मैं संस्कारहीन ही अच्छी हूं – निशा जैन : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  :  आज सुधा बहुत खुश थी क्योंकि आज पहली बार उसने खुद से आटे,बेसन के लड्डू और मठरी बनाए थे।

वैसे तो हमेशा ये नाश्ता मायके में उसकी मां और ससुराल में उसकी सासू मां ही बनाती थी पर जब से पति की नौकरी ससुराल से दूर शहर में लगी उसको ये सब बनाना सीखना पड़ा पहली बात तो ये कि उसको और उसके पति को मीठे खाने का बहुत शौक था इसलिए घर में कभी मीठा खत्म नहीं होता था और कभी गलती से भी मीठा नही होता तो दोनो पारले जी के बिस्किट या चॉकलेट खाकर मन भरते थे।

दूसरा शहर में मिठाई बहुत महंगी कीमत की और गांव की तुलना में कम स्वादिष्ट भी मिलती थी साथ ही फ्रेश भी नही मिलती थी।

इसलिए सुधा घर पर ही कुछ न कुछ मीठा बनाती रहती थी।

आज वो ससुराल आई थी एक हफ्ते की छुट्टी मनाने । उसके ननद , देवर भी आए थे होस्टल से और सबको लड्डू और मठरी का नाश्ता बेहद पसंद था।

सासू मां ने आज खाने में सबको दाल बाटी, लहसुन और हरे धनिए की चटनी बनाई तो सूखे नाश्ते की जिम्मेदारी सुधा ने ली आखिर वो भी सबको दिखाना चाहती थी कि वो भी किसी से कम नहीं है।

उसने फूल मखाना, काजू,बादाम, गोंद, किशमिश सब फ्राई किया फिर आटा सेकने लगी थोड़ी देर में आटे की भीनी भीनी खुशबू से घर महक उठा और ननद, देवर और उसके पति राकेश के मुंह में पानी भी आने लगा बार बार आकर पूछते कब बनेंगे लड्डू… बच्चों की तरह उनसे लड्डू बनने का इंतजार नही हो रहा था।

आज सुधा भी बड़े मन से लड्डू बनाने में लगी थी और बनाते हुए अपने बचपन को भी याद करती जा रही थी जब वो लड्डू खाने के लिए कितना तत्पर रहती थी अपने ननद देवर की तरह और जब भी उसकी मां लड्डू बनाती वो पूरा समय उसके आस पास ही घूमती रहती ताकि सबसे पहले लड्डू का भोग वो ही लगाए और आखिर सब भाई बहनों में सबसे छोटी भी तो थी वो।

बहु अब तो अच्छी खुशबू आने लगी , गैस बंद कर दे जैसे ही सासू मां ने कहा सुधा अपने अतीत से बाहर आई और लड्डू का बाकी काम करने लगी

लड्डू बहुत स्वादिष्ट बनकर तैयार हुए थे। सबने बहुत तारीफ की और सुधा बहुत खुश हुई।

पर उसने एक भी लड्डू नही चखा क्योंकि आज भारी खाना खाने से उसको शायद बदहजमी हो गई और काम में व्यस्त होने के कारण वो अच्छे से पानी भी नहीं पी पाई तो उसको हल्का पेट दर्द भी था।

दो तीन दिन उसका ये ही हाल था फिर घर में सब इकट्ठा हुए थे तो कुछ ना कुछ बनता रहता था और स्वाद स्वाद में वो खा ही लेती बस लड्डू उसने अब तक चखे नही थे। तो आज सोच रही थी कि लड्डू खाकर अपनी मम्मी को बताएगी कि उनकी बेटी भी लड्डू बनाना सीख गई

पर ये क्या जब उसने लड्डू का डिब्बा खोला उसमे लड्डू थे ही नहीं बस इसका चूरा ( लड्डू के टूटे हुए टुकड़े) पड़ा था।

उसने सासू मां से पूछा…. मम्मी जी लड्डू इतनी जल्दी खत्म भी हो गए? मैने तो अभी खाया भी नही था…

अरे बहु तुमने क्यों नहीं खाया? यहां लड्डू सबको बहुत पसंद है इसलिए सब बेहिसाब लड्डू खाते हैं और तुम्हारे ननद देवर तो …. जब लड्डू मठरी बनते हैं तब खाना ही भरपेट नही खाते बस पेट को लड्डू मठरी से ही भरते हैं। कोई बात नही अगली बार बने तो खा लेना। वैसे भी गृहिणी तो दूसरों को खाते देख अपना पेट भर लेती है।

( सुधा मन ही मन सोची ये क्या बात हुई भला? गृहिणी बस बनाने के लिए ही है क्या, क्या हमे अपनी इच्छा से खाने पीने का कोई हक नही? हम क्यों हमेशा सबके लिए कुर्बानी दें?)

पर मां जी ये तो गलत बात है । आपको सबके हिस्से बराबर से देने चाहिए। हमारे यहां तो ऐसा ही होता है।

ये क्या कह रही है बहु ? अब तू मुझे सिखाएगी क्या गलत है और क्या सही। ये ही संस्कार सिखाए हैं तेरी मां ने। कितनी संस्कारहीन बहु है मेरी ये आज पता चला

और सुन बहु मुझे नसीहत मत दे कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। तुम्हारे यहां क्या होता है और क्या नहीं इससे मुझे कोई मतलब नहीं

सुधा अपना सा मुंह लेकर रह गई पर अब उसे अपनी मां की दी हुई नसीहत याद आने लगी जब वो भी बचपन में पापा के हिस्से का खाना खा लेती थी। और पापा खाने से वंचित रह जाते। उसकी मम्मी उसे मना करती तो वो बोलती आप मुझे प्यार नही करते बस पापा ही प्यार करते हैं जो कभी भी मुझे मना नही करते खाने पीने से।

बेटा मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं इसलिए ही तुम्हे ये नसीहत देती हूं कि सबको मिल बांट कर खाना चाहिए। घर में चार लोग हैं और तीन मन भर के अपनी पसंद का खाना खा ले पर चौथे को बिल्कुल भी न मिले , ये तो गलत बात है ना। ये संस्कार लेकर ससुराल जायेगी तो सब क्या बोलेंगे?

इसलिए पहले सबको बराबर मिलना चाहिए फिर बचे तो अपने बारे में सोचना चाहिए।

हां मां मैं समझ गई आगे से ध्यान रखूंगी

अब जब भी घर में कोई मिठाई या फल या कोई भी अच्छा खाने का सामान आता तो सुधा पहले सबसे पूछती कि सबने खाया या नहीं फिर ही बचा हुआ हिस्सा खाती।

उसकी मम्मी हमेशा किसी भी चीज के उतने हिस्से करती जितने घर में लोग होते ताकि सबको समान खाने को मिले।

ये संस्कार उसको मां से ही मिले थे और संस्कारहीन बोलकर उसकी सासू मां ने उन्हीं संस्कारों पर सवाल उठा दिया

जबकि उसके ससुराल में सासू मां जो भी फल या मिठाई आते उसे एक प्लेट में डालकर सबके सामने रख देती या फ्रीज के ऊपर ।अब कोई ज्यादा खा लेता तो कोई कम और कोई तो बिना खाए ही रह जाता

सुधा को ये अच्छा नही लगता क्योंकि अक्सर उसके हिस्से में कम आता । वो घर की बहु थी तो खाने में झिझकती थी और खुल कर अपनी बात नही रख पाती थी।

अगले दिन उसकी बड़ी ननद अपने बेटे के साथ आई हुई थी और सासू मां ने ब्रेड का पूरा पैकेट उस के सामने रख दिया । अब बच्चे तो बच्चे ठहरे, सही गलत की समझ उन्हें कहां होती भला।

उसने तब तक ब्रेड किसी को नही दी जब तक उसका पेट नही भर गया। सुधा ने जब उसे समझाने की कोशिश की तब उसकी सास बोलने लगी

अब तू रहने दे बहु , अपनी नसीहत अपने पास ही रख। बच्चा है खा लिया तो कौनसा गुनाह कर दिया। और बड़े होकर अपने आप समझ जाएगा। तुझे उस दिन भी समझाया था ये संस्कार हमारे यहां के नही है कि खाते हुए को रोक दो या बहु होते हुए भी अपने बारे में पहले सोचो

नही मां जी आप उसकी आदत बिगाड़ रही हैं। उसको हपसी और जिद्दी बना रही है। वो सिर्फ अपने बारे में सोचेगा , किसी को मिले या नही मिले उसको कोई मतलब नहीं।

दीदी आप बुरा मत मानिए…. छोटा मुंह और बड़ी बात पर ये तरीका सही नही है ।आप जरा सोचकर देखिए….. बच्चों को बांटकर खाने की आदत होनी चाहिए ……हां या नही

हां मां सुधा भाभी सही कह रही है। मुझे भी लगता है कभी कभी ,आरुष जिद्दी हो गया है । अपने अलावा किसी के बारे में सोचता ही नही। कभी कभी तो जब इसके पसंद की चीज घर आती है तो ये मुझे और इसके पापा को हाथ तक नहीं लगाने देता

अब सुधा ने आरुष को सिखाने के बहाने सबको अपनी मंशा से अवगत करवाना उचित समझा

उसने फ्रीज से अंगूर निकाले और उनको आठ हिस्सों में बांट दिया और आरुष को बुलाया

आरुष ये सबको देकर आओ… जाओ

मामी ये आपने अंगूर का बंटवारा क्यों कर दिया? नानी तो एक ही प्लेट में सबको रख देती है और सब उसी में से खाते है एक साथ बैठकर

बेटा मैं ये बंटवारा नहीं कर रही बल्कि बांट कर खाने की आदत सिखा रही हूं तुम बच्चों को

मैने देखा जो भी फल , मिठाई या चॉकलेट आती है वो सबको नहीं मिल पाती और कोई एक सदस्य ज्यादा खा लेता है तो कोई बिलकुल नहीं खा पाता

हम घर पर आठ लोग हैं … है या नहीं

आरुष गिनने लगा और बोला हां

तो सबको बराबरी का हिस्सा मिलना चाहिए या नहीं

हां मिलना तो चाहिए ….

इसलिए मैं इसके आठ हिस्से कर रही हूं ।

ओह ये तो अच्छी बात है मामी

अब तो मम्मी को भी खाना पड़ेगा क्योंकि वो अंगूर नही।खाती । हम सब साथ मिलकर खायेंगे तो कितना मजा आयेगा…

आरुष खुश होते हुए बोला

आरुष को ऐसे फ्रूट सर्व करते हुए देख सुधा की ननद और सासू मां को बड़ा आश्चर्य हुआ ।

शाम को सुधा ने घर पर ही आइसक्रीम बनाई थी और उस समय आरुष सबको आइसक्रीम दे रहा था और पूछ रहा था सबको मिली या नहीं….. उसको भी सबके साथ खाने में बहुत आनंद आ रहा था और जब सुधा ने अपने हिस्से में से आरुष को थोड़ा और दिया तो वो बोला मामी ये तो आपकी है…

हां बेटा पर आप भी तो मामी को प्यारे लगते हो । आज आपने सबके साथ बांटकर खाना सीखा तो ये आपका इनाम है मेरी तरफ से। और आरुष ने मामी के गालों को प्यार से चूम लिया और बोला आई लव यू मामी , आप बहुत अच्छी हो और मेरी फ्रेंड भी …..

सब लोग आरुष की बाते सुन हंसने लगे

सुधा की सासू मां भी आज पहली बार सबके साथ बैठकर खाने का आनंद ले रही थी नही तो हमेशा बच्चों के खाने के बाद कुछ बचता तो वो खा लेती नही तो कोई बात नही।

उसने संस्कारवान बहु को संस्कार हीन कहकर बहुत बड़ी गलती की थी… तो आज वो अपनी बहु से माफी मांगने में भी नही झिझकी

बोली… बहु मुझे माफ करदे बेटा, मैने तेरी मां के दिए हुए संस्कारों का गलत अर्थ लगाया ।

नही मां जी कोई बात नही …आप बड़े हो आपको मुझे डांटने का पूरा हक है पर हां मेरी इन आदतों से कोई मुझे संस्कारहीन समझे तो मैं संस्कारहीन ही अच्छी हूं ।

सासू मां अपना सा मुंह लेकर रह गई पर अब वो भी अपने बारे में सोचने लगी थी। अपनी इच्छा , पसंद नापसंद का ध्यान रखने लगी थी।

अब जब भी कोई फल आता या मिठाई या आइसक्रीम सबको बराबर का हिस्सा मिलता चाहे वो घर के पुरुष हों या औरतें। वो बात अलग है कि जिसको नही खाना वो न खाए और जिसको पसंद है वो और मांगकर खा सकता है।

सुधा बेटा तेरी नसीहत तो कमाल कर गई । अब मुझे भी खाने की इच्छा होती है । नही तो पहले अपने मन को मार कर बच्चों को ही खिला देती थी सोचती थी कोई बात नही बच्चों ने खाया या मैने क्या फर्क पड़ता है।

फर्क पड़ता है मां जी … क्या बच्चों ने आपसे कभी पूछा कि मां आपने खाया या नहीं। आपको बचा या नहीं…

हम रोज़ में भी ऐसा ही करते हैं कभी सब्जी कम पड़ जाती है तो हमे ही मन मारना पड़ता है या कभी बासी रोटी बच जाती है तो वो भी हम औरतें ही खाती हैं। पर ये कहां का नियम है कि हमेशा कॉम्प्रोमाइज औरत को ही करना पड़े। इसलिए मुझे मेरी मां की दी हुई नसीहत हमेशा याद आती है कि बांट कर खाने की आदत होनी चाहिए इससे प्यार और अपनापन बढ़ता है और एक दूजे का ख्याल रखने की आदत भी पड़ती है। कम हो तो कम या ज्यादा हो तो ज्यादा पर मिलना सबको बराबर चाहिए। इससे बच्चों में पक्षपात की भावना का विकास भी नही होता है और उनमें संतुष्ट रहने का गुण भी विकसित होता है।

दोस्तों बात बहुत छोटी है पर ज़रूरी है । बच्चो में अच्छी आदतों का विकास हम मांओं की जिम्मेदारी है इसलिए बचपन से ही उनमें शेयर करने की आदत सिखानी होगी और दूसरे की वस्तुओं पर अपना अधिकार नहीं होता ये बताना होगा तभी वो लालची और जिद्दी नही बनेंगे।और मां पिता पर पक्षपात करने का आरोप भी नही लगेगा

आप मेरे विचारों से सहमत है तो कृपया मेरा उत्साहवर्धन करना नही भूलें

धन्यवाद

स्वरचित और मौलिक

निशा जैन

2 thoughts on “मैं संस्कारहीन ही अच्छी हूं – निशा जैन : Moral stories in hindi”

  1. बिल्कुल सही शिक्षा देने का प्रयास किया है आपने इस कहानी के ज़रिये से 😌…. कम हो या ज्यादा हमें हमेशा सबके बारे में सोचना चाहिए और किसी भी चीज को मिल बाँट कर खाना चाहिए……

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  2. Meri maa bhi aisa hi karti thi sabko baraber milta tha, sasural mei yahi chalan hai aaj bhi bus apna apna socho, bahu sirf kaam karne ke liyey hoti hai

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