सफ़र – कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

कविता क्या कर रही हो कहते हुए सुलेखा ने कमरे में कदम रखा।और जैसे ही उन्होंने कदम रखा वो छुटकर पैर छूते हुए कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।वो बैठी ही थी कि राम आ गया तो इसने शिकंजी का गिलास पकड़ाते हुए कहां ये लीजिए।

पर उसका मुंह देखने लायक था।

जिसे देख वो सोचने पर मजबूर हो गई कि क्या ये वही राम है जो कभी उसकी गोद में खेला करता था और जैसे जैसे बड़ा होने लगा उसके स्वभाव में परिवर्तन आने लगा।

एक ऐसा परिवर्तन जिसे समझना सबके बस की बात नहीं है।

हां सच बढ़ती उम्र के साथ वो चुप गुम सा रहने लगा बहुत जरूरी होता तभी इसकी आवाज सुनाई पड़ती,वरना स्कूल से घर और घर से स्कूल बस और बस पढ़ाई करता ।

अब दीमाग का तेज तो था ही कक्षा में हमेशा प्रथम आता‌

जिससे सभी घर वाले बहुत खुश रहते।

पर कहते हैं ना कि मोहब्बत किसी को नहीं छोड़ती।इसे भी कब कैसे एक लड़की से प्यार हो गया खुद ही न समझ पाया।

पर किसी को कानों कान खबर न हुई।

जब पढ़ लिखकर नौकरी करने लगा तो ब्याह की भी बात मां बाप सोचने लगे।

जब सोचने लगे तब इसने अपने मन की बात बताई।

जिसे सुन सब अवाक रह गए।

पर जिद्द ये की हम उसी से करेंगे जिसे चाहते हैं।




तो मां बाप को भी उसके आगे झुकना पड़ा।

और एक लम्बे इंतज़ार के बाद  बचपन के प्यार को पवित्र बंधन में बांधना ही पड़ा।

खैर तमाम विवादों के बाद शादी तो किसी तरह हो गई।

पर समस्या उसके स्वभाव को लेके थी कि कैसे सामंजस्य बैठाएगी। क्योंकि कभी कभी मिलने की बात अलग होती है पर एक पूरी जिंदगी बिताने में बहुत कुछ देखना पड़ता है।पड़े भी क्यों न , एक तो ये अंतर्मुखी ऊपर से गुस्सेल और चिड़चिड़ा।जिसकी वजह से सभी परेशान रहते थे।

पर इसने  आकर उसे एक जिम्मेदार और खुश मिजाज़ इंसान बना दिया।

सच उसने प्रेम से पत्नी तक के सफर को बखूबी निभाया।

जो कि आज साफ दिख रहा।

खुद नहीं पी थी पर पति के लिए शिकंजी के भरा गिलास पकड़ाया।

और मेरे साथ बैठने को कहके खुद रसोई में चाय और पकौड़ी बनाने चली गई।

ये देख वो उठी और रसोई में पकौड़ी बना रही कविता के पास जाकर बोली ।

तुमने तो घर को संभाल लिया।

जिस तरह तुमने प्रेमिका से  पत्नी तक का सफर इतनी सहजता से निभाया।कि किसी को तुम लोगों के बीच कभी खटपट भी होती है पता न चला।

उसी तरह हर स्त्री को निभाना चाहिए।

नारी जाति के लिए आदर्श हो तुम।

अच्छे के साथ तो सभी निभा लेते हैं बुरे के साथ निभाए तो जानों।

और माथे को चूम गले से लगा लिया।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

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