प्रायश्चित – डाॅ उर्मिला सिन्हा   : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : नीले व्योम के वक्षस्थल को चीरता एअर इंडिया का विमान द्रुतगति से सात समुंदर पार जा रहा है। सभी यात्री अपने आप में खोये हुए हैं। गोमती भी अपने सीट पर निर्विकार भाव से बैठी तो है परन्तु उसका मन पाखी यादों की पंख लगाए उड़ाने भर रहा है। अतीत की ओर।सुख दुःख के भोगे हुए क्षण बारी बारी से डंक मार जा रहें हैं।

              “काकी चिट्ठी”।

  विदेशी लिफाफे में बंद चिट्ठी अंदर ही अंदर डगमग कर रही है।मजमून बाहर आने के लिए बेताब हो रहे हैं। गोमती तुलसी चबूतरे पर घी का दीपक जलाएं संध्या वंदन में लगी है। मंत्रों की गुनगुनाहट साफ सुनाई दे रहा है।

   “काकी चिट्ठी तुम्हारे नाम की…. सच्ची…”हांफती दौड़ती छोटी दाहिने हाथ में लिफाफा लिए जल्दी से जल्दी गोमती तक संदेशा पहुंचाना चाह रही थी।

  “चिट्ठी मेरे नाम की”होंठों से निकला।हाथ जुड़े थे ईशवंदना में पर होंठ फड़फड़ा रहे थे घोर आश्चर्य के साथ। छोटी के बातों की सच्चाई मापने के लिए आंखें अपने आप खुल गई।

       पिंजरे में बंद सुग्गा “चिट्ठी, चिट्ठी”बोलने लगा। चतुर्दिक दिशा से चिट्ठी, चिट्ठी का स्वर गूंज उठा।

   “चिट्ठी मेरे नाम —कहां से…..”गोमती की आंखें फैल गई।

       जिज्ञासा आतुरता में बदल गई। गोधूलि बेला में तुलसी चबूतरे का दीपक झुप झुप करने लगा। शायद उसे भी चिट्ठी में लिखित संदेशा सुनने की बेताबी थी।

            “खड़ी क्यों है पढ़ती क्यों नहीं”अनपढ़ गोमती की आतुरता बढ़ने लगी।”कौन है मेरा विदेश में । किसने याद किया मुझे”उसका दिल धक-धक करने लगा।

      छोटी पत्र की पंक्तियां पढ़ती जाती और इधर गोमती के मुखमंडल पर उतार चढ़ाव होने लगा। उहापोह की एक स्पष्ट छाप उसके मुखड़े पर छा गई। होंठों पर विषाद की रेखा खींच ग‌ई। चेहरा कठोर हो उठा।

     ‌कुछ क्षण पहले जिस चेहरे पर ईश्वर वंदना की सात्विकता थी अब वहीं एक पाषाण कठोरता व्याप्त थी।

      गोमती हाथ में चिट्ठी पकड़ धम्म से ओटाले पर बैठ गई । पिंजरे में सुग्गा, लिफाफे में चिट्ठी और उसका निषपन्द, बेजान हृदय आकुल व्याकुल फड़फड़ा उठा।

     क्या करें गोमती , इस चिट्ठी को फाड़कर कुडेदान में फेंक दें या अपना सिर पटक कर रोने लगे।वह विक्षिप्त सी हो गई । सोचने-समझने की शक्ति जबाब देने लगी।

छोटी गांव भर में बेतार के तार की तरह खबर पहुंचा आई।”गोसाईं बाबा की चिट्ठी आई है काकी के नाम।”

“वे सख्त बिमार हैं।” 

“काकी को बुलाया है”! टिकट भेजा है।”

   काकी जायेंगी सात समुंदर पार। हवाई जहाज से। पास-पड़ोस उत्सुकता पूर्वक ताक झांक करने लगे।

गोमती निश्चल पाषाण प्रतिमा बनी हुई थी। इसी एक चिट्ठी के आसरे में उन्होंने अपनी पूरी जवानी काट दी। तुलसी चबूतरे के दीप की तरह तिल तिल कर जलती हैं वे। रात रात भर आंसू से अपने आंचल भिंगोये हैं। चिंता और इंतजार में इतने स्वर्णिम वर्ष निकल ग‌ए। और अब जबकि वे अपनी सारी लालसाओं, कामनाओं पर विजय प्राप्त कर चुकी हैं तब यह संदेशा उनके शांत जीवन में पुनः उथल-पुथल मचाने आ गया है। उनकी अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष के दिन बीत चुके हैं तो यह बुलावा।लानत है ऐसे बुलावे पर।

         “नहीं जायेंगी वे किस के पास जायें?”

“आज सुधि आई है मेरी जब बिमार पड़े हैं, सेवा करने के लिए!”वे देर तक आंसू बहाती रहीं।अश्रु प्रवाह में दिल की कटुता और जमाने की थी हुई पीड़ा विगलित होने लगी।

    विमान किसी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर रूका है । गोमती वर्तमान में लौट आई। विमान पुनः उड़ान भरने लगता है। साथ ही उसका मन पाखी स्वर्ण पिंजर तोड़ नीले आकाश में उड़ने के लिए बेताब। पुरानी स्मृतियां सप्रसंग याद आ रही है।

    ‌गोमती की बारात आई है ।”वर कैसा सुंदर है।”

  “हाय हायआंखे ऐसी बड़ी बड़ी”…… सहेलियां चुहलबाज़ी करने लगीं।

वह सहेलियों की चुटकी पर खीझती पर मन ही मन भावी जीवन की सुखद कल्पना में कोई सी।

   ससुराल में बहुप्रवेश के समय सुहागिनों का मंगल गीत,सास परिहास ,चुहल वातावरण को मादक और रंगीन बना रहा है। ससुराल के नाम से आशंकित गोमती का भय धीरे धीरे कमाने लगता है।स्नेहमयी सास , आदरणीय ससुर और प्यारा सा पति । कितना सुखी संसार है उसका। सहेलियां उसके भाग्य पर रश्क करतीं।

    उसकी सास उसे सजा संवारकर रखती उसे वे बहुत चाहती थी। “कौन सी मेरी दो चार औलादें हैं, एक ही तो है जो अरधा श्रृद्धा पूरी करनी है इसी से तो….”/

सास खुश होकर कहती तो गोमती के गोरे गाल सुर्ख हो उठते।अति रूपवती गोमती नुपुर छनकाती सारे घर में बोलती फिरती।लाल पीले चुड़ियों की खनक मधुर ध्वनि पैदा करती।

      उसका पति श्रीधर इधर रोज देरी से घर आने लगा है। कभी कभी तो दो दो दिनों तक घर से गायब रहता। वापस आता तो भांग या गांजे के नशे में चूर।भोली गोमती के समझ में कुछ नहीं आता।

  सास ससुर एकांत में श्रीप्रसाद को बहुत समझाते , रोते गिड़गिड़ाते । कुछ वाक्य झटके से उसके कानों में पड़ने लगी।”इतनी सुन्दर, सुशील बहुत लाभ दिया । अब तुम उसमें मन लगाकर घर गृहस्थी में ध्यान दो।साधु महात्मा के फेर में अपने साथ साथ सभी का सर्वनाश कराओगे।”

  “भांग और नशे की लत”वह सन्न रह गई।

  श्रीप्रसाद के वीतरागी मन को न वर्जनाएं बांध पाई और नहीं उसका रूप रंग। वह तटस्थ रहता। पत्नी को पैरों की बेड़ी समझता।

  “मैं संन्यास लेना चाहता था पर मेरे मां बाप……”

“तुम सुंदर हो तो क्या तुम्हारी आरती उतारूं…..”!

अरे दिन इस तरह के उलाहनों से घर की शांति भंग होने लगी।इस दरम्यान वह काफी समझदार हो गई थी।साधु संतों से मन फेरने के लिए उसे व्याह कर लाया गया।उसे बलि का बकरा बनाया गया। उसका पति सांसारिक बंधन,माया जाल कभी भी एक झटके से तोड़ सकता है । वह अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत हो उठीं। किंतु उसके प्यार, मनुहार का श्री प्रसाद पर कोई असर नहीं हुआ और एक दिन पूरे परिवार को निंद्रा के आगोश में छोड़ उसी साधु मंडली के साथ गृह त्याग गया।

  उसपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा।श्रीप्रसाद के माता-पिता का बुरा हाल था। पुत्र की खोज उन्होंने कहां कहां नहीं करवाया। जहां भी साधु-संतों का गढ़ होता स्वयं जाते या किसी को भेजते। मठाधीशों की चिरौरी करते, मुंह मांगी कीमत देने की पेशकश करते मगर सर्वत्र निराशा ही हाथ लगी।वे लुटे पिटे जब घर लौटते तो पत्नी ,बहु का दिल दहला देने वाला रूदन उनका रूधिर जमा देने के लिए प्रर्याप्त होता।पास पड़ोसियों की कानाफूसी, व्यंग्य बोल तीनों को छलनी कर देता।श्रीप्रसाद के माता-पिता असमय ही वृद्ध हो चले।शरीर जर्जर और आत्मा आहत। निसंतान माता-पिता ने कितने देवी देवताओं की पूजा की, मनौती मानी, झाड़ फूंक कराया ।अंत में डाक्टरी दवा कराई तब जाकर पुत्र प्राप्ति हुई। पुत्र भी अति रुपवान। भव्य ललाट, तीखी नासिका, गौरवर्णीय पुष्ट शरीर,काले घुंघराले बाल, चौड़ी छाती। परंतु स्वभाव से धार्मिक और अकर्मण्य।

उसी पुत्र को सांसारिक बंधन में बांधने के लिए अति रूपवती बहु लाए पर सब बेकार।होहिं वही जो राम रचि राखा।

वे तो माता-पिता हैं।सारा जीवन तो गोमती का पड़ा हुआ है वे कबतक पहरेदारी करते रहेंगे। कुछ ऊंच-नीच हो गया तो।किसका मुंह देख जियेगी वह। इसी चिंता में उन्होंने खाट पकड़ लिया।सारा क्रोध बहु पर उतरता। जिसके रूप की बलैया लेते सास थकतीं न थी।दिन में चार बार सरसों मिर्ची से नज़र उतारती थी। वहीं उन्हें आज सर्वनाश का कारण लगने लगी। पति को बांधे रखने में उसकी अक्षमता पर वे उसे अपशब्द भी कह उठते। बेचारी गोमती पतिविहीन वृद्ध सास-ससुर की सेवा भी करतीं और गालियां भी सुनतीं। उसकी मनोदशा की परवाह किसी को भी नहीं थी। हताशा और घुटन ही उसका साथी था। परित्यकता की कहीं कोई मर्यादा नहीं।

गिरिजा घर में बारह बजे का घंटा बजा। गोमती की तंद्रा भंग हुई। चिट्ठी जमीन पर लोट रहा था।।

उन्होंने मन ही मन कुछ निर्णय लिया वो जायेगी और जरूर जायेंगी। वे इतनी हृदय हीन, अमर्यादित नहीं है जो किसी अशक्त के निमंत्रण को ठुकरा दें।

  सुबह सवेरे गांव वालों के जगने के पहले वे विदेश यात्रा पर निकल चुकी थी।वे लोगों के पैने सवालों से क्षत विक्षत नहीं होना चाहती थी।

वीसा, जरूरी कागजात एवं अन्य औपचारिकताओं की उलझनों से निपटतींअंतत वे गंतव्य की ओर रवाना हो गई।

विदेश की धरती पर कदम रखते ही वह रोमांचित हो उठी।श्रीप्रसाद किसी भारतीय आध्यात्मिक संस्था के आश्रम प्रमुख थे। उनके शिष्य गोमती को आदर सहित आश्रम ले आए।आश्रम में प्रवेश करते ही गोमती को अद्भुत शीतलता का अहसास हुआ।

“आओ मैं तुम्हारा ही प्रतिक्षा कर रहा था।”अस्थि-पंजर फैला हुआ हाथ। गेरूआ चोंगे में उसके पति। आवाज में वही मधुरता थी परन्तु बुलंदी का सर्वथा अभाव था। लम्बा चौड़ा मांसल शरीर नर कंकाल प्रतीत हो रहा था। कोटरों में धंसी आंखें जो कभी सुंदरता का मिसाल था। गुलाबी होंठ काले पड़ गये थे।गंजा सिर। गोमती के मन में पति के युवा वस्था की मोहक छवि बसी हुई थी। अतः वे पति की दारूणदशा देख 

कांप उठी।

  गोमती ने पति और समाज के दिए हुए जख्मों को झेला था।”राह तो मैं भी तकती रही तुम्हारी ताउम्र।सावन की झूलों में, सर्दी की रातों में, गर्मी की दोपहरी में।जब मुझे तुम्हारी बलिष्ठ बाहों की जरूरत थी। इस महिषासुरी दुनिया में तुम्हारे देवोपम व्यक्तित्व की शीतलता की चाह थी उस समय तो तुम मुझे विरहा की भट्टी में झोंक आये।”विषैली स्मृतियों के दावानल से मन प्राण भस्म हो रहा था। लेकिन हृदय का झंझावात गोमती के आंखों को सूचना और वाणी अवरुद्ध कर दिया। सिर्फ सिर हिलाकर रह गई।

“रास्ते में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई”।

इतनी चिंता मेरे लिए ।”नहीं कोई खास नहीं।”

  पति  चाहे जिस आवेग में संन्यास ग्रहण किया, माता-पिता, पत्नी का त्याग किया। गोमती के नजरों में अक्षम्य अपराध है।उसके हृदय में वही कड़वाहट था परन्तु पति के शीतल स्पर्श ने उनमें एक सात्विक अनुभूति भल दिया।रोम रोम दिव्य प्रेम की अनुपम भावना से तुलसी मंजरी की भांति सुवासित हो उठा। कलेजे में इतने वर्षों की जमी व्यथा वर्फ की तरह पिघलने लगी।

“मैं सच कहता हूं जब से रोग ने इस नश्वर शरीर को लपेटे में लिया है ,तुम्हारी मनोहारी छवि आंखों के सामने नाचता रहता है। मैं तुम्हारा दोषी हूं। मुझे जो चाहो तुम सजा दो इतने वर्षों की त्याग तपस्या, ईश्वर साधना सब छलावा है। अपने जन्म की सार्थकता पर जब भी विचार करता हूं तो पाता हूं यह जन्म निरर्थक ही गया। मैं संसार से भागता रहा। माता-पिता के कर्तव्य पालन से मुंह चुराया। पत्नी त्याग को अपनी बहादुरी समझता रहा। मुझे जीवित रहने का कोई हक नहीं है।”निर्बलता से वे हांफने लगे।

  “तुम्हारी आंखों की मादकता, लंबे बालों को पापों का फंदा समझता था। तुम्हारे माथे की लाल बिंदी मुझे पाप का गोला दिखाई देता था। जीवन के आखिरी दिनों में जब मैं तुम्हें कोई सुख देने योग्य नहीं रहा, उन्हीं विम्वो में अटका हुआ हूं।क्षमा…क्षमा देवी……हे प्रभु मेरे अशांत चित को शांति दो …”वे बेचैनी से करवटें बदलने लगे।

“मैं ने संन्यास के कठोर नियमों का पालन किया। कभी कोई कुत्सित विचार मन में आने नहीं दिया। कितने युवाओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बना। परंतु यह अहसास कि मैं ने अपनी पत्नी माता-पिता के साथ छल किया, विश्वास घात किया मेरी सारी तपस्या नष्ट करने हेतु पर्याप्त है। गोमती मुझे प्रायश्चित का एक मौका दो।”उन्होंने दोनों हाथ जोड़ दिया।

   आशा और निराशा की आंख-मिचौली अनवरत जारी था।वह आज तक परित्यकता, पीड़िता थी परन्तु आज उसका पति उसके समक्ष प्राथी बना क्षमायाचना कर रहा है। अपमान की कठोरता मधुरता में विलीन होने लगी।वह चैतन्य हो, उमड़ते आंसुओं को अंदर ही अंदर पी,पति के सिरहाने बैठ उनका सिर सहलाने लगी।

आश्रम के बाहर भक्तों की भीड़ शोर मचा रही है। स्वामी जी के प्रवचन का समय हो गया है। विदेशी धरती पर संस्कृत के श्लोक निरंतर गूंज रहा है। एक अवर्णनीय पवित्रता चारो दिशा में व्याप्त है।

सर्व मंगल मांगल्ये,शिवे सर्वार्थ साधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरी,नारायणी नमोस्तुते।।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ  उर्मिला सिन्हा©®

#पश्चाताप

VM

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