संस्कारहीन बेटा – विभा गुप्ता  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : ” ये कैसा संस्कारहीन बेटा पैदा किया है जानकी तुमने ….घर में बहन आई हुई थी और महाशय जी ससुराल के चक्कर काट रहें हैं।और बहू तुम…तुम्हारे माँ- बाप ने क्या यही संस्कार दिये हैं कि..।” 

 ” पापा…वो… मेरे स…।” शेखर अपनी बात कह ही रहा था कि इला ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक दिया।धनपत जी गुस्से-में बोलते ही जा रहें थें।पत्नी ने टोकना भी चाहा कि एक बार बेटे की बात सुन तो लीजिए लेकिन धनपत बाबू उन्हें भी अनसुना करके बेटे-बहू को भला-बुरा कहते रहे।

       धनपत जी एक सरकारी मुलाज़िम थें।दो बेटियों के बाद जब उनकी पत्नी जानकी ने शेखर को जन्म दिया था तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा था।शांत स्वभाव का शेखर अन्य लड़कों की तरह न तो शरारत करता और न ही किसी से मार-पिटाई, बस अपनी पढ़ाई पर ही उसका ध्यान रहता था।इसीलिए सभी अध्यापक उसकी बहुत प्रशंसा करते थें।स्कूल जाने से पहले अपने माता-पिता के चरण-स्पर्श करना, वह कभी नहीं भूलता था।

        सेवानिवृत होने से पहले धनपत जी अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरी कर लेना चाहते थें।बड़ी बेटी अंजू ने बीए का फ़ाइनल परीक्षा देना शुरु ही किया था कि उनके बहनोई के एक मित्र ने अपने सीए बेटे के लिये उसका हाथ माँग लिया।वे ना नहीं कह सके और बेटी के इम्तिहान खत्म होते ही पहली लगन में उसे विदा कर दिया।छोटी बेटी मंजू ने बीएड किया और स्कूल में पढ़ाने लगी।कहते हैं ना..जोड़ी ऊपर से बनकर आती है।

       एक दिन स्कूल के प्रिंसिपल धनपत जी घर आयें और अपने इंजीनियर बेटे के लिये मंजू का हाथ माँग लिया।उन्होंने धूमधाम से बेटी का विवाह करके उसे ससुराल विदा किया और सोचने लगे कि अब शेखर भी अपने पैर पर खड़ा हो जाये।

       शेखर सिविल सर्विस ज़्वाइन करके लोगों की सेवा करना चाहता था।ग्रेजुएशन के बाद उसने लिखित परीक्षा तो पास कर ली लेकिन इंटरव्यू में छँट गया।पिता को निराश देखकर उसने उन्हें आश्वासन दिया था कि पापा.. अगले वर्ष आप आईएएस के पिता अवश्य कहलाएँगे।यही हुआ भी…।

      शेखर ने जब उन्हें फ़ोन पर बताया कि मैं आईएएस बन गया तो गर्व-से उनका सीना चौड़ा हो गया था।शाम को पार्क में टहलते हुए उन्होंने अपने मित्रों को यह खुशखबरी सुनाई तो सबने उन्हें बधाई देते हुए कहा था,” बड़ा संस्कारी बेटा है आपका…सुना है…परीक्षा देने जाते समय शेखर आप दोनों के चरण-स्पर्श करता है…।”

  ” सब प्रभु की कृपा है..।” मुस्कुराते हुए उन्होंने जवाब दिया था।

      दिल्ली में ही शेखर ही पोस्टिंग थी।सहारनपुर से दिल्ली के लिये सीधी बस चलती थी।महीने के किसी एक इतवार को वो जाकर बेटे से मिल लिया करते थें।जानकी जी घर में बहू लाना चाहती थीं, सो उन्होंने बेटे को दो-तीन फोटो भिजवाकर पसंद करने को कहा।तब शेखर ने कहा कि वह इला को पसंद करता है और उसी से विवाह करना चाहता है।

         इला शेखर के मित्र प्रभात की ममेरी बहन थी जो दिल्ली में ही रहती थी।प्रभात अपने मामा के पास रहकर ही पढ़ाई कर रहा था।नोट्स लेने-देने के लिये शेखर वहाँ जाता था,तभी इला से उसकी मुलाकात हुई थी।इला देखने में सुंदर और स्वभाव की सुशील थी।उसने विज्ञान में बीएससी किया था।धनपत जी और जानकी को इला पसंद आ गई।उन्होंने शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह कर दिया।

        कुछ दिनों के बाद शेखर दिल्ली चला गया परन्तु  इला सहारनपुर ही रह गई।धनपत जी भी रिटायर हो चुके थे।सुबह-सुबह बहू के हाथ की चाय पीकर सैर को निकल जाते और फिर सास-बहू बातें करती हुई घर का काम निपटाने में व्यस्त हो जाती।दोपहर में इला अपनी सास के पैरों में मालिश कर देती तो वो तृप्त हो जाती थीं।अपने पति से कहती,” हमने कुछ पुण्य करम किये थें जो ऐसी गुणी और संस्कारी बहू मिली है।” सुनकर धनपत जी मुस्कुरा देते थें।

      महीने भर बाद शेखर आया और दो दिन रहकर इला को साथ लेकर जाने लगा तो जानकी जी बहू को गले लगाकर बहुत रोईं।धनपत जी की भी आँखें गीली थी,इला के साथ बेटी-सा लगाव जो हो गया था।

      दिल्ली आकर कुछ दिनों में इला ने अपना घर सेट कर लिया।एक दिन के लिये अपने मायके भी हो आई।फिर शेखर को बोली कि कुछ दिनों के लिये माँ-पापाजी को बुला लें तो कैसा रहेगा? जवाब में शेखर बोला,” मैं भी यही चाहता हूँ।कल ही जाकर उन्हें अपने साथ ले आता हूँ।”

     बेटे का बड़ा बँगला,गाड़ी और नौकर-चाकर देखकर जानकी जी बहुत खुश थीं।शेखर उन्हें लेकर जहाँ भी जाता,सभी उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करते।इला ने भी अपने सास-ससुर की सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।महीने भर बाद दोनों प्राणी वापस सहारनपुर आ गये।

     जानकी जी ने दोनों बेटियों को शेखर के बारे में बताया तो दोनों बहुत खुश हुईं।मंजू बोली कि अबकी राखी मैं उसके घर पर ही मनाऊँगी।

      रक्षाबंधन से दो दिन पहले ही मंजू अपने तीन साल के बेटे यश के साथ दिल्ली पहुँच गई।उसके आव-भगत में इला ने कोई कमी नहीं की।लेकिन न जाने क्यों..शेखर की तरक्की देखकर मंजू को ईर्ष्या होने लगी थी।वह बात-बात पर इला को टोक देती, उसके कामों में गलतियाँ निकालती ताकि इला क्रोधित हो और तब शेखर से इला की शिकायत करे।इला मंजू के नकारात्मक व्यवहार को समझ रही थी लेकिन उसने शेखर से कभी इसका ज़िक्र नहीं किया।

        इसी बीच इला के पिता बाथरूम में फिसल गये जिसकी वजह से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी।वो हाॅस्पीटल में एडमिट थें।इला ने मंजू से कहा तो वह बड़े प्यार-से बोली,” तुम बेफ़िक्र होकर हाॅस्पीटल जाओ…यहाँ मैं हूँ…सब संभाल लूँगी।” 

  ” थैंक्स मंजू दी…।” कहकर वह हाॅस्पीटल चली गई और इधर मंजू ने अपनी माँ को फ़ोन कर दिया,” मम्मी….कैसी कुसंस्कारी बहू है आपकी…मुझे घर में अकेला छोड़कर अपने मायके में गुलछर्रे उड़ा रही है…और माँ..दिन-दिन भर वह बाहर ही रहती है…बेचारा मेरा भाई…कुछ नहीं कह पाता…।

  ” ये तू क्या कह रही है मंजू!…हमारी इला ऐसी तो नहीं है।और तू शेखर के…।” जानकी जी बात अधूरी रह गई क्योंकि फ़ोन धनपत जी के हाथ में था,” बोल मंजू…क्या बात है?”

   ” पापा…यहाँ मेरी कोई कदर नहीं है।शेखर और उसकी पत्नी तो मुझे अकेले छोड़कर न जाने…।” जो दिल में आया, मंजू ने नमक-मिर्च लगाकर पिता को कह दिया।सुनकर धनपत जी उबल पड़े,” तू वहीं ठहर….हम पहली बस पकड़कर आते हैं और उनकी खबर लेते हैं…।”

   ” पापा…अब मैं यहाँ नहीं रुक सकती…रात की ट्रेन से वापस जा रही हूँ।आप आकर सब देख लीजिये।” कहकर मंजू ने फ़ोन डिस्कनेक्ट किया और शेखर के आते ही उसने अपने जाने की घोषणा कर दी।शेखर ने रोकना चाहा तो मुस्कुराते हुए बोली,” अरे..तेरे जीजाजी वहाँ अकेले है ना।”

  मंजू ने पिता के आने की जानकारी शेखर को नहीं दी थी।अगले दिन माँ-पापा को अचानक देखकर शेखर और इला चौंक पड़े।कुछ पूछते …उससे पहले ही धनपत बाबू फट पड़े,” तुम पढ़-लिखकर घर के संस्कार भूल गये हो..बड़ी बहन का अपमान करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई…इला के व्यवहार से दुखी होकर ही मंजू यहाँ से गई है।तेरी पत्नी ने अपनी ननद को बोझ…वगैरह-वगैरह।” अपना भड़ास निकालकर धनपत बाबू पैर पटकते हुए कमरे में चले गये।

       जानकी जी पानी का गिलास लेने के लिये डाइनिंग टेबल तक आईं तो उन्हें सुनाई दिया कि शेखर कह रहा था,” इला…तुमने मुझे पापा को सच बताने क्यों नहीं दिया।”

 ” पापा गुस्से में थें।तुम्हारी बात वो सुनते नहीं।पिता-पुत्र के बीच बहस होती जो संस्कारहीनता कहलाती।कल आराम से उनसे बात करोगे तो वे ज़रूर हमारी बात को समझेंगे…।” जानकी जी इतना तो समझ गई कि उनके बच्चे निर्दोष हैं।कमरे में आकर वह चुपचाप लेट गईं।

      अगली सुबह डाइनिंग टेबल पर कोई बात नहीं हुई।चाय लेकर शेखर कमरे में गया तो माँ को जाते रोक लिया और बोला,” पापा…हमने दीदी का कोई अपमान नहीं किया है।तीन दिन पहले इला के पापा…।” उसने सारी बात अपने पापा को बताई और कहा,” पापा…इला की बड़ी बहन प्रेग्नेंट हैं,वो आ नहीं सकतीं।ऐसे में मैं भी उन्हें अकेला छोड़ देता तो पापा…,आपका बेटा संस्कारहीन कहलाता।फिर पापा…आपने ही तो मुझे सिखाया है कि दूसरों के काम आना ही मानवता है।फिर इला के पापा तो अपने ही….।”

” बस कर बेटा….अनजाने में मैंने तुम दोनों को न जाने….साॅरी बेटा…।मेरे बच्चे कभी संस्कारहीन हो ही नहीं सकते।इस मंजू को भी न जाने क्या हो जाता है…सबको परेशान करती रहती है।अच्छा.. , अब समधी जी कैसे हैं? हम चलकर मिल लेते हैं।”

    ” ज़रूर पापा…मैं ऑफ़िस जा रहा हूँ..आप लोग इला के साथ चले जाइयेगा।”

  तब जानकी जी बोलीं,” मैं तो पहले से ही जानती थी कि मेरे बच्चे अपने संस्कारों के विरुद्ध कभी कोई काम नहीं करेंगे। इस मंजू की तो मैं अभी खबर लेती हूँ।” 

” रहने दीजिए न माँ….दीदी से हम बात कर लेंगे।आप तो बस चाय पीजिये…।” मुस्कुराते हुए इला ने सास को चाय का प्याला थमा दिया।

                             विभा गुप्ता

# संस्कारहीन            स्वरचित 

            कभी-कभी अपने ही अपनों की तरक्की से ईर्ष्या करके उन्हें संस्कारहीन ठहरा देते हैं।इला की ननद से यही गलती हुई थी।ऐसे में शेखर और इला ने बड़ी समझदारी से काम लिया जिससे सारी गलतफ़हमियाँ दूर हो गई।

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