पहचान (भाग 2)- डॉ संजु झा  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  :

मेरे विरोध करने पर मुझपर हाथ उठा दिया।थप्पड़ की गूँज मेरे शरीर से ज्यादा मेरी अंतरात्मा को बेध रही थी।इच्छा तो हो रही थी कि मैं भी पलटकर उसी तरह झन्नाटेदार थप्पड़ से जबाव दूँ,परन्तु संस्कारों की बेड़ियाँ मुझे जकड़ी हुईं थीं।इतना सब होने के बावजूद पति का रात में अधिकारपूर्ण वहशियाना रवैया मेरे वजूद को ललकार रहा था।

अगले दिन उदास मन से टेलीविजन पर किसी गुरु महराज का कार्यक्रम देख रही थी।उसमें पंडित महराज बीच-बीच में ज्ञान की बातें भी बताते थे।उस दिन महाराज जी ने सभी श्रोताओं को सुनाते हुए कहा -” कुछ दिनों पहले एक औरत मेरे पास आई थी।उसने मुझे कहा कि महाराज कुछ करो।अब तो बहुओं के सामने भी पति मुझे पीटते हैं,अब बर्दाश्त नहीं होता है!”

इसके जबाव में महाराज जी ने कहा था-” माता!जिस दिन तुम्हारे पति ने पहली बार तुम पर हाथ उठाया था,उसी दिन अगर तुम प्रतिकार करती तो रुक सकता था।अब तो तुमने पिटाई सहने की आदत बना ली और तुम्हारे पति ने पीटने की।इसलिए अब नहीं रुकेगा।”

पंडित  महाराज की बातें बार-बार मेरे कानों में गूँज रहीं थीं।थप्पड़ की गूँज मेरे घायल स्वाभिमान से प्रश्न पूछ रही थी कि शिक्षित होने के बावजूद यदि जुल्म सहना ही है तो तुममें और एक अशिक्षित में क्या अंतर है?

पति-पत्नी के आपसी प्यार से ही तो जिंदगी रुपी समंदर से अनमोल मोती निकलते हैं,परन्तु यहाँ तो पति-पत्नी की कोमल भावनाएँ ही तार-तार हो गईं थीं।एक सुखद अनुभूति के लिए मेरा वजूद तरस उठा था।अब मैं बुद्धु, बेवकूफ,गँवार इत्यादि विशेषणों से ऊब चुकी थी।पति-पत्नी का रिश्ता अभिशाप की तरह महसूस हो रहा था।मैं पहचान विहीन जीवन नहीं जीना चाह रही थी।अपमान और तिरस्कार के अंधे कुएँ से निकलकर अपनी पहचान बनाना चाहती थी।

मैंने अगले दिन  सुबह-सुबह जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला ले लिया।दोनों बेटियाँ स्कूल गईं थीं।मैंने पति से कहा -” मैं इस घर को छोड़कर जा रही हूँ!”

पति थोड़े से आश्चर्यचकित हुए, फिर उन्हें लगा कि ये कहाँ जाएगी?परन्तु मुझे निकलते हुए देखकर चिल्लाकर कहा -” तुम मेरे बच्चों को नहीं ले जा सकती हो।मैं न तो तुम्हें तलाक दूँगा और न पैसे ही!”

मैंने भी प्रत्युत्तर में कहा -” मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। बेटियों को तो तुमलोग मेरे खिलाफ कर ही चुके हो।बेटे को भी रख लो।मैं अपनी पहचान बनाने के लिए अकेली ही काफी हूँ।”

घर से निकलते समय बेटे ने कसकर मेरा आँचल पकड़ लिया।पति और सास ने छोटा बच्चा समझकर उसे मेरे साथ आने दिया।अब बेटे के साथ मैं अनजान डगर पर निकल चुकी थी।मुझे मेरी मंजिल का कोई पता नहीं था।अचानक से ‘भूख लगी है’कहकर बेटे ने मेरा ध्यान तोड़ा।मैं उसे लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। बेटे को बिस्कुट-पानी देकर अपनी मंजिल के बारे में सोच रही थी।पेड़ की शीतल वायु मेरे शिथिल तन-मन में उत्साह भर रही थी।सोचते-सोचते एक सहेली रंजना का ख्याल आया।फोन कर उसी के पास चली गई। जिन्दगी में बुरे लोग मिले,तो कुछ अच्छे भी।रंजना अच्छे लोगों में से एक थी।

रंजना ने एक महीने तक हमें अपने पास रखा और नौकरी खोजने में काफी मदद की।उसके सहयोग से एक आवासीय विद्यालय में नौकरी मिल गई। मैं वहाँ से जल्द-से-जल्द निकलना चाहती थी,क्योंकि रंजना के पति की काम-लोलुप दृष्टि मेरे शरीर को भेजती रहती थी।आज भी हमारा  पुरुष-प्रधान समाज अकेली नारी को बेबस और अबला ही समझता है।

कुछ दिनों बाद मैं आवासीय विद्यालय में अपने बेटे के साथ आराम से रहने लगी।विद्यालय का हरा-भरा परिसर, पक्षियों की चहचहाहट मेरे हताश ,निराश मन में स्फूर्त्ति का संचार करती।उतार-चढ़ाव तथा खट्टी-मीठी यादों के सहारे जिंदगी गुजरने लगी।स्कूल में पढ़ाने के बाद खाली समय में बेटे को पढ़ाती और खुद भी बी.एड की तैयारी करती।समय अपनी गति में बह रहा था।मैं अपनी पहचान से काफी खुश थी।कुछ समय बाद मेरा बी.एड हो गया और बेटे ने भी दसवीं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर लिया।बेटे की आगे की पढ़ाई के लिए  मैंने यथासंभव पैसे जोड़कर रख लिए थे,परन्तु बेटियों की तरह मेरे पति ने बेटे का कान भरते हुए कहा -” बेटा!मेरे पास आ जाओ।मैं तुम्हें अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलवाऊँगा।”

बेटा भी दोनों बहनों की तरह पिता की संपत्ति की चकाचौंध में आकर पिता के पास चला गया।

एक बार फिर से मैं अकेली हो गई। एक अकेली औरत को समाज में पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है।अब मैं जिंदगी की हर परीक्षा देने को तैयार थी,परन्तु वापस उस नर्क में जाना मुझे गँवारा नहीं था।पति ने स्पष्ट शब्दों में खबर भिजवाते हुए 

  कहा था -” मेरे अनुसार  रहना हो तो यहाँ आकर रहो,वर्ना एक पैसे भी तुम्हें नहीं दूँगा।”

अब मैं इस काबिल तो बन ही गई थी कि जिल्लत के वगैर अपनी पहचान के बूते जिन्दगी जी सकूँ।अब फिर से मैंने अपनी नई मंजिल की तलाश शुरु कर दी।बेटे के छोड़कर चले जाने से वर्त्तमान शहर मुझे बेगाना लगने लगा।मैं वो शहर छोड़कर दिल्ली आ गई, क्योंकि मेरी दोनों बेटियाँ वहीं नौकरी करने लगीं थीं।कुछ दिनों तक बेटियों के पास रही,परन्तु उनके मन में बचपन से ही मेरे प्रति जहर कूट-कूटकर भर दिया गया था।माँ-बेटियों के बीच कोई भी भावनात्मक रिश्तों की डोर नहीं बची थी।बेटियों को मेरी उपस्थिति से आजादी में खलल पहुँच रही थी,इस कारण उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा -” माँ!आप अपनी व्यवस्था अलग कर लो।”

मैं दो-तीन काम-काजी महिलाओं के साथ एक फ्लैट में आकर रहने लगी।खर्चें चलाने के लिए  मैंने घर में ही ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया।शुरु से ही पीएच.डी करने की मेरी दिली तमन्ना थी।मैंने पीएच.डी का रजिस्ट्रेशन करवाया।संयोगवश मुझे पीएच. डी करने के लिए एक विदुषी मार्गदर्शक मिल गईं,जो मेरे बगल में ही रहतीं थीं।उन्होंने मेरे शोध-कार्य में काफी मदद की।उन्होंने शोध-कार्य के साथ-साथ मानसिक रुप से भी मुझे संबल प्रदान किया।उनके अपनत्वभरे व्यवहार के कारण  मैंने अपनी जिन्दगी की किताब उनके सामने खोलकर रख दी।उनके सहयोगपूर्ण और सौहार्दपूर्ण व्यवहार ने तपते रेगिस्तान में भटकते मेरे मन  को शीतलता प्रदान किया।आखिर मेरी तपस्या रंग लाई। मुझे पीएच.डी की डिग्री मिल गई। मैं डाॅक्टर नमिता श्रीवास्तव बन गई। अपने बूते पर मैंने अपनी पहचान बना ली।अब मैं काॅलेज में पढ़ाने लगी।कुछ जरूरतमंद बच्चों को घर में भी पढ़ाती हूँ,जिससे मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है।

जब कभी पलटकर पीछे देखती हूँ ,तो कभी कुछ गलत और कभी कुछ सही प्रतीत होता है।अतीत से पीछा छुड़ाना कभी-कभार मुश्किल हो जाता है,परन्तु आज जो है,वो मेरी पहचान  है।भस्म हुए  रिश्तों पर शोक कैसा?फिर भी मेरा अन्तर्मन बार-बार एक सवाल पूछता है -”  क्या एक अकेली औरत को समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए इतनी सारी कुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं?”

मैं इस सवाल के जबाव में उलझकर रह जाती हूँ,क्योंकि अभी भी नारियों को अपनी पहचान बनाने के लिए समाज के बनाए दुर्गम  मार्गों को पार करना है।

समाप्त। 

यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है।

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

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