मुज़रिम –  मुकुन्द लाल 

 वैद्य दिवाकर जी की उम्र जब करमपुर में वैद्यगिरी करते-करते ढलने लगी तो बीस वर्षों के बाद अपने गांव लौट आये। गांव में एक नया जीवन आ गया, छोटे से गांव में दिवाकर जी की बहुत इज्जत थी। इनके गांव में आने के पहले साधारण रोगों के लिए भी शहर दौड़ना पड़ता था।

  वैद्यजी उदार और सहृदय व्यक्ति थे। उनका दुनिया में कोई नहीं था। उनके लिए गांव के लोग ही अपने थे, रोगी ही उनका साथी था। उस गांव के सबसे धनी व्यक्ति लाला हरिनाथ वैद्यजी को बहुत मानते थे। लाला की पत्नी विनीता भी वैद्यजी को बहुत मानती थी। प्रायः उनका भोजन उन्हीं के घर में होता था? लाला हरिनाथ और वैद्यजी ने एक निःशुल्क चिकित्सालय की स्थापना की योजना बनाई। उसमें लाला ने मोटी रकम दान दी। गांव का भाग्य चमक उठा, गरीब, असहाय रोगियों की मुफ़्त चिकित्सा होने लगी।

  वैद्यजी और लाला हरिनाथ इस कार्य से आत्मविभोर होकर जीवन व्यतीत कर रहे थे। लेकिन जैसे पूनम के चांँद को ग्रहण लगता है, वैसे ही लाला हरिनाथ की मृत्यु हो गई। गांव में शोक की लहर दौड़ गई।

  उतने बड़े आलिशान मकान में विधवा विनीता का रहना कम कष्टप्रद नहीं था। उसके दुख को कम करने के लिए वैद्यजी कभी-कभी विनीता के यहाँ जाया करते थे। उपदेशों से सांत्वना दिया करते थे। ‘वैधव्य का दुख अकेला नहीं आता है-दुखों की झड़ी लग जाती है।’

  सुबह में दाई ने एक दिन दरवाजा खटखटाया तो अंदर से कोई आवाज नहीं आई, कुछ देर के बाद किवाड़ पीटने लगी, फिर भी कोई सुन-गुन सुनाई नहीं पङी। किसी तरह से किवाड़ खोली गई। किन्तु यह क्या? आंँगन में विनीता की खून से लथपथ लाश पड़ी थी। गांव में तहलका मच गया। पुलिस आई। छानबीन शुरू हो गई। गांव के अधिक से अधिक लोगों के अंगूठे की छाप ली गई, कुछ पता नहीं चल रहा था। अन्त में वैद्यजी के डेरे की तलाशी ली गई तो लोगों की आंँखें फटी की फटी रह गई। उनके डेरे के अंदर की जमीन को खोदने पर खून से भींगा एक दुशाला और एक कटारी पाये गये। यह खोज वैद्यजी को चिल्ला-चिल्ला कर खूनी होने का प्रमाण दे रहा था, लोगों की आत्मा इसको कबूल करने में हिचक रही थी।

  लाला हरिनाथ के घर के पड़ोसी से पता चला कि वैद्यजी कल संध्या में विनीता के घर गए थे। एक और प्रमाण जबर्दस्त मिला-वह था सेठजी का वसीयतनामा जिसमें अपनी सारी सम्पत्ति उन्होंने चिकित्सालय के नाम लिख दी थी, जिसके व्यवस्थापक वैद्यजी को बनाया गया था। ये सारे के सारे प्रमाण वैद्यजी को मुजरिम करार दे रहे थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत में केस चला। जज ने सफाई देने के लिए कहा तो उन्होंने सफाई में सिर्फ कहा,

“भगवान जानता है कि मैंने हत्या नहीं की है।”

  लेकिन यह सफाई वैद्यजी को नहीं बचा सकी। उन्हें कारावास की सजा हो गई। सजा सुनने के बाद वैद्यजी के चेहरे पर किसी तरह की घबराहट नहीं थी। वे कटघरे से निकले और अपने दोनों हाथों को निर्भिकता से हथकङियांँ पहनने के लिए बढ़ा दिया।

  जेल में कम बोलते थे। जेल द्वारा सौंपा गया कार्य अवधि के पहले समाप्त कर, दूसरे कामों में सहयोग दिया करते थे। उदार स्वभाव के कारण कैदियों पर छा गये थे। कैदियों की नजर में विशिष्ट व्यक्ति बनते जा रहे थे। फिर भी खूनी होने के कारण लोगों का व्यंग्य सहना पड़ता था। कुछ लोग कहा करते थे ‘मन में राम बगल में छुरी…’

  जिसके जवाब में वैद्यजी रहस्यमय मुस्कान मुसक कर रह जाते थे। जिसको समझना कैदियों के लिए मुश्किल था।



  जेल में दिवाकर जी चिकित्सक के रूप में मशहूर हो गये थे। उनका उपचार रोगी कैदियों पर सफल होता था। अनेक रोगी उनके उपचार से स्वास्थ्य लाभ कर चुके थे। उनके कार्य से जेल के अधिकारीगण बहुत खुश हुए। अस्तु उन्हें क्षय-रोग अस्पताल में कार्य करने का अवसर दिया गया। दिवाकर जी रोगियों की सेवा मन लगाकर करते। रोगी उनकी मीठी बोली से प्रसन्न होकर कुछ क्षण के लिए अपनी बीमारी भूल जाते। इनके सोद्देश्य रोचक बातें सुनकर खिलखिला कर हंँस पड़ते, जो क्षय रोग के लिए कीमती उपचार था। वह अस्पताल जहाँ तपेदिक से पीड़ित नर-कंकाल सा इंसान का निस्तेज बासी पत्तों की तरह मुरझाया चारो ओर पीला चेहरा ही चेहरा नजर आता था, जिस पर मौत की परछाइयाँ नाचा करती थी, उन्हीं पीले-सूखे उभरते हड्डियों के ढांँचा वाले इंसानों के बीच दिवाकर जी दिन-रात सेवा में लगे रहते थे। इनकी सेवा से कुछ पल के लिए रोगी के शरीर में नवस्फूर्ति, नवजीवन आ जाता था। कभी-कभी डाॅक्टर उनको कहा करते, “दिवाकर जी!… आप व्यर्थ अपने जीवन को खतरे में डाल रहे हैं, इतना संपर्क आपको रोगियों के साथ नहीं रखना चाहिए।”

  तब दिवाकर जी भावुक मुद्रा में कहते, “अपने जीवन को खतरे में डालकर इन निराश इंसानों को कुछ राहत दिला सका, तो मैं अपने जीवन को धन्य समझूँगा।”

  यह अस्पताल नगर के बाहर पहाड़ी और हरी-भरी वादियों के बीच स्थित था, जिसने अनेक इंसानों को जीवन प्रदान किया था। बहुत ही रमणिक स्थान था। उसके परिसर में फूलों के पौधे और घने छोटे-छोटे वृक्षों की कतारें मन को मोह लेती थी। यहीं क्षय रोग से पीड़ित इंसानों के रगों में आशा संचारित करने की कोशिश की जाती थी।

  दिवाकर जी को यहाँ सेवा करते दश वर्ष व्यतीत हो गये थे। 

  एक दिन एक रोगी दाखिल हुआ। रोगी क्या था- हड्डी का ढांँचा मात्र था, इन हड्डियों से निस्तेज सूखा चमड़ा किसी तरह से चिपका हुआ था, आंँखें गढ्ढे में धंँसी हुई थी, दोनों गाल पिचककर गढ्ढे बन गए थे, विकृत चेहरा देखकर रोयें खड़े हो जाते थे, क्षण-क्षण उसे खांँसी परेशान कर रही थी। खांँसी की पीड़ा और धौंकनी सी सांँस का असर उसकी जान ले रहा था। बेड पर आंँखें फाड़कर चित लेटा हुआ था। दिवाकर जी उसके नजदीक गये। उन्होंने उससे मधुर आवाज में पूछा, “बहुत व्याकुल हैं क्या?”

  बेड पर लेटा रोगी आंँखें फाड़कर वैद्यजी को देखने लगा, कुछ क्षण के बाद ही उसके दिमाग में पुरानी स्मृति उमड़ने लगी फिर अपनी पूरी ताकत से चिल्ला उठा, “तुम कौन हो? हट जाओ मेरे सामने से।”

  वह हांँफने लगा, खांँसी का दौर शुरू हो गया। दिवाकरजी रोगी की बातों पर बिना ध्यान दिए हुए दवा का ग्लास उसकी ओर बढ़ाकर कहा,

“लो, पी लो अभी तुरंत शान्ति मिलेगी, घबराओ नहीं… तुम ठीक हो जाओगे, स्वयं पर भरोसा रखो, लेकिन रोगी को दवा की ओर ध्यान नहीं था, उसने स्फूट स्वर में कहा,” नहीं, नहीं यह कभी नहीं हो सकता है लेकिन चेहरा तो उसी तरह का है, नहीं… एक ही तरह के चेहरे के दो मनुष्य भी होते हैं… अगर वही रहे तो…”

  फिर वह चिल्ला उठा, “नहीं! नहीं!… ऐसा नहीं हो सकता है।”

  वह हांँफ रहा था।

  दिवाकरजी ने कहा, “क्या नहीं हो सकता है? “

    उनकी आवाज सुनते ही रोगी ने धीरे से उनके चेहरे की ओर ऊंँगली उठाते हुए कहा,

” क्या… आप, आप… वही हैं? “

 ” कौन? “



 ” वही वैद्य दिवाकरजी।”

  “तुम कौन हो? “

 ” मैं, मैं गोपी हूंँ, गोपी, आपका रसोइयांँ।”

  दिवाकरजी पर मानो बिजली गिरी। आंँखें फाड़-फाड़ कर रोगी को मौन होकर देखने लगे। फिर अचानक उनकी आंँखों से आंँसू बहने लगे।

  “तुमने अपने को क्या बना डाला गोपी, क्या बना डाला?… क्या इसी रूप में देखने के लिए मैंने तुझे… “

  उनकी आंँखों के सामने पुरानी घटनाएंँ चलचित्र की तरह जीवंत हो उठी।

             उस दिन वे रात्रि में विनीता के घर से कुशल-क्षेम पूछ कर लौटे थे। खाना खाया था। रामायण का पाठ करने के बाद दुशाला ओढ़ कर खाट पर लेट गये थे। अचानक एक आहट हुई थी, उनकी नींद उचट गई थी, उनके बदन पर दुशाला भी नहीं था, किवाड़ के दोनों पट खुले थे, ऐसा मालूम पङा था कि कोई छाया किवाड़ की ओट में हिल रही थी, उन्हें कुछ शंका हुई थी। उन्होंने तेज आवाज में पुकारा था, “कौन है?”

  प्रत्युत्तर में कोई आवाज नहीं हुई, किसी के सांँसों की चढ़ाव-उतार साफ मालूम पड रही थी, फिर क्या था। वे दौड़ पड़े थे। छाया एक ओर से निकलकर बाहर आ गई थी। कोई चीज लालिमा सहित चमकी थी, उसको साधते हुए किसी की आवाज़ सुनाई पङी थी, “जहांँ शोर मचाया कटार सीने में घुस जाएगी।”

  “कौन? कौन हो तुम?… बोलते क्यों नहीं” वे चिल्ला उठे थे।

  छाया सहम गई थी। 

  उन्होंने झट टार्च जलाया था, पर यह क्या? उनका रसोइयांँ गोपी था। उसके बदन पर उनके दुशाले के खून के धब्बे चीख-चीख कर कह रहे थे कि वह किसी का खून करके आया है।

  उन्होंने निर्भीक स्वर में कहा था,” क्या रे नमकहराम, तू मेरा भी खून करेगा?” उन्होंने सीना उसके सामने अङा दिया था, उनकी आवाज कमरे में गूंँज रही थी, ” तूने किसका खून किया है गोपी?… बोल पापी तूने किसका खून किया है?” 

  गोपी थर-थर कांँप रहा था। उसके हाथों की ताकत जाती रही। कटारी जमीन पर गिर पड़ी, गोपी उनके चरणों में लोट रहा था, उसकी आंँखों से आंँसू  बह रहे थे। 

  वह कह रहा था, “मैं जानता था कि कि विधवा विनीता के घर का दरवाजा सिर्फ आपही के लिए खुल सकता था इसलिए आपके डेरे पर रात्रि में आया, आप सोये हुए थे, दुशाला आपके बदन से अलग था, धीरे से उठा लिया, एक कटारी लेकर दुशाला ओढ़ लिया। फिर विनीता के घर की तरफ चल पड़ा, वहाँ पहुँच कर दरवाजा का सांँकल बजाने लगा। कुछ देर के बाद आवाज आई कि ‘कौन है’ तब मैंने बनावटी भाषा में कहा, “मैं वैद्यजी”क्षण-भर बाद ही कपाट खुल गये, तेजी से घर के अन्दर प्रवेश कर गया। उसने मुझे दुशाला में देखकर वैद्य ही समझा। 

  “इतनी रात में क्या बात है?” आश्चर्य से विनीता ने पूछा। कुछ पल के लिए खामोशी छायी रही। अचानक चेहरे की ओर देखकर एकबारगी चीखना चाही। मैंने उसके मुंँह पर हाथ रख दिया। फिर भी चिल्लाना चाहती थी, मैंने कटारी चला दी, घाव गहरा लगा, जमीन पर गिर पड़ी, खून से साड़ी भींग चुकी थी, वह तड़पने लगी, कुछ मिनट के अन्दर उसके प्राण-पखेरु उड़ गए, मैं मारना नहीं चाहता था, सिर्फ तिजोरी की चाबी लेना चाता था। उसे मरा हुआ देखकर हिम्मत जाती रही। दरवाजा बन्द कर दिया, चाहरदीवारी फांँदकर भाग निकला। “



                            वैद्यजी पत्थर की मूर्ति सदृश खड़े थे। उनकी आंँखों से आंँसू बह रहे थे रोते-रोते उन्होंने कहा था,” यह तूने क्या किया गोपी? कैसा घृणित पाप किया। “

   वह फूट-फूटकर रो रहे थे और कह रहे थे, 

” तू पापी है, दूर हो जा मेरे सामने से। तूने एक असहाय अबला का खून किया, जिसने अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दी।” 

  “मुझे माफ कर दीजिए मालिक” उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा था। 

 ” मैं तो माफ कर दूँगा गोपी, दुनिया की अदालत भी तुझको माफ कर देगी लेकिन भगवान की अदालत में तुम क्या जवाब दोगे? उसके यहांँ देर है अंधेर नहीं है। “

  वह रोये जा रहा था, अचानक वे कुछ बोलने लगे थे। उन्होंने कहा था,” तुम भाग जाओ यहांँ से बहुत दूर… बहुत दूर।” 

 “नहीं मैं अपना अपराध पुलिस में स्वीकार कर लूँगा “गोपी ने कहा। 

 ” नहीं तुम बाल-बच्चे वाले हो, मौत की सजा हो जाएगी तो तम्हारी स्त्री विधवा हो जाएगी, तुम्हारे बाल बच्चों का जीवन नर्क हो जाएगा। मैं बहुत दुनिया देख चुका हूंँ, मुझे जीवन – मरण का गम नहीं है। मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला हूंँ, जीवन से भी ऊब गया हूँ।” 

                  ” नहीं वैद्यजी अब और मैं आपको तकलीफ नहीं उठाने दूंँगा। “

” क्या बच्चों जैसी हरकत कर रहे हो”दिवाकरजी ने कहा। 

 ” मैं अपराध जज के सामने स्वीकार करूंँगा। “

 ” इसकी अब जरूरत नहीं है गोपी। भगवान की अदालत में अब अपना अपराध स्वीकार करो, दुनिया वाले मुझे दंड दे चुके। 

      स्वरचित एवं मौलिक 

       मुकुन्द लाल 

       हजारीबाग 

 

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