मातृभूमि के लाल – आरती झा”आद्या”

 

सबका उत्साह देखते ही बन रहा था। एक दूसरे के साथ चुहलबाजी चल रही थी। छुट्टी तो घर के लिए सिर्फ सौरभ को मिली थी।  जब सही से दाढ़ी मूँछ भी नहीं आती है। माँ के आँचल में ही अपना आशियाना समझते हैं बच्चे, उस उम्र में पढ़ने की अदम्य लालसा होते हुए भी घर की परिस्थितियों को देखते हुए उन्नीस साल का होते ना होते सौरभ फौज में भर्ती हो गया था।  सौरभ की तरह के वहाँ और भी बच्चे थे, जिन्हें परिस्थितियों ने परिपक्व बना दिया था। चार भाई बहनों में सबसे बड़ा था सौरभ। दिन गुजरते रहे.. चार साल बीत गए। सौरभ का वेतन घर पहुँचता रहा..घर की आर्थिक स्थिति सुधरी। भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई भी सुचारू रूप से चलने लगी। माता पिता की समाज में इज्जत होने लगी। इन चार साल के थपेड़ों ने सौरभ को एक मजबूत, कर्मठ और संघर्षशील युवा बना दिया था। फौज में तो आया था सौरभ घर के हालात सुधारने लेकिन अब वही सौरभ सिर्फ और सिर्फ देश के लिए सोचता था। देशभक्ति अब उसका जुनून था। जान हथेली पर लिए मर मिटने को तैयार था।

   मेस में भी खाने के साथ साथ गाना बजाना चल रहा होता है । साथ ही माँ से ये बनवा कर लाना.. वो बनवा कर लाना दोस्तों की माँग की लम्बी फेहरिस्त भी थी। लग रहा था सौरभ ही नहीं पूरा कुनबा ही घर जा रहा हो.. ऐसा उमंग.. ऐसा उल्लास छाया हुआ था और क्यूँ ना हो फौजियों के लिए अब एक जगह नहीं पूरा हिन्दुस्तान ही उनका घर द्वार था।

नियत समय पर फौज की गाड़ी आकर खड़ी हो गई। सामान रखकर सौरभ सबसे गले मिलने लगा। सबकी आँखों में बिछड़ने के आँसू झिलमिलाने लगे। 

अरे.. ना जाऊँ क्या.. फिर तुम लोग के पसंद के पकवान कैसे आएँगे… सौरभ आँखों में आँसू और लबों पर मुस्कान लिए सबको छेड़ता है। 

सौरभ की बात पर सब हँसते हुए उसे विदा करते हैं। गाड़ी सौरभ को स्टेशन तक पहुँचाने चल पड़ी। पहाड़ों की वादियों से गुजरता हुआ सौरभ को ऐसा महसूस हो रहा था मानो पहाड़ों के पेड़ पौधे.. हवा भी झूमती हुई उसे विदा कर रहे हैं। सौरभ अनायास पहाड़ों पर अपनी पहली पोस्टिंग को याद कर मुस्कुराने लगता है। वहाँ की मुश्किलें.. हड्डी गला देने वाली ठंड… सौरभ को लगा था.. वो रह नहीं सकेगा.. एक दो महीने होते होते या तो यहाँ से परलोक या घर रवाना हो जाएगा.. कुछ ऐसा ही सोचा था सौरभ ने। पर इन सभी मुश्किलों पर भारी पड़ी देशभक्ति। 

खुद में गुम.. खुद से बातें करते करते स्टेशन पर पहुँच गया सौरभ.. रेलगाड़ी लगी ही थी। अपने बैग को कंधे पर लिए अपनी बोगी और बर्थ पर जाकर बैठ गया सौरभ। इतने दिनों बाद सबसे मिलने की उत्कंठा में सौरभ सोया भी नहीं । रात का सफ़र आँखों ही आँखों में कट गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। सौरभ ने पलट कर देखा और दोनों एक दूसरे के गले लग गए। कोई और नहीं सौरभ के बचपन का दोस्त और सरपंच का बेटा कर्ण था। एक युग बीत गया था मानो देखे हुए। सरपंच भी साथ आए थे.. उन्हें देख सौरभ चरण स्पर्श करने के लिए झुक गया। सरपंच सौरभ को बीच में ही रोक गले लगाते हुए बोलते हैं.. तुम्हारी जगह यहाँ है बेटे। जो सरपंच कभी आर्थिक हैसियत में अन्तर के कारण अपने बेटे कर्ण को सौरभ के साथ दोस्ती करने से मना करते थे। आज उनका ये रूप देखकर सौरभ भाव विभोर हो जाता है। सौरभ की नजरें अपने पिता को ढूँढने लगती हैं.. जिसे सरपंच समझ जाते हैं। 



रामदयाल नहीं आया है बेटे। उसकी खुशी सम्भल नहीं रही है.. कहीं तुम्हें उसकी नजर ना लग जाये.. इसीलिये उसने हमें ही आने कहा.. पिता का प्यार है बेटे.. चलो बेटा सब इंतजार कर रहे हैं तुम्हारा… सरपंच सौरभ से कहते हैं। 

कुछ ही देर में अपनी मिट्टी.. अपने गाँव की दहलीज पर खड़ा था सौरभ। गाँव की साज सज्जा देख सौरभ हतप्रभ रह जाता है। 

किसी की शादी है क्या.. सौरभ कर्ण से पूछता है। 

नहीं दोस्त उससे भी बड़ी बात है। आज हमारा शेर घर आया है। ये सब तुम्हारे लिए है। गाड़ी से उतरते ही माँ पिता भाई बहन को देखते ही सौरभ उनसे लिपट जाता है। सौरभ और उसके माँ बापू के आँखों की अश्रुधारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी। सौरभ की माँ रोते रोते बार बार सौरभ का चेहरा चूमे जा रही थी।माँ बेटे का प्यार देख वहाँ खड़े लोगों भी भावुक हो गए और सबकी आँखों में आँसू आ गए। 

सब रोते ही रहोगे कि सौरभ को कुछ खाने पीने भी दोगे.. आज सरपंच के द्वार पर ही पूरे गाँव के लिए ही दोपहर के खाने का इन्तेजाम किया गया था। सौरभ के आने की खुशी में सरपंच ने दावत रखा था। सरपंच की बात सुनकर सबने सौरभ को घर तक जाने के लिए मार्ग बना दिया। फूलों की बरसात के बीच सौरभ को उसके घर तक पहुंचाया गया। धीरे धीरे सब तैयार होकर सरपंच के घर के अहाते पर पहुंचने लगे। थोड़ी देर बाद सौरभ और उसके परिवार वाले भी आ गए। सौरभ के लिए मंच बनाया गया था..

जहाँ से सौरभ सभी को संबोधित कर सके। सौरभ को अपने इस स्वागत सत्कार सम्मान की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वो मंच पर रूंधे हुए गले के साथ निःशब्द था। 

तुम लोग अपने ऊपर जो कष्ट झेलते हो। तुम लोगों के द्वारा स्वयं के सुख चैन आराम परिवार के त्याग के कारण ही हम सब सुख की नींद ले पाते हैं। तुम लोग का त्याग अनुकरणीय है। धन्य हो बेटा तुम और हिंदुस्तान की फौज.. सरपंच सौरभ को भावुक देखकर कहते हुए पीठ थपथपाते हैं। 

सौरभ को उसके पिता के हाथ से सम्मान पत्र दिलवा कर सम्मानित किया जाता है। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दावत शुरू होती है। सब संतुष्ट हो सौरभ से मिलकर अपने अपने घर चले जाते हैं। सौरभ और उसके माता पिता भी सरपंच को इस सम्मान के लिए धन्यवाद ज्ञापित कर घर आते हैं।

सौरभ माँ की गोद में आँख बंद कर लेटा हुआ जन्नत के सुख ले रहा था। सौरभ नींद के आगोश में चला जाता है। उसकी माँ एकटक बेटे को देखती हुई उसके बालों को सहला रही होती है। 

कई बार सौरभ के भाई बहन माँ से कुछ पूछने.. कुछ कहने आए.. पर सौरभ की नींद में खलल ना पड़े इसलिए सबको उनकी माँ ने मुँह पर अपनी ऊँगली रख चुप रहने का इशारा कर जाने को कहा। 

सौरभ अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा.. बाहर अँधेरा घिर गया था.. माँ को उसी तरह बैठा देख खुद पर शर्मिंदा हो उठा। 

मैं इतनी देर तक सोता रहा.. मुझे जगा तो दिया होता माँ.. इतनी देर तो हमलोग कभी नहीं सोते हैं.. सिर्फ झपकी लेते हैं… तुम्हारे पैरों में दर्द हो गया होगा माँ.. कहता हुआ सौरभ माँ के पैर दबाने लगा।

पगला.. तो क्या हुआ इतनी देर सोया तो.. इतने दिनों से तुम्हें देखने के लिए तरस गई थी.. इसी बहाने जी भर कर देखा तुम्हें… अपने पैरों से उसके हाथ हटाती हुई माँ ने कहा। 

ये बताओ.. रात के खाने में क्या बनाऊँ.. माँ खड़ी होते हुए पूछती है। 



भात(चावल) दाल, चोखा बनाना माँ.. मैं भी तरस गया हूँ इन सब चीजों के लिए.. सौरभ भी खड़ा होता हुआ कहता है। 

तुम हाथ मुँह धो लो.. मैं तैयारी करती हूँ.. माँ बोल कर रसोई तरफ बढ़ चली। 

सौरभ जाकर अपने पिता और भाई बहनों के पास बैठ गया और बातें करते हुए सबके लिए लाए हुए उपहार निकालने लगा। 

सबको खाना देकर माँ सौरभ के पास ही बैठ गई… एक कौर खाते ही सौरभ की रुलाई फूट पड़ी.. बहुत याद आती है माँ तुम लोगों की… कभी कभी मन करता है लौट आऊँ… सौरभ रोते रोते कहता है। 

ना मेरे बच्चे ना.. तुम्हारी इस माँ के साथ साथ तुम्हारी उस माँ को भी तुम्हारी जरूरत है..आँचल से सौरभ के आँसू पोछती अपनी रुलाई को किसी तरह रोकती हुई माँ कहती है। 

सौरभ खुद को व्यवस्थित करता अवाक हो गए भाई बहनों की ओर देख हँसता हुआ फिर से खाने लगता है। 

तुम्हारे हाथ का खाना खाकर अब मन तृप्त हुआ माँ मेरा.. अमृत के समान है ये मेरे लिए… सौरभ माँ से कहता है। 

बेटा हम तो सोच रहे थे कि इतनी लंबी छुट्टी तुझे फिर मिले ना मिले.. अच्छी भली लड़की देख तुम्हारी शादी कर देते हैं.. माँ की तरफ देखते हुए पिता ने कहा।

नहीं नहीं बापू.. शादी ब्याह का मैंने कभी सोचा ही नहीं है..सौरभ कहता है। 

कैसी बात कर रहे हो तुम.. मुझे भी अपनी बहू देखनी है.. पोते पोतियों के संग खेलना है.. माँ कहती है। 

मेरी प्यारी माँ.. तुम्हारा ये बेटा अब मातृभूमि का बेटा हो गया है और श्मशान उसका घर.. जाने कब उस घर से बुलावा आ जाए और इस फौजी को घर लौटना पड़ जाए। हम जीवन के सारे मोह का त्याग कर ही माँ भारती के लिए पूर्ण रूप से समर्पित हो सकते हैं। ऐसे में किसी और की जिन्दगी खुद के साथ बाँधना उसके सुख चैन के प्रति अन्याय ही होगा.. सौरभ माँ को समझाते हुए कहता है। 

क्या अनाप शनाप बक रहे हो बेटा..बेटे की बात सुन आँखों में आ गए पानी को आँचल के कोर से पोछती माँ ने कहा। 

क्या माँ.. रोकर कमजोर मत बनाओ अपने बेटे को। बस जब मैं उस घर की ओर लौटने के लिए आऊँ तो तुम भी अपने आँसुओं का त्याग कर मुस्कुरा कर मेरा स्वागत और विदा करना… आसमान की ओर इशारा करता हुआ माँ को अपने बाहुपाश में जकड़ते मातृभूमि के लाल ने अपनी इच्छा व्यक्त किया। 

 #त्याग 

आरती झा”आद्या” (स्वरचित व मौलिक) 

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