शांत गंगा –   बालेश्वर गुप्ता

सूर्य की लालिमा से गंगा की पूरी जल राशि लाल रंग में रंग कर झिलमिला रही थी।सूर्य मानो गंगा मैय्या के आंचल से ही उदय हुआ था।मनोहारी दृश्य था और जय गंगा मैय्या का नाद चहुँ ओर गूंज रहा था।हर की पैड़ी पर यह नित्य का ही क्रम है,बस तीर्थ यात्री बदलते रहते हैं।

      पर पूरे छः माह से एक बूढ़ा व्यक्ति रमेश नित्य ही हर की पैड़ी पर स्नान करता, आरती में शामिल होता और गंगा किनारे एक घंटे पूजा करता और फिर धीरे धीरे वहां से चला जाता। किसी से बातचीत नही,घुलना मिलना नही बस यही क्रम रमेश ने बना रखा था।गंगा किनारे बैठे पंडे और पुजारी भी अब रमेश को पहचानने लगे थे,वो सबको हाथ जोड़ अभिवादन कर अपने नित्य क्रम में लग जाता।

        दिल्ली के निवासी रमेश अब सब कार्यो से निवृत हो चुके थे।अपने एकलौते पुत्र सनी के साथ ही अपने द्वारा लिये एक फ्लैट में रह रहे थे।खूब धूम धाम से बेटे की शादी कर एक सुंदर बहू घर ले आये थे।अब घर मे खूब चहल पहल हो गयी थी,सुघड़ बहु ने घर की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी।रमेश जी भी घर के अनुशासन और मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखते और उसी अनुरूप सबको निदेशित करते रहते।इसी बीच घर मे पोते ने जन्म ले लिया अब तो रमेश जी की बल्ले बल्ले हो गयी,मानो उन्हें लाइफ लाइन मिल गयी थी,हर समय मुन्ना के साथ रहना ही उन्हें भाने लगा था।

बुजुर्गो की असली समस्या आज के युग मे अकेलापन होती है,मुन्ना के जन्म के बाद रमेश जी का अकेलापन उड़नछू हो गया था।बस कभी कभी मन मे आता काश सनी की माँ जीवित होती तो अपने पोते को देख कितना खुश होती।यह सोच कमला का चेहरा सामने आ जाता और आंखे छलछला जाती,पर अगले ही क्षण  वो मुन्ना को गोदी में ले उसे उछालने लगते और आँखों के आंसुओं को पूँछकर मुन्ना को कंधे पर बिठा बाहर पार्क में ले जाते।




इधर कुछ दिनों से रमेश जी को महसूस हो रहा था कि बेटा और बहू उससे कुछ कम ही बोलते और उसे उपेक्षित कर रहे हैं।मन का वहम समझकर रमेश जी मुन्ना में अपना मन लगा लेते।अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए वो बेटा बहू को कभी गृहस्थ जीवन समझाने लगते कभी कभी उनके कामो की अपने द्वारा किये गये कार्यो से तुलना करने लगते।यह सब सनी और उसकी पत्नी को पसंद नही आता, वो बस रमेश जी को देखकर इधर उधर हो जाते।इससे रमेश जी अपने को उपेक्षित और अपमानित मानते।और एक दिन रमेश जी बिना बताये घर छोड़ हरिद्वार आ गये।दो चार दिन वहां धर्मशाला में रहे,मन नही लगा तो सोचा गंगा की गोद मे ही विश्राम कर लिया जाये, पर अभी हिम्मत नही बन रही थी।आत्महत्या को भले ही कायरता पूर्ण कहा जाता हो पर उसे करने को जिगरा चाहिये।

      इसी ओहपोह में उनका सत्संग स्वामी शिवानंद महाराज से हो गया।एक दो दिन में ही रमेश जी ने अपने मन की पूर्ण व्यथा स्वामी जी को बता दी।स्वामी जी ने रमेश जी की अपने आश्रम में रहने खाने की व्यवस्था कर दी और आश्रम द्वारा संचालित एक स्कूल में उन्हें कुछ समय बच्चो को पढ़ाने तथा कुछ समय स्कूल की व्यवस्था देखने भालने मे ड्यूटी लगा दी।रमेश जी ने पूरे मनोयोग से अपनी सेवायें उस विद्यालय एवम आश्रम को अर्पित कर दी। प्रारम्भ में उन्हें मुन्ना की बेहद याद आती पर वो अपने मन की भावनाओ को दबा लेते।जैसे जैसे दिन बीत रहे थे वैसे वैसे रमेश जी का मन निर्मल होता जा रहा था।अब उन्हें किसी पर भी क्रोध नही आता था।उन्होंने अपने दिन के घंटों को गंगा मैय्या और आश्रम की सेवा में बांट लिया था।

      एक दिन रमेश जी गंगा घाट पर स्नान कर पूजा कर रहे थे कि उनके कानों में आवाज पड़ी अरे ये तो बाबूजी बैठे हैं।रमेश जी ने भी सनी की आवाज पहचान ली।सनी आकर अपने पिता से लिपट गया और भर्राए गले से बोला कहाँ कहाँ नही ढूंढा आपको बाबूजी।हमे यू ही छोड़ कर चले गये,बाबूजी मुन्ना का तो ध्यान किया होता।हमारी गलतियों की इतनी बड़ी सजा,कर दिया था ना हमे अनाथ।हमे माफ कर दो बाबूजी माफ कर दो।कहते कहते सनी और उसकी पत्नी रमेश जी के पैरों में लिपट गये।

     रमेश जी ने बेटे बहू और पोते को गले से लगा लिया।उन्हें वो आश्रम में ले आये।स्वामी जी से मिलवाया।स्वामीजी प्रसन्न हुए और रमेश जी से कहा पुत्र बेटा लेने आया है तो जाओ।

         अपने कमरे में आ रमेश जी ने सनी का हाथ अपने हाथ मे लेकर कहा, बेटा मैं नाराज होकर ही आया था ,यहां आकर इन छः महीनों में बेटा मैंने जीवन के तथ्य सीखे हैं।मेरे मन मे मेरे बच्चे तुम लोगो के लिये अब जरा भी नाराजगी नही है।मैंने इन दिनों में सीखा है कि हम जब अपनी पारी खेल चुके तो हम अब अपने बच्चों  की पारी में बेवजह क्यूँ दखलन्दाजी कर रहे हैं, ये अपने अधिकारों को अक्षुण रखने की पिपासा मात्र है जो मन को अस्थिर कर देती है अपने को पराया कर देती है।बेटा मुझे भी इसी अहंकार ने अशांत किया था।असल मे माफी मुझे मांगनी चाहिये।

     अवाक सा सनी अपने पापा का मुंह देखने लगा।पापा क्या कह रहे हों?आप घर चलो पापा जीवन भर आपको किसी शिकायत का अवसर नही देंगे,पापा आप जैसा कहोगे वैसा ही हुआ करेगा घर मे।

         सनी बेटे तुम कह रहे हो तो  मैं घर चलने को तैयार हूं,मेरा मन खुद मुन्ना के लिये तड़फता है।पर बेटा आज अपने इस बूढ़े बाप को एक अनुमति दे दे,यही रहने की इस उम्र में अब मैं इसी आश्रम में रहकर इन बच्चो के भविष्य के लिये काम करना चाहता हूं।बेटा दिल्ली दूर ही कितनी है,जब बाप से मिलने को मन किया तभी आ गया मेरे पास, मुन्ना को लेकर।बोल बेटा अपने बाप की बात मानेगा ना।

        आज आश्रम से विदा होते समय सनी की आंखों में जहां आंसू थे वही अपने पिता के लिये मन मे एक गर्व की भावना भी थी——!

#माफी 

            बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

स्वरचित एवं अप्रकाशित।

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