माँ जी….!! – विनोद सिन्हा “सुदामा”

आहहह….अताह दर्द से तड़पती हुई  “कौशल्या देवी”  जिन्हें मैं माँ जी कहता था अपने रक्तयुक्त हाथ सीने पर रखे भरी भरी आंखों से मुझे देख रहीं थी. ..दर्द ही दर्द था उनकी आँखों में उसपल..जो आँसूओं का सैलाब..बन बाहर आ रहा था..

हालांकि पलकें मेरी भी भरी थी..दर्द मुझे भी था…आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे….

मैं आकाश उनका बेटा..माँ जी को अपनी आँखों के सामने लहुलूहान दम तोड़ते देख रहा था..

जिस देवी ने उम्र भर ममता व वात्सल्य लुटाया मुझपर आज उन्हें मैं अपनी गोद में मरता देख रहा था..

देवी……???

रह रह कर मेरे आंखों के सामने वो सब दृश्य आ जा रहे थे..जब वो पूरे घर को सर पर उठा लेती थी..


अरे कहाँ मर गए सब के सब …

अरे ओ….भीमा….रधिया जिंदा हो कि मर गये….सब निठल्लों को मुझे ही देखने हैं..

मैं खड़ा..उनके शांत होने का इंतजार कर रहा था…

तभी उनकी नज़र मुझपर पर पड़ी…

अरे….आकाश… तू कब आया…?

और ये कौन है…?

माँ जी ये अंजना है…असहाय है….

हे राम…..फूल सी बच्ची को कहाँ से उठा ले आया…

जी वो ट्रेन…मैं इतना ही कह पाया था कि..

वो चिल्ला उठीं…कितनों को यूँ ही मुफ्त में खिलाती रहूँगी,जिसे देखो यहीं चली आती है आश्रय लेने,आश्रम समझ लिया या धरमशाला..

मैं हँसने लगा…..पागल उन्हें देवी जो समझता था, और समझता भी क्यूँ नहीं अनाथ लड़कियों और अबलाओं के लिए “बालिका गृह” जो चलाती थी,मुझे भी न जाने कहाँ से उठा लाई थी और पाल पोसकर बड़ा किया….वो कहती थी जब मैं मात्र दो साल का था तभी से मुझे वो पाल रही थी…मैं भी उन्हें करूणा की देवी मान जो भी असहाय लड़कियां मिलती उन्हें ले आता था उनके पास,आज भी कुछ ऐसा ही हुआ था..रात ट्रेन में मिली एक अंजान और असहाय लड़की को ले कर आ गया था…

इसलिए ही हल्ला किए जा रहीं थी….

लेकिन एक बात थी जो मुझे हमेशा खटकती थी ,वो यह कि,माँ जी मुझे कभी घर में नहीं रहने देती,हमेशा घर से दूर शहर में ही रखती, कभी भी अपने साथ नहीं रखा,दूर शहर रहकर ही पला पढ़ा…अत: यहाँ क्या होता और क्या नहीं कुछ पता नहीं होता,हाँ जब कभी मैं आता तो सबकुछ ठीक लगता मुझे..

लेकिन इसबार…..

घिन्न आ रही थी मुझे उनसे…उनका सच जानकर और मेरे स्वयं पर भी…कहीं न कहीं मैने भी पाप किया था मैं भी उनके किए पाप का भागीदारी था.. …अंजाने में ही बहुत बड़ा पाप करता आ रहा था मैं…ऐसा पाप कि शायद ईश्वर भी माफ न करे…

लेकिन फिर भी रो था मैं उनके लिए…आत्मा तड़प रही थी मेरी…उन्हें यूँ छटपटाते…दम तोड़ते हुए..देखकर

मैने उनका हाथ मजबूती से पकड़ रखा था..

अच्छा किया बेटा..

वो कराह रहीं थी,मुझ जैसों के साथ ऐसा ही होना चाहिए था,शायद इसलिए ही भगवान ने मुझे माँ होने का सुख नहीं दिया, मेरी कोख सूनी रखी.ममता की आड़ में जाने कितनी असहाय लड़कियों और औरतों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी मैंने,उनसे जिस्मफरोशी करवाकर,उनका बोटी बोटी नोंचवाकर.।

मुझे माफ करना बच्चियों..मुझ पापन का यही हश्र होना था,पास सभी लड़कियों से हाथ जोड़ माफी मांगते हुए माँ जी ने अपने प्राण त्याग दियें थे लेकिन किसी के चेहरे पर उनके लिए न तो दया के भाव थे और न ही अफसोस…थी तो बस घृणा और गंदगी की दुनियां से आजाद होने की ख़ुशी..


तब तक पुलिस आ चुकी थी और मेरे हाथों में हथकड़ियां..लग चुकी थी….क्योंकि खून तो खून था अपराध तो अपराध था…!

आज अगर अंजना ने मुझे माँ जी का सब सच नहीं बतलाया होता कि किस तरह वह बालिका गृह के आड़ में लड़कियों और औरतों से जिस्मफरोशी का धंधा करवाती हैं और बड़े बड़े लोगों के पास उन्हे सप्लाई करवाती हैं मुझे कुछ पता ही नहीं चलता,पहले तो मैंने विश्वास नहीं किया था लेकिन सब सच पता चला आपा खो दिया था और पास पड़े चाकू को माँ जी के सीने में घोंप दिया था,और अगर उन्हें मैंने खत्म नहीं किया होता तो जाने कितनी और जिंदगियां “बालिका गृह” के साए तले जिस्मफरोशी की दलदल में फँसकर बर्बाद होती रहती…

पुलिस मुझे ले जा रही थी…और अंजना एवं सारी लड़कियां मुझे कृतज्ञ भाव से देख रही थी..

हर किसी की पलकें….उनकी जिंदगी की एक नयी सुबह…एक नयी शुरूआत के उम्मीद से लबालब थी…

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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