पश्चाताप की अग्नि – आरती झा आद्या  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : बाल सुधार गृह में बेटे दिव्यांश से मिलने गई मालिनी बेटे को देख विचलित हो गई थी। गौरवर्ण दिव्यांश एकदम कोयले की तरह काला हो गया था और दुबला पतला ऐसा हो गया था कि पहचान में नहीं आ रहा था। मिलने का समय खत्म होते ही और दिव्यांश के वहाॅं से हटते ही मालिनी फूट फूट कर रो पड़ी। बगल में खड़ा पति श्रीमंत चाह कर भी पत्नी को सांत्वना नहीं दे पा रहा था। आखिर उसके और उसके माता पिता की जिद्द का नतीजा ही तो मालिनी और दिव्यांश भोग रहे थे।

कितना मना करती थी मालिनी कि दिव्यांश को एक सामान्य बच्चे की तरह जिंदगी के थपेड़े समझने दो। लेकिन शहर के सबसे बड़े और प्रसिद्ध हलवाई में शुमार होने वाले श्रीमंत और उसके माता पिता मालिनी की यह कहकर खिल्ली उड़ाते थे कि मध्यम वर्ग के लोग क्या जाने जीवन क्या होता है। वो तो बस कुॅंआ खोदो और पानी पियो ही जानते हैं, ये कहकर तीनों जोर के ठहाके के साथ उसका मजाक बनाया करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि दिव्यांश के मन में भी मालिनी के लिए ऐसी ही भावना आती चली गई। 

श्रीमंत को याद आया दिव्यांश का वो बारहवां जन्मदिन था और उसके बाबूजी ने विद्यालय में दावत करने के लिए दिव्यांश को तीन हजार रुपए दिए थे, जिसका मालिनी ने पुरजोर विरोध किया था कि बच्चों को पैसों की लत लगाना सही नहीं है, वो भी उस उम्र में जब सही गलत का कोई ज्ञान ही न हो। लेकिन बाबूजी ने क्या वह खुद भी तो उसकी बात पर कान दिए बिना निकल गया था। फिर तो नित्य दिन का सिलसिला चल निकला, दिव्यांश को किसी न किसी चीज के हर वक्त पैसे चाहिए होते थे और उसे मिलते भी थे, मालिनी के अलावा इस पर कोई ऐतराज जताने वाला भी तो नहीं था। 

एक दिन इन सब से तंग आकर मालिनी उसके लिए बोर्डिंग स्कूल का फॉर्म ले आई थी। कम से कम वहाॅं और बच्चों के साथ सही गलत तो समझेगा। लेकिन इस बात पर घर में जो हंगामा हुआ, वो मालिनी को यह समझाने के लिए काफी था कि उसे सिर्फ दिव्यांश को जन्म देने का अधिकार था, बाकी कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं है और बच्चे को खुश नहीं देख सकती तो घर से जाने के लिए दरवाजे हमेशा खुले हैं। इसके बाद दिव्यांश और चौड़ा हो गया। मालिनी की इज्जत करना तो उसने कभी सीखा ही नहीं था, अब तो जब देखो तब बदतमीजी पर उतारू रहता था। मालिनी चुप होकर रह गई थी, यूॅं लग रहा था जैसे इस घर में वो है ही नहीं। चुपचाप सब कुछ देखती और कमरे में जाकर ऑंसू बहा आती। लेकिन थी तो माॅं ही वो, दिव्यांश के सोलहवें जन्मदिन पर मोटरसाइकिल देने की माॅंग का वो प्रतिकार कर बैठी, जिसका नतीजा था कि  

दिव्यांश ने उसे अपनी माॅं मानने से ही इंकार कर दिया। उस दिन श्रीमंत पहली बार आहत हुआ था, लेकिन थोड़ी देर के लिए ही। बाइक देखकर दिव्यांश के चेहरे पर जो खुशी आई , उसे देख वो मालिनी के उन अपमानजनक क्षणों को भूल गया। 

दिव्यांश की उद्दंडता बढ़ती ही जा रही थी। हर जगह से सिर्फ उसकी शिकायतें ही आती थी। कई बार पुलिस पकड़ कर भी ले गई, लेकिन अपने रसूख के दम पर दादा और पिता उसे बचा लाते। दिव्यांश के लिए जिंदगी खेल खिलौने से ज्यादा नहीं रही थी। ऐसे लोगों के दोस्त भी वही बनते हैं, जिन्हें अपना मतलब सीधा करना होता है। दो तीन अय्याश किस्म के लड़कों से उसकी दोस्ती हो गई, जो दिन भर उसके कशीदे गाते और ऐश करते थे। बिगड़ा हुआ तो पहले से ही था , अब अनैतिक कार्यों में भी लिप्त रहने लगा था। शराब और ड्रग्स के बिना तो उसका खाना भी हजम नहीं होता था। ये सब देखकर भी श्रीमंत और उसके माता पिता ऑंखों वाले अंधे बने हुए थे। दिव्यांश के मोह में इस कदर अंधे हो गए थे कि उसका विनाश अपने ही हाथों लिख रहे थे, इसका उन्हें भान भी नहीं था। 

उस शाम अंधेरा गहराने लगा था, सभी घर से बाहर थे, मालिनी भी किसी परिचित को देखने अस्पताल गई हुई थी। दिव्यांश अपने उन दोस्तों के साथ घर आया था, सबने जम कर शराब पी, ड्रग्स लिया और बातों बातों में दादाजी के कमरे से लाइसेंसी रिवाल्वर निकाल लाया और हो हंगामा करते सभी दो बाइक पर बैठ निकल गए। घर से निकल कर सड़क के मोड़ पर जैसे वो लोग पहुॅंचे कूड़ा बीनता हुआ एक लड़का दिखा और दिव्यांश को जाने क्या सूझा , उसने रिवाल्वर उसकी तरफ तान कर गोली चलाया। उसी समय एक गाड़ी भी वही आकर रुकी और हतप्रभ सी मालिनी उससे हड़बड़ा कर निकली।

“ये क्या कर दिया तूने।” दिव्यांश को देखते ही मालिनी चिल्लाई।

“मैंने मैंने नहीं मारा इसे, मैंने तो सिर्फ इसे डराने के लिए रिवाल्वर निकाला, पता नहीं गोली कैसे चल गई।” दिव्यांश का नशा काफूर हो चुका था, साथ ही उसके तीनों दोस्त उसे छोड़ एक ही बाइक पर सवार होकर उड़ चुके थे।

गोली की आवाज से और घरों के लोग भी निकल आए थे और किसी ने पुलिस को कॉल कर दिया था। उसी समय रोते बिसूरते दिव्यांश को पुलिस अपने साथ ले गई और अब दिव्यांश बाल सुधार गृह में है। घर वालों का एड़ी चोटी का जोर लगाना किसी काम नहीं आ रहा था। कल दिव्यांश की पेशी है, बिस्तर पर बैठी दीवार को घूरती मालिनी को देख श्रीमंत पश्चाताप की आग में जल रहा था, श्रीमंत कमरे के बाहर जाकर किसी से कॉल पर बात करने लगा।

“मैंने उसे जानबूझकर नहीं मारा था, वो हमारी बाइक के सामने आकर हमें पत्थर मारने लगा तब बस उसे डराने के लिए मैंने रिवाल्वर निकाला था और हड़बड़ी में वो चल गई।” दिव्यांश अपने दोस्तों की ओर देखता कोर्ट में वो बता रहा था, जो उसके वकील ने कहा था।

शर्म नहीं आती तुझे, एक मरे हुए इंसान के ऊपर झूठा आरोप लगाते। तूने खेल खेल में एक गरीब की जान ले ली, खुद मैंने देखा ये और तू झूठ पर झूठ बोले जा रहा है। तेरे साथ साथ तेरे खानदान वालों को भी सजा मिलनी चाहिए। ये सजा सिर्फ तेरे लिए नहीं, इन सब के लिए है।” दिव्यांश की बात सुनकर मालिनी झटके से उठी और दिव्यांश के पास जाकर एक थप्पड़ मारती हुई कहती है और लाल हो गई ऑंखों के साथ जोर जोर से हॅंसने लगी बेहोश हो कर वही गिर गई।

चिकत्सकों के अनुसार मालिनी सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी और कोमा में चली गई थी। 

“जिसका मुझे मान बनना चाहिए था, उसे मैंने खुद मान विहीन कर दिया। जिस बेटे के डगमगाते पैरों को मुझे थामना था, अहंकार में चूर होकर उसे और डगमगाने दिया,

अपने ही हाथों मैंने अपना घोंसला बरबाद कर दिया।” अस्पताल में मालिनी के पास बैठा श्रीमंत एक ओर बेटे की जिंदगी और भविष्य दांव पर लगते देख रहा था और दूसरी ओर पत्नी अपनी जिंदगी हारने के लिए तैयार बैठी शून्य हो चुकी थी, उसका साथ छूटते देख रहा था। सब कुछ खो देने का भय उस पर उस पर हावी होता जा रहा था। पश्चाताप की अग्नि में इस कदर झुलस रहा था कि इन दो चार दिनों में ही वह अपने पिता से बड़ी उम्र का लगने लगा था। पश्चाताप की अग्नि इंसान को तड़पा तो सकती है, लेकिन अतीत को सुधार नहीं सकती है, न ही वर्तमान को अपनाने देती है और न ही सब कुछ ठीक हो जाएगा वाली भविष्य की कोई गारंटी देती है।

 

आरती झा आद्या

दिल्ली

#पश्चाताप

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