शगुन – गीता वाधवानी : Moral stories in hindi

दादी ललिता अपनी पोती प्रगति के गले लग कर रो रही थी। वे थोड़ी देरऐसे ही रोती रही फिर प्रगति ने कहा-“बस करो दादी, ऐसा ना हो कि आपके आंसुओं से बाढ़ ही आ जाए।” 

“चल हट नटखट”और दादी ललित हंस पड़ी। 

दरअसल प्रगति ललिता जीकी सबसे छोटी औरतीसरी पोती थी। ललिता जी जब प्रगतिके कमरे से जाने के बाद आराम करने के लिए लेटीं, तब उनकीआंखों में नींद नहीं थी। समय चक्र उन्हें पुरानी यादों में घुमाने ले गया। 

उनकी बहू नीलम दूसरी बार गर्भवती थी। पहले उसकी दो बेटियां रिद्धि सिद्धि थी। वे जुड़वा थी। ललिता जी को तो पहले से ही जुड़वा पोतियां होने का अफसोस था। अब उन्हें यह डर था कि एक और पोती ना हो जाए। उन्होंने अपने बेटे दीपक से कहा कि नीलम को भ्रूण जांच करवाने के लिए लेजाए। 

दीपक-“मां आज के जमानेमें आप यह कैसी बातें कर रही है? क्या आपने देखा नहीं है कि बेटियांआजकल हरक्षेत्र में उन्नति कर रही हैं। वे आर्थिक रूप से सक्षम बन रही हैं। मुझे तो एक औरबेटी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।” 

ललिता-“अपना ज्ञान अपने पास रख। मुझे पोते का मुख देखनाहै। तभीतो मोक्ष मिलेगा और फिर तू कहां से लाएगा तीन-तीन बेटियों के लिए दहेज।” 

दीपक-“मां अभी तो तीसरी बेटी पैदा भी नहींहुई है और आप दहेज तक पहुंच गई। मैं आपसे सहमतनहीं हूं। मैं भ्रूण जांचके लिए नीलम को कहीं नहीं ले जाऊंगा। नीलम को भी यही सही लगता है। आपको बेटी स्वीकार नहीं, पर हमसे यह पाप ना होगा।” 

ललिता जी मन मसोस कर रह गईं। फिर वह नीलम को एक बाबा जी के पास ले गई। बाबा जी ने कुछ प्रसाद देते हुए कहा-“अवश्य पुत्रही होगा।” 

अब ललिता जी खुश थी और पूरी तरह आश्वस्त। उन्हें बाबा पर पूरा भरोसा था। समय आने पर नीलम को अस्पताल ले गए और थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहिबा ने आकर बताया कि”बधाईहो माताजी लक्ष्मी आई है।” 

इतना सुनते ही ललिता जी के तोते उड़ गए। बहू का ध्यान करने की बजाय वह भागी भागी गई बाबा के पास। वहांजाकर पता लगा कि बाबाजी तो विदेश गएहैं। निराश होकर लौट आई। 

     घर आने पर हमेशा बहू को ताने मरती। रिद्धि सिद्धि को भीडांटती रहती। नीलमके प्रति लापरवाही बरतती। किसी भी काम में उसकी मदद नहीं करती, यहां तक की छोटी सी प्रगति कितना भी रो रहीहो, उसेबिल्कुल गोद में नहींउठाती थीं। 

एक बार ललिता जी मंदिर गईहुई थी। तब नीलम ने देखा कि किन्नर उनके घर की तरफ आ रहे हैं। उसने झटपट दरवाजा बंद कर दिया। उसे डर था कि उसकी सास वापस आ गई तो बहुत गुस्सा करेगी। ललिता जी पोती के नाम पर कोई खर्च करना नहीं चाहती थी। यहां तक की उन्होंने अस्पताल के कर्मचारियों को भी डांट कर भगा दिया था, जब उन्होंने मुंह मीठा करवानेको बोला था। 

किन्नरों की टोली दरवाजे पर पहुंचकर घंटीबजा रही थी। नीलम  बाहर आई और उनके कुछ कहने से पहले ही हाथ जोड़कर बोली-“देखिए, प्लीज आप लोगों को मैं कुछ नहीं देपाऊंगी, प्लीज आप लोग चले जाएं।” 

नीलम दरवाजा बंद करने लगी, तभी एक किन्नर बोला-“सुनो बहन, हमेंपता लगा है कि तीसरी पोती पैदा होने के कारण तुम्हारी सास बहुत नाराज है। हम भी इंसान हैं बहन, हम समझ सकते हैं तुम्हारी परेशानी। हम कुछ लेने नहीं आए हैं, बस बच्चीको आशीर्वाद देने आए हैं, तुम उसे ले आओ।” 

नीलम जल्दीसे बच्ची को लेआई। किन्नरों की टोली ने उसे गोद मेंलेकर ढेर सारी दआएं दी और जाते समय₹501 उसके हाथ में रख दिया। नीलमकी आंखों में आंसू आ गए और वह बोली-“आपनेमेरी बच्ची को इतने ढेर सारे आशीर्वाद दिए और मैं सिर्फ चीनी से आपका मुंह मीठा करवा सकी। अब मैं शगुन का₹1 रख लेती हूं क्योंकि यह आपका आशीर्वाद है बाकी के ₹500 आप वापस ले लीजिए।”ऐसा कहते हुए उसने ₹500 वापस कर दिए। किन्नर के बहुत कहने पर भी उसनेसिर्फ₹1 ही रखा।  

किन्नरों के जाने के थोड़ी देर बाद

 ललिता जी मंदिर से वापस आ गई। उन्हें किन्नरों के आने का पता लग चुका था। कहने लगी-“अच्छा किया तूने कुछ नहीं दिया।” 

फिर धीरे-धीरे समयका पहिया घूमता रहा। बच्चियां पढ़ने लिखने लगी। तीनोंलड़कियां पढ़ाई में अव्वल थीं। रिद्धि टीचर बन गई थी। सिद्धि रिपोर्टर बन गई थी और प्रगति डॉक्टर। 

ललिता जी जब तब बड़बड़ाती रहती, पराए घर जाना है लड़कियोंको, चूल्हा  चौका करना है, बेकार में इन पर क्यों पैसा खर्च कर रहा है। ललिता जी का शरीर बूढ़ा और कमजोर हो चला था। कोई ना कोई तकलीफ लगी रहती थी। एक दिन अचानक ब्लड प्रेशर बहुत हाई हो गया और वे गिर पड़ी। उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। तब प्रगतिने उनका बहुत ध्यान रखा, वैसे भी तीनों पोतियां अपनीदादी से बहुत प्यार करती थी। उनकीकिसी भी बातका बुरा नहीं मानती थीं। ललिता जी के पैर में लकवा होनेकी शुरुआतहो गई थी, हल्का-सा असर आया था, लेकिन प्रगति ने अस्पताल में और घर पर अपनी दादी का पूरा ख्याल रखा। घर पर भी वह एक-एक घंटा उनके पैरकी मालिश अपने हाथ सेकरती थी, ताकि उसकी दादी हमेशा ठीक रहे। 

यही सब बातें याद करते-करते वह प्रगति के गले लगकर रो पड़ी थी और उन्हें अपने विचारों पर शर्म आ रही थी। लेटे-लेटे वह पुराने ख्यालोंमें चली गईथी। समय कितनी जल्दी बीत जाता है, समय चक्र को कौन रोक सकता है। आज मेरी छोटी-छोटी पोतियां कितनी बड़ी हो गई है। जिन पोतियों से मैं चिढ़ती थी, आज मुझे उन पर गर्व है। यही सब बातें सोचते हुए ललिता जीको न जाने कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया।  

स्वरचित, अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली

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