न‌ई शुरुआत – ऋतु गुप्ता: Moral stories in hindi

सब की लाड़ली दुलारी स्नेहा आज शहर से पढ़ कर वापस लौट रही थी। चार चार भाईयों के बच्चों में  अकेली बेटी थी स्नेहा। सात सात भाइयों की लाडली, घर में हर एक किसी की जान थी स्नेहा। स्नेहा  से दो भाई बड़े और पांच भाई छोटे थे ,पर हर कोई उसे पर जान छिड़कता था। आज मां और चाचियां मिलकर सभी कुछ स्नेहा की पसंद का बना रहीं थी। स्नेहा के पिताजी ने खास उसकी पसंद की चमचम मिठाई मंगाई थी। बड़े चाचा झूला सजा रहे थे कहने लगे आज तो स्नेहा को झूले पर बैठाकर बचपन की तरह झोंटे दूंगा।

एक समय था जब स्नेहा की मां की मर्जी बिल्कुल नहीं थी उसे बोर्डिंग स्कूल पढ़ने भेजने के लिए ,पर सब की लाडली स्नेहा  ने सभी को  मना ही लिया था।

वहीं पास के कमरे मे बैठी संध्या स्नेहा की इकलौती बुआ अपनी सूनी आंखों से ये सब देख रही थी। कभी वो भी इस घर की ऐसी ही लाड़ली थी। आज जब स्नेहा पढ़ कर वापस लौट रही थी तो उसे सबसे अधिक बेचैनी और जल्दी अपनी बुआ संध्या से मिलने की थी। उसकी बुआ भी चार भाइयों में अकेली बहन थी ,सबकी लाडली सबकी चहेती,पर ऐसा क्या हुआ जो आज इस हवेली में सबसे अलग थलग रह रही थी, नीरस जीवन बिता रही थी,ना उसके खाने में रस है, ना ही जीवन में कोई श्रृंगार।

आज जब स्नेहा किशोर उम्र से निकाल कर थोड़ी बड़ी हुई तो अपनी बुआ का दर्द दिल से महसूस कर सकती थी। बचपन में तो उसे समझ ही नहीं आता था कि आखिर बुआ ऐसी क्यूं है ? मां और चाचियों जैसा श्रंगार करके क्यों नहीं रखती? कोई गहने कोई कपड़े अच्छे से क्यों नहीं पहनती? बचपन का ये सवाल सुलझाना अब स्नेहा के जीवन का मकसद बन चुका था। बुआ की शादी के समय  तो वो थोड़ी छोटी ही रही थीं, उसने घर में सुना था कि ज्यादा शराब पीने  की लत के कारण से उसके  फूफा जी का लीवर खराब हो गया और असमय ही  उनका जीवन खत्म हो गया, जीवन तो उनका खत्म हुआ पर उनके साथ ही बुआ के जीवन के श्रृंगार ,रस ,इच्छाएं उन्हीं के साथ दफन हो गई। बुआ को वापस मायके आना पड़ा।

सुना है बुआ को शादी से पहले अपनी ही हवेली के माली के बेटे सूरज के साथ प्रेम हो गया था। सूरज भी दिलों जान से संध्या को चाहता था। सूरज माली का बेटा जरूर था पर बहुत ही ईमानदार और  होशियार  और देखने में भी अच्छा भला था। सूरज को अपनी मेहनत और लगन से पास ही के एक अच्छे सरकारी स्कूल में मास्टर की नौकरी  मिल गई थी। बेशक सूरज के पास  कोई पुश्तैनी जायदाद ,हवेली , रुपया पैसा कुछ न था,पर फिर भी सूरज खरा सोना था, उसमें नाम मात्र को भी  ऐब नहीं था। सूरज और संध्या का बचपन साथ-साथ बीता, धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे और यह आकर्षण कब प्रेम में बदल गया दोनों को पता ही नहीं चला। संध्या के घर में सभी सूरज को पसंद जरूर करते थे, पर इस प्रेम को ना तो समाज और ना ही परिवार की सहमति मिली।

पुरुष प्रधान समाज में एक महिला को इतनी आजादी नहीं थी कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुन सके। इसलिए जैसे ही घर में बुआ के प्रेम की खबर उसके पिताजी और भाइयों को लगी आनन फानन में ही लड़का ढूंढा गया जो दूर मणिपुर में बड़ी रियासत का अकेला वारिस था। असल में विरासत के लाड़लों के शौक भी अलहदा होते हैं, रोज की शराब पीना, दूसरी औरतों से जिस्मानी संबंध उसकी  भी रोजमर्रा की आदतों में शुमार थी।

घर में इस बात पर सभी ने यह कहकर कि यही तो ठाठ है बड़े लोगों के, और हम कहीं सुनी बातों पर विश्वास नहीं करते लड़का अच्छा है,घर परिवार हमारी टक्कर का है,हमारे घर परिवार की बराबरी  वालो के यहां ही संध्या का रिश्ता होगा,और यदि  कोई छोटी मोटी बात ऐसी है भी तो धीरे-धीरे जब संध्या उसकी जीवन में आएगी तो उसे सही रास्ते  पर ले आएगी।

बुआ इस ब्याह के लिए बिल्कुल  भी ना मन से ना तन से तैयार थी। वह तो अपने सूरज के साथ सूखी रोटी में ही जीवन बिताने के ख्वाब देखती थी। पर घर परिवार के खिलाफ हिम्मत ना कर सकी। काश की बुआ ने उसे समय सही फैसला लिया होता तो आज  उसकी  और सूरज की जिंदगी खराब ना होती। बुआ का ब्याह  तय होते ही सूरज कहीं दूर जाकर नौकरी करने लगा। उसने अभी तक ब्याह नहीं किया था। उधर ब्याह के 5 वर्ष बाद ही बुआ की जिंदगी के सभी रंग बेरंग हो गए।

आज स्नेहा जब घर लौटी तो एक दृढ़ निश्चय के साथ की चाहे जो हो जाए , वो अपनी बुआ की बेरंग जिंदगी में फिर से रंग भरकर रहेगी। स्नेहा के घर आते ही सभी चाचा पापा, मम्मी और चाचियां उससे लाड़ लड़ाने लगे। रात के भोजन के बाद स्नेहा को कुछ लड़कों की तस्वीरें दिखाई और बताया कि सभी अब उसकी शादी करना चाहते हैं वो भी अपने बराबर के खानदान में।

स्नेहा के पिताजी ने कहा बेटा इनमें  से जो चाहे तुम्हें पसंद आ जाए सभी अपनी टक्कर के हैं, बस तेरा ब्याह हम बहुत धूमधाम से करेंगें।

लेकिन स्नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा पापा  अब समय बदल गया है ,आज खानदान सर्वोपरि नहीं  है,लड़का और उसके संस्कार पहले हैं। लेकिन आप सभी बड़े हैं और मेरा भला अच्छे  से जानते हैं, मैं आज आप सभी से हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हूं कि मैं ब्याह बाद में करुंगी, पहले बुआ के ब्याह के बारे में आपको सोचना चाहिए।

इस पर उसके बड़े चाचा ने कहा इसमें क्या सोचना है किस्मत का लिखा कोई भला कहां मिटा सकता है ,उसकी किस्मत में ही वैधव्य  लिखा था, और अब उसकी कौन सी उम्र है ब्याह की । ये सारा समाज हमें धिक्कारेगा यदि हम उसका ब्याह करेंगे तो।

इस पर स्नेहा ने कहा पर चाचा सोचो तो जरा ,यदि फूफा की जगह बुआ  चली गई होती तो क्या  फूफा  और उनके घर वाले उनका दूसरा ब्याह नहीं करते। क्या एक स्त्री का जीवन जीवन नहीं, उसका दर्द दर्द नहीं होता चाचा। एक स्त्री अपने पति की मौत के साथ इतना नहीं मरती ,जितना इस समाज के दोगले रीति रिवाज और रवैयों से उसका जीवन  दूभर हो जाता है। अरे धिक्कार है ऐसे समाज ऐसे परिवार और ऐसी पुरुषवादी सोच पर जो एक बहन, एक बेटी की वेदना ना समझ सके। कल यदि मेरे साथ कुछ ऐसा होता है तो फिर भी क्या आप सभी मुझे यूं ही तन्हा छोड़ देंगे, क्या मैं तब इस घर की लाड़ली ना रहूंगी ,क्या मेरे सुख-दुख तब आप सभी के ना होंगे।

स्नेहा के इतना कहते ही उसकी मां कुसुम उसे गले लगा लेती है, चाचियां भी चारों ओर से उसे घेर लेती हैं, रोती-रोती स्नेहा की मां कहती है , ना-ना लाडो ऐसा ना बोल ,घर की एक बेटी की ऐसी दुर्दशा देखी है ना कि……. ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी ना हो।

तभी उसकी मां ने स्नेहा के पिता की ओर मुड़ते हुए कहा सुनो जी  स्नेहा सही  ही तो कह रही है हम सब भी संध्या बहन जी के लिए कुछ करना चाहतीं हैं,उनका दुख  हमसे देखा नहीं जाता,पर आपके डर से से कभी कुछ कह नहीं पाए ,जो आप आज भी  अपनी बहन का घर सूरज के साथ बसा दें तो भगवान भी आपको हजारों आशीष देगा ,और समाज का क्या है जी, लोग तो बातें बनाने  के लिए ही हैं। हम समाज के डर से अपने बच्चों को दुख के गहरे कुएं में तो नहीं रख सकते।

आप नहीं जानते जी अकेली औरत उसे फूल की तरह होती है, जिसका कोई माली नहीं होता ,कोई भी उसे कभी भी मसल सकता है। जब संध्या बहन जी ने हमें बताया कि मेहमान जी की मृत्यु के बाद कैसे एक दिन उनके रिश्ते के जेठ ने उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा ,तो हम सभी उन्हें घर ले आए ।

इतना सुनते ही स्नेहा के पिता को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने स्नेहा को गले से लगाते हुए कहा लाड़ो तूने आज हमारी आंखें खोल दी जो कब से बंद थी और अपनी ही बहन का दर्द ना  देख पा रही थी । हम तो सोचते थे कि घर में रह रही है ,रोटी कपड़ा सभी तो उसे मिलता है, पर धिक्कार है हम मर्दों की सोच पर जो स्त्री की भावनाओं को कभी भी समझ ना सका।अब  हम जल्द ही अपनी इस गलती का सुधार करेंगे।

कुछ दिन बाद स्नेहा के  ब्याह में उसकी संध्या  बुआ सूरज संग सज धज कर  अपनी लाड़ली को आशीर्वाद देने पहुंची।

आज घर की दोनों बेटियों के लिए जिंदगी की एक नई शुरुआत थी।

ऋतु गुप्ता

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