मर्यादा – निभा राजीव “निर्वी”

“तेरा दिमाग तो नहीं चल गया कहीं! क्या अनाप-शनाप बके जा रही है तू! तू इस घर की बहू है बहू! हमारा मान और सम्मान !हमने तुझे थोड़ी छूट क्या दे दी तू तो सर पर चढ़कर बैठ गई। अरे मेरे बेटे को तो खा ही गई, अब क्या घर की मान मर्यादा और इज्जत को भी बेच कर खाएगी। तूने क्या सोचा,दो पैसे कमाती है तो जो जो तू कहेगी हम मानते जाएंगे? धौंस जमा लेगी हम सब पर ! ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता! तुझे तो ना अपने दायित्व का ख्याल है ना इज्जत का! चल पड़ी है फिर से ब्याह रचाने को! मनहूस कहीं की! ” गीता की सास आपे से बाहर हो रही थी और ताबड़तोड़ आग उबल रही थी!

      “तो मैंने अपने दायित्वों से कब इनकार किया है मांजी! मैं आप सबका पूर्ववत ध्यान रखती रहूंगी! फर्क सिर्फ इतना है कि मेरे साथ मेरे जीवन में अब रमेश भी होंगे!” गीता ने दबी जुबान से कहा।

     ” एक तो निर्लज्जता कर रही हो ऊपर से जुबान भी लड़ा रही हो। बकवास बंद करो और अंदर जाओ।”

ससुर गरजे।

     “जी,मैंने गीता से कभी नहीं कहा कि वह अपने दायित्वों से मुंह मोड़ ले। वह पहले की ही तरह आप सबका ध्यान रखती रहेगी। मैं तो पूरे सम्मान के साथ बस गीता का हाथ मांगने आया हूँ।” रमेश ने पूरी विनम्रता से कहा।

   ” बेहतर होगा कि तुम चुप रहो ।हम अपने घर के मामलों में बाहर वालों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते।” गीता की सास ने रमेश को घूरते हुए कहा

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         “भाभी, हद होती है बेशर्मी की! अगर आपको अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभानी थी तो ना निभाती! इन महाशय को क्यों अपने प्रेम जाल में फांस लिया।” गीता की ननद अनीता क्यों पीछे रहती। उसने भी ढिठाई के साथ कड़वाहट बिखेर ही दी।

       गीता को सब ने मिलकर अपराधिनी की तरह कटघरे में खड़ा कर रखा था मानो। गीता ने कातर स्वर में कहा-” मांजी, मेरे पति संजय की मृत्यु हृदय गति रुक जाने से हो गई, इसमें मेरी क्या गलती है। सुहाग तो मेरा भी उजड़ गया। सपने तो मेरे भी टूटे! उनके जाने के बाद भी मैंने आप सब का हमेशा ख्याल रखा है। मैं घर के काम के साथ-साथ बाहर निकल कर नौकरी भी करने लगी ताकि मेरे देवर और ननद विजय और अनीता की पढ़ाई अधूरी ना छूट जाए! आपकी और पिताजी की दवाइयां समय से आती रहें। आज जब अनीता की पढ़ाई पूरी हो चुकी है, विजय अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है तो मैंने जरा सा अपने बारे में सोच क्या लिया, आप सब ने मर्यादा की दुहाई देनी शुरू कर दी। मां जी रमेश जी बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं। इन्हें मेरी सारी परिस्थितियां मालूम है और यह मुझे मेरी जिम्मेदारियों के साथ अपनाने को तैयार हैं। मेरे अकेलेपन के साझीदार बनने को तैयार हैं।एक बार मेरी जगह अनीता को रख कर सोचिए।”

           “मेरी बेटी से तो तू अपनी तुलना ना ही कर। तेरे जैसी बेशर्म नहीं है मेरी बेटी। उसके अंदर संस्कार कूट-कूट कर भरे हैं। वह तुझे जैसी…..” गीता की सास के बाकी शब्द मुंह ही में रह गए।

“किन संस्कारों और मर्यादा की बात कर रही हो मां!”अचानक विजय अंदर आता हुआ बोला।

” जिस अनीता की तुम इतनी तरफदारी कर रही हो, उसने तुम्हारे मुंह पर कालिख पोतने में कोई कसर बांकी नहीं रखी थी। यह तो मोहल्ले के सबसे आवारा लड़के राजेश के साथ सारे गहने जेवर लेकर भागने को तैयार थी। वह तो भाभी को सही समय पर पता चल गया क्योंकि उन्होंने अनीता को फोन पर उससे बातें करते हुए सुन लिया था। फिर भाभी ने सही समय पर समझा-बुझाकर अनीता का मार्गदर्शन किया और उसे गलत रास्ते पर जाने से रोका वरना आज तो हम कहीं के नहीं रहते। विश्वास नहीं होता तो पूछ लो अनीता से तुम्हारे सामने ही खड़ी है ।”



अनीता नजरें नीची कर एक कोने में सिमट गई। उसकी झुकी हुई आंखें सारी सच्चाई बता रही थी।

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     “आज मैं पढ़ लिखकर कुछ बन सका हूं, वह भी भाभी की बदौलत ही। वरना पैसों के अभाव में मेरी भी पढ़ाई छूट गई होती। और आज उनके जीवन में छोटी सी खुशी आने वाली है तो आप सबकी आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बंध गई। आप सबको सिर्फ अपना स्वार्थ दिख रहा है भाभी की खुशियां नहीं। लेकिन मैं भाभी के साथ हूं। रमेश बाबू आप विवाह की तैयारियां प्रारंभ करें और मां अगर तुम्हें समाज की इतनी ही चिंता है तो कोई पूछे तो कह देना कि अपनी इस बहन का विवाह विजय करवा रहा है। आप सब को मेरा साथ देना है तो दो अन्यथा मैं अकेले सब कुछ संभालने में समर्थ हूं।”

         गीता के साथ ससुर सारा सच जानकर रो पड़े। गीता के सास ने भावुक होकर गीता से कहा”- बेटी मुझे माफ कर दे। मैं स्वार्थ में अंधी हो गई थी। मुझे सही गलत का भान नहीं रहा।”

         गीता ने भावुक होकर उनके चरण छू लिए, “-नहीं नहीं मां जी आप कैसी बातें करती हैं। भला एक मां अपनी बेटी से माफी मांगती हुई अच्छी लगती है क्या।”

   अभी गीता के ससुर जी बोल उठे “-अरे भई, बातें ही करती रहोगी या विवाह की तैयारियां भी करोगी। देखो कितने सारे काम पड़े हैं। चलो फटाफट सब काम पर लग जाओ। मेरे घर की मान मर्यादा मेरी बड़ी बिटिया की शादी है।”

        रमेश ने आगे बढ़कर गीता के सास ससुर के पांव छू लिए। उन्होंने मुस्कुराकर रमेश के हाथों में नेग पकड़ाया।  सही समय पर विजय की समझदारी के कारण खुशियां एक बार फिर से घर में खिल उठीं।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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