“संगम” – गोमती सिंह

अप्रैल का महीना था यानि भीषण गर्मी उस पर दोपहर का समय था ।

खाना खाने के बाद वह आराम कर रही थी ।कमरा पूरा एयरटाइट था ।क्योंकि अंदर ए सी चल रहा था ।और वह उस भीषण गर्मी से अंजान बङे ही मजे से व्हाट्सप में मैसेज का आदान प्रदान कर रही थी।

              तभी  गेट खटखटाने की आवाज आई ।तब उसका दिमाग सनक गया, ये कलमूही गंगा आ गई होगी व्हाट्सप में फेमिली ग्रुप में हास -परिहास का आदान प्रदान गहमा-गहमी में था , इसलिए इस वक्त उस गंगा का यूँ डिस्टर्ब करना उसे सहन नहीं हुआ ।और वह झल्लाते हुए दरवाजा खोलने चली गई ।उसकी झल्लाहट सुनकर बगल में आराम कर रहे उसके पति महोदय ने उस व्हाट्सप  वाली महिला पर खिझने लगे–ऐसा क्यों चिल्ला रही हो मीरा ! बेचारी इतनें धूप में जूठन साफ करनें तो आई है ।तुमसे कर्जा लेने नही  आई है ।

            ।जाओ उसे सप्रेम अंदर लाओ ।आप तो चुप रहिये जी सोये हैं ब्लांकेट ओढ़कर और बात करते हैं । फिर वह दरवाजा खोलने चली गई ।बाहर गंगा बाई खङी थी।आखिर मीरा भी इंसान थी भीषण गर्मी का अंदाजा उसे भी था।

          वह मजाकिया लहजे में कहने लगी क्यों री गंगा तुम्हे आराम करना अच्छा नहीं लगता! क्यों इतने धूप में चली आती हो ; इतना वाक्य सुनकर गंगा का मन आत्मा से रोने  लगा

उसके मन में आया कि कह दूँ इस आराम तलब महिला से हमारी झोपड़ी में क्या धूप और क्या छाया । मगर उसने सेकण्ड मात्र में अपनी आंतरिक भावना का रूपांतरण कर लिया


               और कहने लगी – नहीं नहीं दीदी कई घरों में करना रहता है  न इसीलिए जल्दी निकलना पङता है ।

                फ़िर गंगा किचन का बर्तन पीछे आँगन में ले गई

           और चिलचिलाते धूप में बर्तन मांजने लगी ।और वही कोने में लगी गुङहल के पेड़ से धूप छनकर उस कर्मठ महिला के उपर पङने लगी ।

           मानों प्रकृति उस कर्मठ गंगा नाम की शक्ति को सुनहरे जेवरात से सजाने लगी हो ।और

पत्तियां मंद-मंद हिलने लगी

      ” तब प्रकृति और शक्ति का अद्भूत संगम नजर आने लगा ।”

              “गोमती सिंह “

          छत्तीसगढ़

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