अभिमान नहीं स्वाभिमान बचाओ – शुभ्रा बनर्जी 

मेरी बेटी मेरी गुरु,मेरी गाइड,मेरी वकील और मेरी न्यायाधीश सभी है।डिलीवरी के समय सोनोग्राफी करवाने पर जब पहली बार पता चला था मुझे कि मेरे गर्भ में जुड़वा बच्चे हैं,जिनमें से एक खराब हो गया और एक स्वस्थ है,सकते में आ गई थी मैं।यह इतिहास बन जाएगा मेरे और पति के खानदान में।ऐसा पहले कभी किसी के साथ नहीं हुआ।पूरे नौ महीने हम दोनों की रातें इसी चिंता में बीतीं कि सब ठीक होगा ना।बहुत सारे लोगों ने सलाह दी कि रिस्क है,इतना जोखिम मत उठाओ।पता नहीं जो स्वस्थ है, उसका सफलता पूर्वक प्रसव हो पाएगा या नहीं।मेरा आत्मविश्वास चीख -चीख कर कहता रहा मुझसे सब ठीक होगा।दो महीनों के कम समय में जब बच्चे की किसी हरकत का पता ही नहीं चलता,मुझे मेरे अंश की धड़कनें सुनाई देती थीं।मेरे विश्वास की लाज रख ली थी ईश्वर ने।मैंने एक स्वस्थ बेटी को जन्म दिया।यह हॉस्पिटल के लिए भी पहला केस था।दो जुड़वां बच्चे अलग अलग थैले में,दो अलग नार से जुड़े हुए थे।एक जो खराब हो चुका था, उसकी नार भी प्रसव के समय निकली।पति ने बच्ची को गोद में लेते ही उसके आंख,कान,नाक और अंगुलियों पर ध्यान केंद्रित कर रहें थे।मेरी तरफ हंसकर बोले देखना ये दो दिमाग लेकर बहुत समझदार निकलेगी।गोल- मटोल सफेद बिलौटा लग रही थी मेरी बेटी।सभी ने मेरे सफलतापूर्वक प्रसव पर बधाई दी।पैदा होने के साथ ही बेटी दादाजी और अपने पापा की लाड़ली बनी गई थी।बचपन से ही मुखर और प्रखर थी वह।अधिकतर आदतें भी अपने दादा और पापा की मिली थी उसे।पापा की वकील थी वह,क्योंकि मां का लाड़ला तो बेटा होता है।

जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी वह मुझसे गहरे जुड़ने लगी।मेरी परछाई बन गई।मेरी सांस सूंघ लेती थी।मैं कब दुखी हूं,कब तकलीफ में हूं,कब मैं अपमानित महसूस करती हूं,कुछ भी नहीं छिपता था उससे।उसके पापा का गुस्सैल स्वभाव स्वतः ही बदल गया।कितनी बार अपनी दादी से भिड़ पड़ती थी जब वो अपनी बेटियों से मेरी या अपने बेटे की बुराई करती।पूरे परिवार में उसे” बागी” का तमगा मिला हुआ था।सब कहते मां के जैसी नहीं है बिल्कुल,पापा की तरह मुंहफट है।मुझे बहुत बुरा लगता।जब भी मना करती तो कहती सही को सही और ग़लत को ग़लत कहना मैंने आपसे ही सीखा है।बाहर तो आप इतनी मजबूत हैं,पूरा स्कूल डरता है,पर घर में आप भींगी बिल्ली क्यों बनी रहतीं हैं?हर गलती की जिम्मेदारी अपने सर लेना अच्छा नहीं है।कोई अवार्ड नहीं देगा आपको,हमेशा दूसरों को ख़ुश करने की कोशिश क्यों करतीं हैं? आपकी चुप्पी आपकी कमजोरी बन गई है।और भी जाने क्या-क्या बोलती थी।

मेरे स्वाभिमान को कभी मरने नहीं दिया उसने।समय-समय पर मरम्मत करती रही मेरे मन की।पति के ताने-उलाहने हों या ना खाने की ज़िद,वह हमेशा ढाल बनकर मेरी तरफ़ से समुचित उत्तर देती रहती।उसके घर में रहते किसी की क्या मजाल जो मेरा अपमान करने की सोचें।हमेशा कहती मुझसे” मम्मी, हम खुद ही दूसरों को मौका देते न हैं, ख़ुद का अपमान करने का, इस्तेमाल करने का।अगर पहली बार ही अपना पक्ष दृढ़ होकर रखो तो दोबारा किसी की हिम्मत नहीं होगी ऐसा करने की।बाहर पढ़ने गई जब फोन से ही मेरी वकालत करती रही।पापा के लिए भी लड़ लेती थी मुझसे। तराज़ू के दोनों पलड़ों में संतुलन बनाने का असंभव काम वही करता थी।मुझमें स्वयं की परवाह करने की आदत भी उसी ने डाली।नावल पढ़ना, कविताएं लिखना,शाम को टहलने जाना उसने मेरी दिनचर्या बना दी।मुझे जीवन का मूल मंत्र सिखाती रही कि पहले ख़ुद खुश रहो फिर किसी और को ख़ुश करना।मैं भी धीरे-धीरे स्मार्ट हो रही थी।



पति की बीमारी में कोविड के कारण बहुत लंबे समय के बाद काफी समय घर पर रही वह।मेरी सारी जिम्मेदारियां हंसकर अपने ऊपर ले ली उसने।पापा की सेवा ,घर के काम,खाना बनाना सभी करती वह।जब एक रात भाई ने पापा के चले जाने की खबर दी उसे,मुझे संभाल लिया।एक लंबी बीमारी की वजह से बेटा पापा को लेकर बाहर गया था दिखाने,और यहां वह पूरा घर संभाल रही थी।मेरे स्कूल का काम भी उसी की मदद से हो रहा था। वीडियो बनाना,पी डी एफ बनाना सब उसी के जिम्मे था।पति की मृत देह लेकर जब बेटा घर पहुंचा उसके पहले ही उसने घर को व्यवस्थित कर लिया था।तेरह दिनों तक जब मैं और बेटा जमीन पर एक जगह बैठे होते न,वह दौड़-दौड़कर पूरा घर संभालती। हम कब क्या खाएंगे,इसका ख्याल भी वही रखती।पैसों का हिसाब,टैंट, कुर्सियां,मेहमानों की लिस्ट उसी के जिम्मे था।मुझे कभी रोने नहीं दिया उसने और ना ख़ुद रोई।पापा की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी इससे,ऐसा कहकर हिम्मत बढ़ाती मेरी।अपने बड़े भाई के कंधे से कंधा मिलाकर सब काम निपटाए उसने।एक बार फिर सेतु बना गई वह मेरे और मेरे बेटे के बीच। इंटर्नशिप के लिए जाते समय भी मुझे समझाकर गई मेरे सम्मान के बारे में और भाई को भी समझाइश देकर गई।उसके जाने के बाद मैंने बड़ी अच्छी तरह खुद को संभाल लिया।सही भी तो था,मैंने कहां अकेले अपना सुहाग खोया है?एक मां ने अपना इकलौता बेटा भी तो गंवाया,बच्चों ने अपने पिता को खोया हैं।मेरा दुख इन सबके दुख से कम या ज्यादा तो नहीं।हमने इस साझे दुख के साथ जीना सीख लिया था।बेटे की नौकरी लगने वाली थी पापा की जगह।मेरा स्कूल छूट गया था ,सासू मां को देखभाल की जरूरत थी।मैंने अपने जीवन का इतना बड़ा निर्णय ले लिया,२१ सालों तक जिस स्कूल‌को मैंने अपनी सेवाएं दी,अपने बच्चे की तरह लगाव था उससे।बेटी की बात याद आ गई ,”कुछ भी स्थाई नहीं होता मां”।मैंने अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर दिया अब।मेरी दिनचर्या बदल दी मैंने।अब मैं पहले ख़ुद को खुश रखती थी।मेरा आत्मविश्वास बढ़ सा गया लगता था।स्वाभिमान भी अपने उच्चतम स्तर पर था।किसी की क्या मजाल जो मुझसे सहानुभूति दिखाएं। कभी रोई नहीं किसी के सामने।एक स्त्री का स्वाभिमान मरता है केवल दो लोगों के सम्मुख,एक पति और दूसरा बेटा।पति के सम्मुख कभी आवाज नहीं उठा पाई मैं,अब बेटे को मेरी ज्यादा जरूरत थी,सो नरम पड़ जाती थी उसके सामने।बेटे में धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से एक पुरुष का अहं विकसित हो रहा था।मुझे दिखने भी लगा था।अब कभी -कभी वह बेटा नहीं एक मर्द लगता मुझे।उसकी हर बात में हां में हां मिलाना छोड़ दिया था मैंने।जैसे ही उसकी कोई बात काटती उसके अहं को चोट लगती।मैनें भी अब उसके आगे-पीछे घूमना बंद कर दिया था।मुझमें जागरूकता थी कि कुछ सालों में इसका अहं विशालकाय हो जाएगा। आखिर है तो पुरुष ही ना।

हम दोनों के बीच कभी कभार थोड़ी तकरार हो जाती थी, तो भी बीच-बचाव का काम बेटी ही करती।उसके सामने हम दोनों हि बड़बड़ाते और वह दोनों को समझाती।



कल की घटना ने मेरी आंखें खोल दीं।एक निमंत्रण पत्र आया था‌ जान -पहचान‌वाले किसी घर से। बच्चे का नामकरण संस्कार होना है।आदतन अति उत्साहित होकर मैंने बेटे से कहा”मैं ड्राइवर बुलवा‌ लूंगी,तू तो जाएगा नहीं।बेटे को प्रस्ताव‌ पसंद नहीं आया।मुझे समझाते हुए कहा (थोड़ा जोर गले में)मम्मी हर जगह जाना जरूरी नहीं है।लोग बुलातें हैं औपचारिकता वश,आप जा भी सकतें हैं और नहीं भी।दादी को इतनी देर अकेली छोड़ना क्या ठीक होगा”

बस मेरा स्वाभिमान घायल हो गया।”अच्छा!!अब मैं तेरी सलाह लेकर तय करूंगी, कि कहां जाना है,कहां नहीं।मेरी हर बात से तुझे दिक्कत होने लगी आजकल। बिल्कुल अपने पापा के जैसे होता जा रहा है तू।मैं क्या बाई हूं जो घर के काम करने की जिम्मेदार है?? स्वाभाविक रूप से बेटे को अच्छा नहीं लगा था यह।दूसरे शहर परीक्षा देने भी जाना था।जल्दी से थोड़ा कुछ खाकर निकल‌ गया वह।

शाम हो गई,रात होने को आई ,पर एक भी फोन नहीं किया था उसने।शाम को बेटी से कहा फोन करने उसे।फिर उसके सामने रोने लगी,देख ना दादा ऐसा करता है,वैसा करता है।ये बोला मुझे कल,ये बोला मुझे आज।पहली बार फोन नहीं किया मुझे।देख रही है कितना बदल गया है वो।मेरे चुप होते ही बेटी बड़ी संयत होकर बोली मुझसे “तुमने किया था फोन?”हां” हां कई बार किया था‌ मैंने,उठाया ही नहीं।मुंह फूला होगा न साहब का।मैं भी नहीं करूंगी।तुझे कुछ बताए तो कह देना मुझसे।खाना बनाकर रखना होगा।

बेटी ने फिर सुलझी हुई आवाज में कहा”मम्मी,ये शर्म की बात नहीं कि आपको मुझसे पूछना पड़ रहा अपने बेटे के बारे में।जो बेटा घर से निकलते ही फोन घनघनान लगता था,आज नहीं उठा रहा।सोचा है क्यों?



गाड़ी चला‌ रहा होगा तब।बाद में तो कर सकती थी तुम।अब उस घर में सिर्फ तुम ,दादी और दादा है,फिर भी इतनी दूरी कैसे बढ़ रही।तुम रोज-रोज उसके बारे में बोलकर रोती रहोगी,तो एक दिन मेरे मुंह से भी कुछ ऐसा निकलेगा जो दादा को अच्छा न लगे।रोकर तुम क्या साबित करने की कोशिश करती हो?दादा को सामने‌ बैठाकर समझाओ,कि उसकी आदतें बदल रहीं हैं।तुम्हें उसका इस तरह से बात करना नहीं पसंद।बेटा तुम्हारा ही है ना,वो भी लाड़ला ।अब क्या बदल गया तुम दोनों के बीच में अचानक?हजार बातें सुनाओ पहले की तरह,जी भर कर डांटो,बस।वो भी हंस देगा ,बात बन जाएगी।मुझे उलझाना ठीक नहीं मां,मैं बुरी बन जाऊंगी,फिर तुम और वो सगे बन जाओगे।तुम्हें भी वो चुगलखोर मां समझने लगेगा और मुझे मंथरा बहन।शादी‌ के बाद तुम्हारी यही असुरक्षा की भावना उसकी बीवी की दया का पात्र बना देगी तुम्हें।तुम बहू की भी चुगली करोगी मेरे पास,तो दादा को तो अच्छा नहीं लगेगा।

तुम तो ऐसी नहीं थी। स्वाभिमान की रक्षा करते-करते अभिमान को कब से सींचने लगीं तुम?मैं अवाक होकर बेटी की बात सुन रही थी।मेरी आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे।कितनी गूढ़ बात कह दी आज इस दो दिमाग वाली ने।एक साथ दो रिश्तों को बचाने का मंत्र बता दिया।सच ही तो है ,अपने बेटे से कैसा अभिमान?मैं उससे आमने-सामने क्यों बात नहीं कर सकती?कुछ बोलते समय रोने क्यों लगती हूं आजकल?मैं तो इतनी कमजोर नहीं।घर -बाहर बड़ा रुतबा है मेरा।आज भी मेरी कड़ाई की बातें होतीं हैं स्कूल में।कॉलोनी में किसी की हिम्मत नहीं मुझसे बेवजह की बातें करने की।फिर मैं इतना मिमियाती क्यूं हूं आजकल?क्या यह जताना चाहती हूं कि मैं अबला विधवा हूं।बेटे की सहानुभूति पाने की चेष्टा करती हूं क्या मैं।हां और अभिमान को बढ़ावा दे रहीं हूं, स्वाभिमान को नहीं।औलाद  के बारे में बुरा सोचने और बोलने से भी नुकसान होता है ,यह बात कैसे भूल गई मै?एक कार्यक्रम में जाने की बात को मैंने इतना तूल क्यों दिया?बेटे की बात भी तो ग़लत नहीं थी।ले जाता था मुझे खुशी-खुशी हर जगह।

आज बेटी ने मेरे स्वाभिमान को सदा के लिए मरने से फिर से बचा‌ लिया।

चलो लगा लूं फोन अपने नवाब को,कब आएगा?क्या खाएगा?आज मैंने अपने आप से यह वादा किया कि भविष्य में कभी बेटी को अपने और बेटे के बीच में मध्यस्थता करने नहीं कहूंगी।उसका दादा है वो,और मेरा बेटा।

शुभ्रा बनर्जी 

#स्वाभिमान 

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