मकड़जाल – कंचन श्रीवास्तव’

कल्पना से परे था जो कुछ हुआ पर सहने के अलावा कोई चारा नही इसलिए सहना पड़ा।फिर धीरे धीरे वक्त की धूल जमने लगी।

पर मैंने देखा जैसे ही पहली परत बनने वाली थी कि किसी ने आकर उसे उंगली के हटाने की कोशिश की और कामियाब भी हो गई ,पर उतना ही हटा पाई जितनी दूर तक उंगली उनकी गई।

सही भी है जब हर कोई विरोध में खड़ा हो तो सफाई  किस किस को देते।

अखबार पढ़ना तो दिखावा था उसे तो याद आ रहे वो दिन  जब सारे भाई बहन एक साथ पढ़ते ,खाते ,सोते जागते और घूमने जाते थे।

बड़े भाई पर पूरी जिम्मेदारी  डाल मां खुद फ्री हो जाती ।

और हम सब खूब मौजों मस्ती करते।

सच रविवार और त्योहार का दिन पलक झपकते ऐसे बीतता की पता ही न चलता कब आया कब चला गया।

और उसके बाद फिर सब अपने अपने काम में लग जाते।

धीरे धीरे वक्त बीतता गया।


हम जवान हुए ,अब जवान हुए तो सबसे बड़ी मैं थी इसलिए सबसे पहले मेरी शादी हो गई।फिर हमने सबकी शादियों का खूब मज़ा लिया।

तब तक तो सब कुछ ठीक था पर धीरे धीरे घर का माहौल बदलने लगा।

बदलना लाजमी भी था। कुछ नए लोग आए कुछ लोग गए ,इससे विचारों में मतभेद होने लगा।पर फिर भी चलता रहा क्योंकि हम भाई बहनों के विचार एक थे।

और तब और अच्छा लगा जब हमारे बच्चों के विचार भी आपस में मिलने लगे।

खुशी हुई देखकर के चलो कोई बात नहीं आगे भी निभ जाएगी।

पर कहते हैं ना कि अपना सोचा कुछ नहीं होता।

बहुत सजो कर रखा पर अंत में बिखर ही गया।

बिखरना ही था जवान होते बच्चों को लेकर कुछ शक ने जन्म लिया और मतभेद मन भेद में बदल गया।

फिर तो आना जाना बात चीत सब बंद हो गया।

जिसको लेकर मैं बहुत परेशान रहने लगी।

पर करती क्या कहने सुनने को कुछ बचा ही नहीं था।


और फिर कहा वहां जाता है जहां मिल बैठकर बात की जाती है जहां सब कुछ खत्म करने पर इंसान तुला हो तो क्या कहना। फिर मन में आया

किस किस को सफाई दे और क्यों दे , पर कहते हैं ना कि सांच को आंच नहीं एक न एक दिन गलतफहमी दूर ही हो जाती है बस वही यहां हुआ वर्षो बाद आज  फोन आया तो उठाया।तो वर्षों के अंतराल ने बाद ढीली पड़ चुकी रिश्तों की पकड़ी को

बहुत कसने की कोशिश की  पर कस न  सकी और

ऐसा नहीं कि हम भी कहना नहीं चाहते थे पर जितना ही करने की कोशिश करते कड़वी यादें तरोताजा होती जाती।

मैंने देखा सिर्फ कस पाई तो मां ।

क्योंकि उससे  ममता का रिश्ता रहा ।मैने महसूसा  कि वही तड़प उसमें आज भी  है जो वर्षों पहले छूटते वक्त थी।

आज उसे ऐसा लगा कि सचमुच वक्त के साथ सभी रिश्तों की पकड़ ढीली पड़ सकती है पर ममता की नहीं।

तभी तो फोन आते ही रिश्तों के मकड़जाल से निकल मां की आवाज़ सुनते ही अखबार एक तरफ रख फोन पर ही फूट फूट कर रो पड़ी।

कंचन आरज़ू

स्वरचित

 

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