मेरी होटल वाली दादी – मंजू तिवारी : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : यह बात लगभग  सन् 1985- 86 की रही होगी तब मैं बहुत छोटी थी मेरे बाबा यानी कि दादा हमेशा दुकान पर ही रहते थे जहां मेरे पापा चाचा ताऊ का बिजनेस होता था सिर्फ  खाना खाने आते थे,,,,,, बाबा को चाय देने मै बहुत छोटी अवस्था से दुकान पर जाने लगी थी 

 ,,,बाबा सुबह शाम की चाय घर की ही पीते थे,,, जिसे मैं हैंडल वाले डिब्बा में ले जाती थी,,,,, मैं अपने बाबा की बड़ी लाडली पोती थी,,,,,, 

मेरी दुकान के सामने होटल वाली दादी का छोटा सा होटल हुआ करता था जिसमें दादी और उनके पति यानी मैं उन्हें बाबा बोलती थी चाय बनाते थे,,,,, दोनों ही बहुत बुजुर्ग से थे दादी का हुलिया आज भी मेरे आंखों में बसा हुआ है छोटा कद भरा हुआ बदन गोरा रंग स्वभाव से बड़ी हंसमुख थी,,,,  दादी के विपरीत बाबा एकदम पतले दुबले थोड़े से अकडू थे,,,,, जाति से शायद सुनार थे कभी-कभी उन्हें मैं दिया के सामने कुछ सोने के आभूषण जोड़ते और बनाते हुए देखी थी,,,,,, उनका होटल घर वाली साइड की पटरी पर था,,,, अपनी दुकानों पर जाने के लिए पटरी पार करनी पड़ती थी,,,, रोड पर ट्रैफिक भी खूब रहता था  रोड से होते हुए एक जानवरों का एक महीने के लिए मेला लगता था तो ट्रैफिक इतना होता था कि मेरी जैसी बच्ची को रोड पार करके उस तरफ बाबा को चाय देना थोड़ा मुश्किल हो जाता था,,,,,, (उस समय बच्चे अकेले आ जा सकते थे किसी प्रकार का डर नहीं था सारे जान पहचान के ही लोग हुआ करते थे)

तो मेरी दादी मेरे हाथ में बाबा की चाय का डिब्बा पड़ा कर बोलती होटल वाली दादी के होटल पर खड़ी हो जाना और बाबा को हाथ  दिखा कर बुला लेना इस तरफ या दादी से ही रोड पार करवा लेना,,,,,,, मैं ठीक ऐसा ही करती,,,, पहले सर्दियों में सुबह 6:30 बजे कोहरा भी बहुत हुआ करता था जिससे रोड के इस तरफ और उस तरफ कुछ नहीं देखता था और मैं सुबह-सुबह अपने बाबा के लिए गर्म चाय लेकर पहुंच जाती,,,, होटल वाली दादी रोड पार करवा देती और सुबह-सुबह सोते हुए बाबा के लिए मैं दुकान के शटर को खटकती तो बाबा शटर खोल देते,,,, मुझसे कहते अरे मेरी रानी बिटिया इतनी सुबह चाय ले आई अभी तो मैं सो कर भी नहीं उठा,,,, बाबा डिब्बे से चाय अपने गिलास में डालते और उसी डिब्बे के ढक्कन में मुझे गरम-गरम चाय दे देते मैं डिब्बे के ढक्कन में चाय पी के बड़ी खुश हो जाती,,,, चाय देने के बदले में मुझे मेरे बाबा ₹1 देते उस ₹1 से होटल वाली दादी से संतरे की  गोली जिन्हें कंपट कहते  हैं। बिस्किट टॉफी जो भी अच्छा लगता उनको मैं लेती,,, होटल वाली दादी  दो चार कंपट  मुझे एक्स्ट्रा दे देती,, प्यार करते हुए मेरे बालों पर हाथ फिराती और मुझे दुलार  करती थी,,,,, अपनी अम्मा यानी दादी को बताती यह होटल वाली दादी ने मुझे ज्यादा दिए हैं।,,,,

लेकिन मेरे मन में यह सवाल हमेशा रहता कि मेरी दादी और बाबा का परिवार तो इतना बड़ा है।,,, और यह होटल वाली दादी इतनी बुढी होते हुए भी उनके परिवार में तो कोई नहीं देखा उस छोटी सी दुकान में चाय बनती है।और वही रहती है उनके बच्चे कहां हैं मेरी बाल बुद्धि में कुछ समझ नहीं आ रहा था,,,, 

समय ऐसे ही चला रहा था ,मैं स्कूल जाती तब भी होटल वाली दादी के होटल पर थोड़ा बहुत खेल लेती,,, होटल वाली दादी का होटल हमारी दुकानों के कभी बाजू में आ जाता कभी सामने चला जाता क्योंकि वह दुकान उनकी नहीं थी,,,,,, जब मैं  थोड़ी बड़ी और समझदार हो गई तब मैंने होटल वाली दादी के बारे में सुना कि उनके अपने बच्चे नहीं थे,,, उनके परिवार वाले भाई भतीजे ने सारी जमीन जायदाद प्रॉपर्टी अपने नाम करवा कर इनको वहां से निकाल दिया है।,,, जाति से सुनार थेऔर संपन्न भी थे यह बेचारे दोनों पति-पत्नी शायद भाषा से कानपुर के रहने वाले लगते थे,,, हमारे यहां जो उस समय छोटा सा कस्बा था आकर बस गए और अपना छोटा सा चाय बनाने का काम करने लगे,,,,, कहने का मतलब उनके अपने खून के रिश्ते के सगे संबंधियों ने उन्हें बेघर कर दिया था,,,,,, 

होटल वाली दादी का चाय का काम ठीक ही चल जाता था,,, वह छोटा सा कस्बा था ज्यादातर सारे लोग जान पहचान के ही होते थे,,,, जब सुबह अपने स्कूल के रिक्शे का इंतजार करती तो सुबह-सुबह बहुत सारे लोग उनकी दुकान पर चाय पीने आते,,,, उनमें कुछ लड़के टाइप भी हुआ करते थे जो दादी से बहुत उलझते उन्हें लाड़ लाड़ में बड़ा परेशान करते दादी मोटा सा डंडा लेकर उनके पीछे भागती और तुम्हें चाय ना दूं बाबू,,,,, फिर उन सब पर अपना वत्सल दिखाती,,,,, दादी का गुस्सा नहीं था उनके प्रति प्रेम था,,,,,,,, दादी का बैसे तो अपना कोई नहीं था लेकिन आसपास वालों का लंबा चौड़ा परिवार बन चुका था,,,,, मेरे घर में लोग कहते थे होटल वाली दादी मुझे  बहुत प्यार करती है।  मुझे भी वह दादी बड़ी प्यारी लगती थी।,,,,

 समय  चक्र आगे बढ़ रहा था,,,,, कि  एक दिन गोरेलाल चाचा (जो हमारे यहां चक्की चलाने का काम करते थे)ने सुबह-सुबह खबर दी कि होटल वाली दादी खत्म हो गई है।,,,,,, मन मानने को  तैयार नहीं था यह कैसे हो सकता है ।कल तो दादी बिल्कुल ठीक थी,,,,,

 

 सभी आसपास के दुकानदारों ने अपनी अपनी दुकानों को बंद कर रखा था ,,,,,,,, आसपास की सभी महिलाएं दादी के गुजर जाने पर गई हुई थी मेरी अम्मा भी गई थी दादी को बीच में लिटाया गया था और सभी बातें कर रही थी देखो कितनी भाग्यशाली है। किसी से एक गिलास पानी भी नहीं मांगा और सवेरे 5:00 बजे टॉयलेट के लिए आई थी और वही खत्म हो गई,,, खुले फाटक स्वर्ग में गई है।,,,,, एकादशी के दिन उनकी मुक्ति हुई है सीधा स्वर्ग मिलेगा ,,सुहागिन भी मारी थी क्योंकि बाबा अभी थे,,,,, कहने  के लिए दादी पराई थी लेकिन सभी लोग रो रहे थे सबको बहुत दुख था दादी के जाने का,,,,,, मेरा भी मन रोने का कर रहा था,,,, दादी का अपना तो खून का रिश्ता रखने वाला कोई भी शख्स वहां मौजूद नहीं था फिर भी बिना खून के रिश्ते के दादी का बहुत बड़ा परिवार उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए मौजूद था,,,, सभी ने मेरी होटल वाली दादी को नम आंखों से विदाई दी,,,,, और होटल भी सुना सुना सा रहने लगा,,,,, उनके होटल की तरफ  देखती मुझे बिल्कुल भी अच्छा ना लगता,,,,,, मुझे दादी की मन में बहुत याद आती,,,,, 

बाबा अकेले रह गए थे उनका शरीर बहुत कमजोर था अब उनके खाने पीने की व्यवस्था जिस दुकान में रहते थे उनके घर से होने लगी बाकी की आसपास के दुकानदार और उनके दुकान के बगल में एक डॉक्टर बैठते थे वह भी दिन में दो-चार बार जाकर देख लेते थे,,,,, 

सभी मिलकर बाबा की देखरेख कर रहे थे,,,,, दादी के जाने के बाद बाबा बिल्कुल अकेले पड़ गए बीमार रहने लगे,,,, दादी को गुजरे अभी एक महीना भी पूरा नहीं हो पाया था एक दिन की बात है। मैं अपने बाबा को चाय देने के लिए गई थी शाम के लगभग 4:00 बज रहे थे डॉक्टर जिनका बाबा के बगल बाली दुकान में क्लिनिक था वह बाबा को कुछ खाने के लिए  देने उनकी दुकान के अंदर गए,,,,, 

डॉक्टर साहब ने बाबा को दो-तीन आवाज़ लगाई बाबा कुछ भी नहीं बोले,,,, फिर उनका कंबल हटा कर देखा उनको हिलाया,,,,,, डॉक्टर साहब ने उनकी  नवज  देखी,,, डॉक्टर साहब जान चुके थे कि बाबा अब सदा के लिए दादी के पास चले गए हैं।,,,,, 

बाबा  ने होटल वाली दादी के जाने के ठीक एक महीने बाद दुनिया से विदाई ले ली ,,

जो  दादी के जाने की तिथि थी वही तिथि बाबा के दुनिया से जाने की भी थी,,,, यानी एकादशी थी,,,,, होटल वाली दादी और बाबा एक महीने की अंतराल में अपने दिल के बने हुए रिश्तों को छोड़कर चले गए,,,,, यह शायद बाबा का होटल वाली दादी के प्रति अत्यधिक प्रेम था

 

सभी लोगों ने इकट्ठे होकर बाबा का अंतिम क्रिया कर्म किया जो भी रीति रिवाज होते हैं वह सब किए गए बाबा का विधिवत रूप से मृत्यु भोज किया गया जिससे उनको मोछ की प्राप्ति हो,,,,, जो भी बाबा का क्रिया कर्म से लेकर उनके विधि विधान करने वालों में से बाबा का किसी से भी खून का रिश्ता नहीं था,,,,,,,

 

 बाबा के खून के रिश्ते किससे थे वह लोग कहां है कैसे हैं उनका क्या हुआ आज तक हम लोगों को नहीं पता,,, लेकिन यह बात जरुर कहना चाहती हूं होटल वाली दादी बाबा को खून के रिश्तों ने ठुकराया था,,,, और जिन उनका खून का रिश्ता नहीं था आज उनके साथ उनके लिए याद करने वाला बहुत लंबा चौड़ा परिवार था और है।,,,, आज भी जब मैं घर जाती हूं तो एक बार जहां उनका होटल था उस जगह मेरी नजर अनायासी पहुंच जाती है। वह मेरी स्मृति में सदा रहती हैं।,,, 

होटल वाली दादी के उदाहरण आज भी हमारे यहां लोग देते हैं। जिसका कोई नहीं होता उसका ऊपर वाला होता है और खून के रिश्ते जब ठुकराते हैं तो बिना खून के रिश्ते आकर थाम लेते हैं।,,, 

कहते हैं होटल वाले दादी बाबा की मुक्ति कितनी अच्छी भगवान ने दी,,,, उनकी कोई सेवा करने वाला नहीं था अपना नहीं था,,, इसीलिए प्रभु ने ऐसी गति दी,,, कहते हैं जब अपने छोड़ते हैं तो बाहर वाले बहुत  खड़े हो जाते हैं।,,,,, जब कोई हमारे यहां  खून के रिश्ते वालों से दुखी होता है तो कहते हैं मेरी भी कट जाएगी जैसे होटल वाले दादी  बाबा की कट गई,,,,,

यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है जो मैंने   बचपन अपनी आंखों के सामने घटित होते हुए देखी,,,,

होटल वाली दादी को देखकर मेरा भगवान पर विश्वास बड़ा अटल हो गया है। भगवान किसी को भी असहाय नहीं छोड़ते,,,, बहुत सारे बिना खून के रिश्ते भी अपने आप बनवा देते हैं जो खून के रिश्तो से बढ़कर होते हैं।,,,,,,

प्रतियोगिता हेतु

खून के रिश्ते

मंजू तिवारी गुड़गांव

स्वरचित मौलिक रचना सर्वाधिक सुरक्षित 

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