मां होने की मुसीबत – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : आज अपनी बेटी के मुंह से नानी की तारीफ सुनकर अंजू अवाक रह गई।बेटियां कितने अच्छे से विश्लेषण कर पातीं हैं,अपनी मां के मायके का।कभी किसी बात पर रोक -टोक ना करके भी ,अपने मन का करवा लेने वाली “मां” की उपाधि दी थी बेटी ने उसे।परंपराओं को स्वेच्छा से मनाने की स्वतंत्रता अंजू को अपनी मां से ही मिली थी। आधुनिक होने का सही अर्थ मां ही सिखा सकती है अपने बच्चों को।

हर रविवार सर में ढेर सारा नारियल का तेल चुपड़ना हो,या फिर नाखून काटना हो मां ही बेहतर कर पाती है।हर मां की तरह अंजू को भी,अपने बच्चों की परवरिश करना सबसे कठिन काम लगता था।बच्चों के “अच्छा ” ना बन पाने पर घर -बाहर से  सबसे पहले

उंगली मां पर ही उठती है।निधि (अंजू की बेटी) पापा की लाड़ली थी,दूसरी बेटियों की तरह।मां की हर बात की खबर पापा को देनेवाली खबरी होती हैं बेटियां।कब मारा?कब डांटा,?कितने घंटे पढ़ाया ? इत्यादि की पूरी जानकारी पापा को देना उसकी दिनचर्या थी।

दसवीं में भी जब कसकर दो चोटी बांधती थी अंजू,वह चिढ़कर कहती”मेरी सब सहेलियां छोटे-छोटे बाल रखती हैं।ब्वाय कट का फैशन है,और तुम्हारा आज भी वही”यू शेप ” चल रहा है।” अंजू भी तर्क देने में कहां पीछे रहती”हां तो,सबके बाल तेरी तरह कर्ली नहीं हैं।मेरे जैसे बाल मिले हैं ,तो मेरे हिसाब से ही रखना होगा।”अपने सपने को बड़ी बारीकी से निधि की आंखों में झोंक दिया था अंजू ने।बॉयोलॉजी ही दिलवाया था।रोटी बनाना,कपड़े धोना,घर साफ करना, पूजा-पाठ,जैसे कितने काम मां को ही सिखाना पड़ता है।

सिखाने के चक्कर में बुरा भी बनना पड़ता है।अपने गत यौवन को पुनः बेटी के अंदर अवतरित होते देखकर,मन में शंकाएं भी जन्म लेने लगतीं हैं।समाज कितना भी बदल जाए,पर लड़कियों की असुरक्षा सहज ही राक्षस की तरह विकराल होती जाती है।अभी जैसे निधि चिढ़ती है,अंजू भी तो ठीक वैसे ही चिढ़ जाया करती थी अपनी मां से।शाम होते ही घर लौटने की पाबंदी कभी पसंद नहीं आई थी अंजू को।तंग आकर कहती”मां,सारे नियम बच्चों के लिए माएं ही क्यों बनातीं हैं?पापा को देखो,कितना कूल रहतें हैं।

“अंजू को मां का उत्तर सुनकर हंसी आ जाती कि”हां पापा तो कूल रहेंगे ही,कुल की मान-मर्यादा का जिम्मा मां के ऊपर डालकर।”वाह!!!मां ,तुम और तुम्हारा लॉजिक।भगवान भी नहीं समझ पाएंगे।इसी नोंक झोंक में एक अल्हड़ सी, गालों में गड्ढे पड़ने वाली गुड़िया कब सयानी हो गई,पता ही नहीं चला।शादी के बाद जब परिवार संभालने की जिम्मेदारी सर पर आई,तब मां की सीख पर गर्व हुआ।जब लोग अंजू की शैक्षणिक उपलब्धियां गिनाते,तब मां की सख़्ती पर गर्व हुआ।जब अंजू को ससुराल में सुशील कहते सब,तब मां की बंदिशों पर गर्व हुआ।जब एक ही प्रयास में इंग्लिश मीडियम विद्यालय में नौकरी मिली,तब मां की आधुनिकता पर गर्व हुआ।

सच ही कहती थी मां” अंजू,जिस दिन खुद मां बनेगी ना,तब समझेगी मां की अनकही पीड़ा।मां की परवरिश ही उसका प्रमाण पत्र है।”अपनी बेटी को छोटी-छोटी बंदिशों सहित स्वतंत्रता दी थी अंजू ने।बाहर पढ़ने भेजा तो समझाया”कभी भी बाहर ग्लास में सॉफ्ट ड्रिंक्स मत पीना।कोई कुछ भी मिला सकता है।मॉल या कपड़े की किसी दुकान के चेंजिंग रूम में,होटल में या कहीं भी जाने पर पहले छिपा हुआ कैमरा चैक कर लिया कर।

शाम होते ही घर से बाहर दूर,किसी के बुलाने पर मत जाना।”अपनी समझाइशों पर खुद उसे ही गुस्सा आता था,पर क्या करें?मां है ना।मां होना ही मुसीबत है।स्नेह की” छाया” और अनुशासन के” धूप “की मात्रा का हिसाब रखते -रखते ही ,बच्चे कब बड़े हो जातें हैं?

आज बाहर नौकरी कर रही निधि,मां की बंदिशों के लिए अपनी नानी की प्रशंसा कर रही थी।मां की बात अनायास ही याद आ गई।अंजू ने मां को याद कर कहा”सच कहा था तुमने,मां बनकर ही मां की पीड़ा समझी जा सकती है।मां होना किसी मुसीबत से कम नहीं,पर मैं भी मुसीबत का सामना कर पा रहीं हूं तुम्हारी तरह।।

शुभ्रा बैनर्जी

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