इससे बड़ा भी त्याग हो सकता है क्या ? – सुषमा यादव

मेरे साथ मेरे पिता जी और श्वसुर दोनों रहते थे, मेरी एक बेटी दिल्ली में और दूसरी बड़ी बेटी पेरिस में,, बड़ी बेटी की शादी दिल्ली में तय हुई, मैंने महिला संगीत यहां अपने कार्य स्थल म, प्र, में किया और बेटी को लेकर दिल्ली चली गई,इन दोनों बुजुर्गों को लाने की जिम्मेदारी मैंने अपने किरायेदार को सौंप दिया, वो शादी से एक दिन पहले सुबह दिल्ली पहुंच जायेंगे, जिस दिन शादी थी, वो लोग नहीं आये, फोन आया, श्वसुर जी को बुखार है,शाम को बारात आने के पहले फिर फ़ोन आया, वो बेहोश हैं, डाक्टर ने भर्ती करने को कहा है,

मेरा मन शादी में नहीं लगा, मैंने किसी तरह निपटाया, बेटी के लिए तो केवल मैं ही पिता और मां थी, मैंने दूसरे दिन सुबह चार बजे तड़के सबको कह दिया, अब मैं वापस जा रही हूं, तुम सब बेटी की विदाई कर देना, बेटी बिलखते हुए बोली, मम्मी, मैं पेरिस जा रही हूं, पता नहीं कब मिलूंगी, मैंने कहा,बेटा,अब तुम्हारे दादा मेरी ज़िम्मेदारी हैं, और मैं तुरंत बिना बेटी की विदाई किये बगैर वापस लौट आई और तुरंत उन्हें भर्ती कराया, ये मेरी और मेरी बेटी की खुशी की घड़ी में एक त्याग ही तो था, अपनी ससुर के लिए अपने अरमानों का गला घोंट दिया,,

 वो तो चले गए, अब पिता जी मेरे साथ हैं,हम सब दिल्ली में छोटी बेटी के साथ ही रहते थे, पता नहीं, क्या हुआ कि पिछले महीने से पिता जी ने ज़िद पकड़ ली कि हमें रीवा जाना है, हमने उन्हें बहुत समझाया कि बस एक दो महीने में हम चलते हैं, बाबू जी,आपकी ये नातिन भी लंदन जा रही है,अब हमें जाने कब देखने को मिले,इसे भेज कर चलते हैं,पर वो तो जैसे कोपभवन में चले गए, 

और खाना पीना सब बंद कर दिया, मुझे मजबूरन उन्हें लेकर वापस आना पड़ा, परंतु यहां आकर भी वो चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते हैं, अच्छे से खा पी रहे हैं,पर बोलना चलना सब बंद,बस आंखें ताकते हुए ऊपर या बाहर देखते रहते हैं, इधर मेरी बड़ी बेटी को मेरी बहुत सख्त ज़रूरत है, वो बार बार कह रही है, मम्मी, एक महीने बाद मैं अपनी ये तीन साल की बच्ची और इस नन्हें बच्चे को कैसे संभालूंगी,, प्लीज़ आप आ जाईए,,, छोटी बेटी सामान के पैकिंग में अकेले ही परेशान हो रही है,,

 एक हफ्ते में उसे लंदन चले जाना है,पर उसकी मां उसके पास नहीं है, कहती है, मम्मी, जाने के पहले एक बार आकर मिल लो,दो दिन के लिए ही आ जाइए, मैं कहती हूं, मेरी बिटिया, मैं बहुत मजबूर और लाचार हूं, बाबू जी बड़ी मुश्किल से खड़े हो पाते हैं, मैं इन्हें लेकर नहीं आ सकती,, मैं दिन रात रोती रहती हूं, क्या करूं,तो दोनों बोली, किसी को रख कर आ जाईए, 



मैंने कहा, मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती, वो गिरे पड़े रहेंगे, कोई उठाने वाला नहीं रहेगा, एक बार दोनों बेटियों ने वीडियो कालिंग करके कहा, मम्मी,आप नानाजी को मामा के यहां भेज दीजिए, उनसे कहिए आकर ले जायें, वो वहीं पास में ही तो रहते हैं, आप दो महीने बाद यहां से वापस जाकर ले आना, मैंने कहा,

बेटा मैंने और मेरी सहेली ने बहुत समझाया पर वो कहता है,ना मैं आऊंगा ना अपने घर आने दूंगा,

अब बताओ,कि मैं क्या करूं, आखिर वो मेरे पिता हैं, मैं उन्हें अकेले किसी के भरोसे छोड़कर नहीं आ सकती, हरगिज़ नहीं,

तुम दोनों सोच लो, तुम्हारे मां और पापा दोनों नहीं हैं,मेरे बिना जीना सीख लो,, मम्मी,आप उनके लिए हम दोनो की खुशियों का त्याग कर रहीं हैं, हमारे लिए तो केवल आप ही हैं, आपका नानाजी के लिए इतना त्याग और बलिदान किस काम का, जिंदगी भर तो उन्होंने आपको माना नहीं, अपने बेटे बहू का ही गुणगान करते रहे, और अब भी उनके मन में है कि मेरा बेटा आकर अब शायद ले जाये,,, ठीक है बेटा, उनका पुत्र मोह तो रहेगा ना, मेरी करनी मेरा त्याग भगवान देख रहे हैं,

 तुम सब सकुशल रहो,बस मेरा यही आशीर्वाद है, अगर भगवान चाहेंगे तो कभी तुम्हारे नन्हे बच्चे को देखने आ जाऊंगी एक दो साल बाद, जिंदगी रही तो, अगले पल का तो भरोसा नहीं है,कब क्या हो जाये,, और मैंने साॅरी कहा, हैप्पी जर्नी कहकर फ़ोन बंद कर दिया, और अपनी बेबसी पर तड़प कर आंसू बहाने लगी,ओह , मेरी बेटी, अकेले ही सब कुछ कर रही है, और वो बड़ी बेटी अकेले ही अस्पताल में जूझेगी, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती,बस छटपटाने के सिवाय कोई चारा नहीं है,,

भगवान परदेस में तुम दोनों की रक्षा करे,

अपने पिता के लिए मैं अपनी सब

खुशियों का त्याग कर सकती हूं,

# त्याग

 

सुषमा यादव. प्रतापगढ़.उ, प्र,

 

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

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