पराए हुए अपने – बेला पुनीवाला

 मैं आज सुबह से अपनी आरामदायक कुर्सी पे बैठ के कुछ सोच रहा था। तभी सतीश ने आकर पूछा, ” क्या हुआ पापा ? आज आप ऐसे चुप-चुप क्यों हो ? आपकी तबियत तो ठीक है ना ? डॉक्टर के पास चले क्या ? ” मैंने  कुछ देर सोचने के बाद हिम्मत कर के सतीश और सुषमा से कह ही दिया, कि ” मुझे अब आप दोनों वृद्धाश्रम भेज दो, यहाँ अब मेरा मन नहीं लगता।” 

सतीश ने पूछा, ” क्या हुआ पापा, आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हो ? हम से कोई गलती हुई है क्या ? क्या सुषमा ने आप से कुछ कहा ? मैंने सतीश को समझाते हुए कहा, कि ” ऐसी गभराने की कोई बात नहीं है, बस अब यहाँ मन नहीं लगता। तेरी माँ वसुंधरा के जाने के बाद यहाँ अब मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता, मैं तो अब रिटायर हो गया हूँ इसलिए अब मेरे लायक कोई काम भी नहीं है,

 अब पहले सा वक़्त भी नहीं कटता, वहां वृद्धाश्रम में हमारे जैसे बहुत से लोग होंगे, तो उनके साथ रहकर शायद मुझे अच्छा लगे। ” सतीश ने कहा ” लेकिन पापा, ऐसे कैसे मैं आपको वृद्धाश्रम भेज दूँ ? हमारे रहते आप को वृद्धाश्रम जाना पड़े, ये मुझे हरगिज़ मंज़ूर नहीं है और लोग क्या कहेंगे ? कि माँ के जाने के बाद पापा को वृद्धाश्रम भेज दिया ? ऐसा मैं कभी सोच भी नहीं सकता।  हम से अगर कोई गलती हो गई हो तो माफ़ कर दीजिऐ, मगर ऐसी बातें कभी भी मत कीजिऐगा। ” मैंने कहा, ” ऐसी कोई बात नहीं है, बेटा, जैसा तुम समझ रहे हो। तुम और सुषमा मेरा बहुत ही अच्छे से ख्याल रखते हो और मेरी हर छोटी से छोटी चीज़ का भी कितना ख्याल रखते हो, मैं तो बल्कि रोज़ भगवान् से ये प्रार्थना करता हूँ, कि तुम्हारे जैसे बहु और बेटे सब को मिले, पिछले जनम में मैंने ज़रूर कोई अच्छे काम किए होंगे, जो मुझे तुम्हारे जैसे संस्कारी बेटे और बहु के पिता बनने का मौका मिला। 

 मगर दरअसल बात ये है, कि वसुंधरा के जाने के बाद मैं बहुत अकेला पड़ गया हूँ। तुम दोनों तो ऑफिस चले जाते हो, मोंटू भी स्कूल चला जाता है, अब घर में बचा मैं अकेला। अकेले-अकेले मुझे वसुंधरा की और भी याद आती है, वो थी, तो सब ठीक था, उसके साथ वक़्त कहाँ बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था, मगर अब वक़्त कैसे बिताऊ ये समझ में नहीं आता। मैंने सूना है, वृद्धाश्रम में बहुत से लोग आते है और वहां सब का अपना-अपना काम होता है, वहां पे मेरे कुछ दोस्त भी रहते है, जिनको उनके बेटों ने घर से निकाल कर व्रुद्धाश्रम में भेज दिया और अब उनसे मिलने भी नहीं आते और उनकी सारी ज़मीन जायदाद भी दस्तखत कराके अपने नाम कर दी। 



मैं उनके साथ रह के उनका दुःख भी बाँटना चाहता हूँ, उनको हिम्मत देना चाहता हूँ, उन सब से बातें करना चाहता हूँ, वहांँ रह के उन सब पे एक किताब लिखना चाहता हूँ। मैंने सुना है, वहांँ पे सत्संग भी होता है, हर त्यौहार भी मनाते है, पुराने गाने सुनते है, अंताक्षरी खेलते है, साथ में मंदिर जाते है, घूमने जाते है, जन्मदिन मनाते है और सब से बड़ी बात  हम उम्र के लोग सुख-दुःख की बातें भी कर लेते है, इस से मन हल्का हो जाता है और वहाँ रह कर मैं उन लोगों को  जानना चाहता हूँ। तुम समझ रहे हो ना, बेटा, मैं तुम से क्या कहना चाहता हूँ ? “

    अपने पापा की बात सुनकर सतीश कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाता है, फ़िर  कुछ देर सोचने के बाद सतीश ने कहा, ”  हां,पापा मैं समझ रहा हूँ, कि आप क्या कहना चाहते है ? मगर ऐसा कैसे हो सकता है ? आप के चले जाने के बाद मैं और सुषमा भी तो अकेले पड़ जाएंँगे, उसका क्या ? वैसे भी माँ के जाने के बाद सुषमा अकेली सी हो गई है, वो कुछ कहती नहीं, मगर मैं समज़ता हूँ। ” मैंने कहा, ” तो फ़िर तू मुझे भी समझने की कोशिष कर बेटा। ” सतीश ने कहा, ” हां, पापा शायद आप सही कह रहे हो, मैं और सुषमा अगर माँ को इतना याद करते है, तो आप ने तो माँ के साथ सारी उम्र गुज़ारी है, आपके लिए तो माँ के बिना एक दिन भी, जैसे लम्बी उम्र लगता होगा, मुझे माफ़ कर दीजिऐ, पापा, मैं आपको और आपकी बात को समझ ना पाया। अगर आपको अपने दोस्तों के साथ रहना है, तो वही सही, आपकी ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी है। लेकिन आप को हम हर संडे मिलने आया करेंगे। अगर आपको कभी भी ऐसा लगे, कि आपको वहां भी अच्छा नहीं लगता, तो आप हमें बेझिझक बता दीजिएगा, मैं फ़ौरन आपको लेने आ जाऊँगा। मैंने कहा, तू मेरी फिक्र मत कर, तू सुषमा और मोंटू का ख्याल रखना और खुश रहना। कहते हुए वासुदेव जी की आँखें भर आती है।

         सतीश अपने पापा का नाम वृद्धाश्रम में लिखा देता है और उनके रहने का इंतज़ाम कर देता है, ताकि उनको वहां कोई तकलीफ न हो, साथ में उसके पापा के दोस्तों से मिलता है, उनसे बातें करता है और उन सब के लिए भी रहने के लिए ज़रूरी सामान दे देता है। ताकि उनको भी अच्छा लगे, वे लोग भी अपनी बाकी की ज़िंदगी आराम से बिता सके। उस वृद्धाश्रम में सतीश ने उस से हो सके उतनी मदद की।  



     कुछ ही दिनों में मैं अपना सामन लेकर वृद्धाश्रम रहने चला जाता हूँ, जहाँ उनके दोस्त भी थे, मुझे वहां देखते ही मेरे दोस्त ने  मुझे अपने गले लगा लिया और जैसे आँखों के आँसू ही उनके दर्द बयां कर देते है। जैसे बचपन के बिछड़े दोस्त सालो बाद मिले हो।

   मैंने वहांँ जाके देखा, ” किसी के बच्चों ने उन्हें घर से निकाल के यहाँ भेज दिया, तो कोई रोज़-रोज़ के झगड़ों से तंग आकर खुद ही अपना घर छोड़कर यहाँ चले आए, तो कोई बहुत ही लम्बी बीमारी की बजह से आ गए, क्योंकि उनकी सेवा करनेवाला कोई नहीं था, तो किसी के बेटे और बहु ने धोखे से ज़मीन के कागज़ात पे दस्तखत कराके, उनको घर से जाने पे मजबूर कर दिया, तो कोई अपनी मर्ज़ी से अपने जैसे हम उम्र के लोगों के साथ रहने और उनके दर्द बाँटने आते है। उन सब की बातें सुनते-सुनते कभी-कभी मेरी भी आँखों में आँसू आ जाते। तब मेरा  सब बच्चों को किसी भी तरह  सीखाने का मन होता, कि ” कल को अगर उनके ही बच्चे उनके साथ ऐसा करते, तो तब उनको कैसा लगेगा ? “

      कुछ ही दिनों में मेरे वहां एक से ज़्यादा दोस्त बन गए, हम सब एक परिवार की तरह वहांँ मिल-ज़ुल के रहने लगे। यारों-दोस्तों के साथ अब वक़्त कहाँ बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। मैं रोज़ रात को अपनी किताब लिखने बैठ जाता। जो भी मैंने पुरे दिन में बातें की या, जो भी मैंने महसूस किया, वो सब मैं उस क़िताब में लिखता गया, जिस क़िताब का मैंने नाम रखा था, ” पराए हुए अपने। ” और मेरे बेटे सतीश  की मदद से ये क़िताब छपवा के मैंने हर उस बेटे को भेजी, जिन्होंने अपने माँ-बाप का साथ उनके आख़री वक़्त में नहीं दिया था, जब उन्हें सब से ज़्यादा उनकी ज़रूरत थी  और वह अपने ही परिवार से दूर रहने को मज़बूर हो गए। ये सोचकर, कि किसी दिन अगर वो लोग ये क़िताब पढ़ेंगे, तो उनकी आँखें तो खुले, उनको अपनी गलती का एहसास तो हो, कि जो उन्होंने अपने माँ-बाप के साथ किया है, वह कितना गलत था।

       फ़िर भी आज भी जब भी मैं अकेला होता हूँ, तब मुझे बस एक ही ख्याल आता है, कि ” ज़िंदगी में हम जिनसे मिले भी न थे, वे पराऐ भी अपने से लगने लगते है और जिस वक़्त हमें सब से ज़्यादा अपनों की ज़रूरत होती है, तब वही अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया, तब कैसा महसूस होता है, वह तो वही जाने जिस पे बीती हुई हो।

#पराए_रिश्तें_अपना_सा_लगे

स्व-रचित

बेला पुनीवाला

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