर विचार करने लगा  आखिर हर्ज क्या है?फिर सोचता अमर मेरा दोस्त है,भाई जैसा है,सुख दुख का साथी है….पर उसे मैं इस घर के दामाद के रूप मे़ कैसे स्वीकार करूँ?नही..नही…यह मैं कदापि न होने दूँगा….अब अमर आता तो मैं पूरी कोशिश करता कि वो आँगन में ही बैठे बल्कि दरवाजे की कुंडी भी बाहर से ही लगा लेता ताकि स्नेहा वहाँ न आ सके।

समय रफ्तार से बढ रहा था, मेरे इंजिनिअरिंग के अंतिम वर्ष के इम्तिहान चल रहे थे ,अचानक रात को हार्ट अटैक से पिताजी की मौत से पूरा परिवार सदमें में आ गया। माँ और स्नेहा की हालत देख मेरा भी दिल बैठ जाता ,संकट की इस घड़ी में माथुर चाची और अमर साए की तरह हमारे साथ रहे।

   तीन महिने तक गहरे सदमें में डूबी माँ को दूसरा झटका तब और लगा जब  तेज रफ्तार कार ने  मुझे ठोकर मारकर घायल कर दिया। दायाँ पैर बुरी तरह टूट गया और सिर पर चोट लगने के कारण मैं बेहोश  था, कल शाम को ही मुझे होश आया और आज टूटे पैर का अॉपरेशन करना है ,माँ को साथ  लेकर अमर कमरे में आया सारे जरूरी कागजात पर दस्तखत करवाए, अस्पताल और घर की सारी जिम्मेदारी  अमर ने बखूबी निभाई….इस बीच कई बार स्नेहा अमर के साथ  मुझसे मिलने आई ,मैं मूक दर्शक सा देखता रहा….अस्पताल से  मैं घर आ चुका था।

…अब हालात बदल गये थे मेरे सारे सपने टूट गये थे,बैंक अधिकारियों के सहयोग से पिताजी की जगह मुझे अनुकंपा नौकरी मिल गयी थी….अगले ही साल  स्नेहा के लिए योग्य वर देखकर मैने उसका ब्याह करा दिया।

शादी के कुछ महिनों तक माँ से मिलनें स्नेहा अपने पती के साथ अक्सर  आती रहती पर अब शुभम के जन्म के बाद से मोबाईल पर ही बाते होती थी। मैं भी राहत महसूस कर रहा था। .

..अमर से मेरी दोस्ती पूर्ववत थी। अमर शुरू से ही कुशाग्र बुद्धी का था….बडे़ शहरों में आसानी से उसे नौकरी मिल सकती थी पर माथुर चाची यह घर छोडकर कहीं और जाने को राजी नही थी,अगले ही साल बैंक का इम्तिहान पास करके बड़े ओहदे पर अमर नियुक्त हो गया था….

मुझे पिताजी की जगह पर नौकरी मिली थी अमर ने खुद के बलबूते नौकरी हासिल की थी। पर मुझे बुरा नही लगा , अब अमर अपनी गाड़ी से मुझे बैंक साथ ले जाता था,एक्सीडेन्ट के बाद से मेरा पैर कमजोर पड़ गया था,ज्यादा दौडभाग नही कर पाता था ,अतः अमर के बैंक में नियुक्त हो जाने से मुझे सुविधा ही हो गयी थी।

एक दिन चाय पीते पीते उसका मोबाईल बजने से सहज ही मेरी नजर उसके मोबाईल पर पड़ी तो मेरा माथा भन्ना गया,उसे स्नेहा ने फोन किया था। उस समय भी मैं मन मसोसकर रह गया। इसके बाद तो यह सिलसिला बढता ही गया, स्नेहा का फोन अक्सर आता और अमर मुझसे दूरी बनाकर धीमी आवाज में बात करता और मेरे सामने सहज होने का स्वांग रचाता अब तक मेरा शक यकीन में बदल चुका था ।

मुझे स्नेहा पर बेहद गुस्सा आता और उसकी बुद्धी पर तरस भी ….पर विनाश काले विपरीत बुद्धी….मैने स्नेहा के पती को बुलाकर बात करनी चाही पर अपनी लाडली बहन की बदनामी के भय से  साहस नही जुटा पाया। अब दफ्तर में अमर से औपचारिक या कम ही बातें होती….एक दिन अमर का फोन बजा तो अचानक उसने मुझे देखा,मै अभी आया कहता हुआ वह चला गया,मैने अपने अंदर एक हलचल सी महसूस की ,मैने तुरंत स्नेहा को फोन किया तो उसका व्यस्त था,मैने दोनों को बार बार कॉल किए पर दोनों के  मोबाईल व्यस्त थे, बाद में संपर्क क्षेत्र से बाहर हो गये। परिस्थितीवश मैं लाचार हो चुका था,अपनी आँखों के सामने छोटी बहन का घर उजडते  कतई नही देख सकता था,पर कुछ कर भी तो नही पा रहा था….।

अगले दिन शुक्रवार था ,अमर छुट्टी पर था।शनिवार रविवार बैंक को छुट्टी थी अमर घर पर भी नही आया,मैं माथुर चाची से पूछने गया तो वे रसोई घर में थीं।दफ्तर के सिलसिले में तीन दिन बाहर जाने की बात कह गया है चाची ने बताया,रसोई से  निकलने लगा तो  फ्रिजकव्हर के साईड पॉकेट में मुझे स्नेहा की लिखावट का लिफाफा दिखा ,पानी लेने के बहाने फ्रिज खोला और चुपचाप लिफाफा जेब में डाल लिया ,घर आकर लिफाफा खोलकर देखा  तो लगभग दस दिन पहले  स्नेहा का लिखा हुआ खत था…. 

परसों सुबह जल्दबाजी में मेरा मोबाईल पानी की  बाल्टी में गिर जाने से बिगड़ गया है।तुरंत ही सुधरने डाल दिया  है…कल शाम तक मिल जाएगा।तुम्हारा नंबर याद नही था,भैय्या से लेती तो सत्रह सवाल पूछते इसलिए नौकर के हाथों चिट्ठी भेज रही हूँ ।तुम कब तक आ सकते हो?जल्दी  से जल्दी आना।अब तो तुम्हारा ही आसरा है,पल पल तुम्हारे आने की राह देख रही हूँ…पर प्लीज भैय्या को कुछ मत बताना…..

माँ और माथुर चाची से भी कुछ न कहना….  अब तक अपने अंदर जो गुबार समेटे बैठा था वह ज्वालामुखी की तरह फट गया,रविवार शाम अमर को आता देख मैं आगबबूला हो उठा….रात को दस बजे माथुर चाची से पूछा तो बोली दफ्तर के काम से थक गया है आठ बजे ही उसने खाना खा लिया…कल सुबह जल्दी मत उठाना माँ ,कहकर कमरे में चला गया है…..

मै देखकर आता हूँ कहकर मैं कमरे में गया । गले तक चादर ओढे अमर गहरी नींद में सोया था,आज उसे हमेशा की नींद में सुला देला देता हूँ कहकर साथ लाया चाकू निकाला और सप सप वार करता गया  ,अमर अपना कुछ बचाव करता ,कुछ कहता,किसी को मदत के लिए पुकारता उससे पहले ही वह खून से सनी चादर समेत फर्श पर गिरते हुए मेरी तरफ हाथ बढा रहा था जैसे हाथ थामने का अंतिम प्रयास कर रहा हो, पर अब वह हमेशा के लिए खामोश हो गया था मेरी तरफ बढ़ा हाथ उसके सीने से लिपटा पड़ा था ।

मैं गुस्से से तमतमाया हाँफता हुआ वहीं खड़ा रहा, उसी समय तकिये के पास रखा अमर का मोबाईल झनझना उठा, मैने लपककर फोन उठाया तो स्नेहा का फोन था वहाँ से उसके पती बात कर रहे थे…. शुभम के सारे रिपोर्ट अब सामान्य हैं डॉक्टर का कहना है कि अब खतरे की कोई बात नही….

आपके कारण हमारे बेटे को नया जीवनदान मिला….आपके साथ रहने से स्नेहा के साथ साथ हमें भी बहुत संबल मिला….आप भाई के रूप में फरिश्ता हैं…..भगवान आपको लंबी आयु दे…..इस इतवार मैं माँजी और प्रेम भैय्या को शुभम की बीमारी की सारी जानकारी दे दूँगा तभी आपसे भी मिलने आऊँगा….। 

मैं कुछ कहना चाहता था,पर मेरे शब्द  हलक में ही अटककर रह गये, हड़बड़ाकर एक बार मैने मोबाईल देखा फिर फर्श पर निपचित पड़े अमर को देखा …..कमरे का दरवाजा बाहर से बंद करते हुए फौरन गेट से बाहर निकल गया माथुर चाची से नजरें मिलाने का साहस नही जुटा पाया, रातभर मैं अपने  कमरे में बैठा रोता रहा  माँ और स्नेहा से माफी माँगते हुए एक पत्र लिखा जिसमें सारी भावनाएँ व्यक्त कर दी सुबह मैने स्वयं फोन करके पुलिस को घटना की सारी जानकारी दी….। 

दोस्तो शक की कोई दवा नही है,शक एक ऐसी बीमारी है,जो दिमाग और विचारशक्ती को दीमक की तरह चाटकर खोखला कर देती है,शक की ज्वाला में न जाने कितने घर तबाह हो जाते हैं…. अमर अपने नाम की तरह मरकर भी अमर हो गया और प्रेम नाम होते हुए भी मैं सबकी नजर में घृणा का पात्र बन गया

स्वलिखित, सर्वाधिकार सुरक्षित

✍️सुषमा पांडे 

नागपुर

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