मां और माफी – गीतू महाजन  

जानकी देवी के पार्थिव शरीर से लिपटे हुए जतिन बाबू की चीखों से सारे गांव के लोगों की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी।सारा गांव जानता था कि जतिन बाबू के दिल पर इस वक्त क्या बीत रही होगी।जतिन बाबू बार-बार एक ही बात दोहराते जा रहे थे,”मां, मुझे माफ कर दो…मुझे माफी दे दो..मुझे माफी दे दो मां..मुझे माफी दे दो” और यह कहकर वह  बार-बार अपनी मां के शरीर से लिपट जाते और ज़ोर ज़ोर से रोने लग पडते।

 कुछ समय बाद बंसी काका और अन्य लोगों ने मिलकर जतिन बाबू को जानकी देवी के शरीर से अलग किया और बड़ी मुश्किल से उन्हें संभाला और जानकी देवी की अंतिम यात्रा चल पड़ी।पूरा गांव जानकी देवी की अंतिम यात्रा में शामिल था…आखिर जानकी देवी के साथ सबका दिल का रिश्ता जो था।

जानकी देवी इस गांव के बड़े ज़मींदार की बीवी थी जब अल्लहड़ सी उम्र में ब्याह कर आई थी तो कुछ ना समझती थी..ना तो घर की पाबंदियां और ना ही बहुओं

 की तरह रहने के तौर-तरीके पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई अपनी ज़िम्मेदारियों को संभालने में उनका कोई सानी ना रहा। अपने बूढ़े सास ससुर की सेवा जिस लगन से उन्होंने की थी सारा गांव इस बात का गवाह था। 

उनके पति चौधरी राजवीर सिंह भी उनसे सलाह लिए बिना कोई काम ना किया करते।जानकी देवी और राजवीर सिंह की एक ही संतान थी..उनका बेटा जतिन।जानकी देवी ने जतिन को बड़े नाज़ों से पाला था लेकिन साथ ही साथ एक सख्त मां के दायित्वों के साथ भी। 




जानकी देवी के नरम स्वभाव का पूरा गांव कायल था। किसी भी घर में कोई मुसीबत हो और जानकी देवी को पता ना चले ऐसा तो हो ही नहीं सकता था और जानकी देवी पलों में उनकी मुसीबत का हल निकाल देती।चाहे किसी की फसल का नुकसान हुआ हो..किसी के बेटी के ब्याह में कोई रुकावट आ रही हो या किसी के पास अपनी बीवी की जचगी के लिए पैसे ना हो और या फिर कोई अपने बच्चों की पढ़ाई छुड़ाकर उनसे मज़दूरी करवा रहा हो जानकी देवी उसकी मदद के लिए पहुंच जाती।उन्हें बिलकुल पसंद ना था कि बच्चे अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ कर बाल मज़दूरी करें…इसीलिए वह लोगों को जागरूक करती और उन्हें पढ़ाई के फायदे गिनाती।

सरकार की तरफ से भी जब कोई कैंप या किसी तरह का कोई आयोजन होता तो वह जानकी देवी के बिना हो संभव ही नहीं था और जानकी देवी उनसे सब कुछ समझती और उनके साथ ही घर-घर जाकर गांव के लोगों को भी समझाने का प्रयास करती।उन्हीं के प्रयासों की वजह से लोगों ने अपनी लड़कियों को गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भी भेजना शुरू किया था और इस सरकारी स्कूल की दशा भी जानकी देवी के प्रयासों की वजह से ही अब सुधर गई थी।

 गांव के कितने ही बच्चे अब पढ़ने में अपना ध्यान लगाने लगे थे और और तो और जानकी देवी ने व्यस्कों के लिए भी रात की पढ़ाई की कक्षाओं का प्रबंध करवाया था। जिसमें पहले पहले तो कम लोग आते थे लेकिन धीरे-धीरे जानकी देवी के समझाने पर और एक दूसरे की बातों को सुनकर वहां की कक्षा में भी लोग बढ़ने लगे।गांव की स्त्रियां भी अब अंगूठे की जगह अपना हस्ताक्षर करना सीख गई थी और इसका सारा श्रेय वह जानकी देवी को ही देती थी।

गांव वालों के भले के साथ-साथ जानकी देवी अपने कुनबे की रिश्तेदारी भी अच्छी तरह निभाती।चाहे अपनी ननदें हों या चाचा ससुर सबको ही पूरा मान देती और अपनी दोनों ननदों की तो वह प्यारी भाभी थी।जब भी दोनों मायके आती झोली भर भर के नेग अपनी भाभी से ले जाती और बदले में अपने भाई और भाभी के लिए ढेरों दुआएं छोड़ जाती..शायद इन सब की दुआओं का ही असर था कि जानकी देवी का बेटा जतिन पढ़ने में बहुत होशियार निकला।हर क्लास में वह अव्वल आता और पढ़ाई के प्रति उसकी लगन देखकर चौधरी राजवीर सिंह भी खुशी से फूले न समाते।

हां, बाकी बच्चों की तरह जतिन भी बचपन से ही थोड़ा शरारती तो ज़रूर था।बचपन में जब दूसरों के खेतों से अमिया तोड़कर लाता और कोई उसकी शिकायत करने जानकी देवी के पास पहुंच जाता तब झट से मां से माफी मांगता,” मां, माफ कर दो अगली बार से नहीं करूंगा” और जानकी देवी हंस कर कहती,” मुझसे नहीं काका से माफी मांग और अगली बार से ऐसे मत करना”।

एक बार ऐसे ही जतिन का किसी से झगड़ा हो गया और जतिन ने उस लड़के की खूब पिटाई लगा दी।उसकी मां तो शर्म के मारे जतिन की शिकायत करने जानकी देवी के पास नहीं आई लेकिन जानकी देवी को पता चल गया और उन्होंने उस गरीब बच्चे की मरहम पट्टी का पूरा खर्चा उठाया और जतिन को भी आड़े हाथों लिया।तब भी जतिन बोला,”माफ कर दो मां, आगे से ऐसा बिल्कुल नहीं होगा वह उस बच्चे ने ही मुझसे उल्टा सीधा कुछ कह दिया था”।




 “ठीक है बेटा, लेकिन तुम्हें तो अपनी मर्यादा का ध्यान रखना है ना..क्या तुम भूल गए तुम किसके बेटे हो”।

“ठीक है मां,इस बार माफ कर दो” इसी तरह जतिन मां से माफी मांगता और बचपन का शरारती जतिन अब दसवीं कक्षा पास करने वाला था।

जानकी देवी ने उसे समझा रखा था कि पढ़ाई का जीवन में क्या महत्व होता है इसीलिए वह दिन-रात पढ़ाई के लिए दिन-रात एक किए हुए था और इसी का नतीजा निकला कि वह पूरे जिले में प्रथम आया।इसी खुशी में जानकी देवी ने पूरे गांव में मिठाई बांटी थी।चौधरी साहब ने अब उसे पढ़ने के लिए बाहर भेजने का निर्णय लिया था। जानकी देवी ने दिल पर पत्थर रख बेटे को बाहर भेज दिया।

वहां भी जतिन दिल लगाकर पढ़ाई कर रहा था..आगे चलकर वह डॉक्टर बनना चाहता था।ज़मींदारी में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।चौधरी साहब कभी-कभी सोचते कि इतने बड़े खेत खलियानों की देखरेख कौन करेगा। जानकी देवी उन्हें समझाती ,”बच्चे का जो मन हो उसे करने दीजिए..आजकल कौन सा ज़माना है कि बच्चों पर रोक लगाई जाए..आजकल तो लोग अपने बच्चों का सपना पूरा करने के लिए अपनी ज़मीनें तक बेच देते हैं। कोई बात नहीं आप हैं ना..सब कुछ संभल जाएगा..आप फिक्र मत करें”, उनकी बातों से चौधरी साहब थोड़े निश्चिंत से हो जाते।

जतिन वैसे तो लगभग हर रोज़ ही मां को फोन करता लेकिन कभी-कभी पढ़ाई के दबाव की वजह से अगर फोन ना कर पाता तो अगले दिन फोन कर सीधा ही बोलता,” माफ कर दो मां, कल फोन नहीं कर पाया” और जानकी देवी हंस कर कहती,” तू बात बात पर माफ़ी मत मांगा कर…मुझे मालूम है कि तू पढ़ाई में बहुत व्यस्त रहता है।मुझे रामदीन भईया ने बताया था।तुझे समय पर सारा सामान मिल गया था ना”।

 “मां, तुमने तुम कितनी सारी चीज़ें भेज दी थी खाने-पीने की यहां तो मेरे सारे दोस्त ही बहुत खुश हो गए थे और 

वह भी मेरे साथ तुम्हारे हाथ का बना हुआ सामान खाते हैं और तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं”।

“अच्छा, तो ठीक है इस बार की छुट्टियों में उन्हें अपने गांव ले आना गांव की खुली आबोहवा यह शहरी लोग क्या जानें”, जानकी देवी बोली।

 “हां मां, ज़रुर ले आऊंगा”।

और जतिन अपने साथ अपने दोस्तों को ले भी आया। गांव में उसके ऐसे राजसी ठाठ बाट देख कर उसके दोस्त उससे कहते ,” तू क्या इन पढ़ाई के चक्करों में पड़ा है जतिन, तेरी तो अच्छी खासी ज़मींदारी है..आराम से अपने पिताजी का काम संभाल सकता है तू”।




“नहीं यार, मेरा इस ज़मींदारी में मन नहीं लगता।मुझे तो पढ़ लिखकर डॉक्टर ही बनना है”, जतिन कहता।

 हर बार उसे विदा करते समय जानकी देवी की आंखों से आंसुओं की धारा बहती और उसके जाने के बाद वह फूट-फूटकर रोती लेकिन फिर अपने मन को यह कहकर संभाल लेती कि उसका आज का त्याग उसके बेटे के जीवन में प्रकाश बनकर चमकेगा।

समय यूं ही गुज़रता जा रहा था।जतिन एमबीबीएस कर डॉक्टर बन गया था।गांव का पहला लड़का जिसने डॉक्टरी पास की थी।पूरे गांव में जश्न मनाया गया था.. चौधरी साहब बहुत खुश थे इतने इतने खुश कि रात को खुशी के मारे ऐसे सोए कि सुबह उठ ही ना सके।पल भर में खुशी का माहौल मातम में बदल गया था। 

जतिन को लगा जैसे अब उसका आगे एमडी करने का सपना कहीं रह ना जाए कहीं मां उसे यही रोक कर अपनी ज़मीनों की देखभाल करने के लिए ना कह दे..लेकिन कुछ दिनों के बाद मां ने उसे बोला,” जा तू अपनी पढ़ाई पूरी कर और जो बनना चाहता है वह कर ले”।

जतिन उनके हाथ पकड़ कर बोला था,”मुझे माफ कर दो मां,मैं यह सब नहीं संभाल पाऊंगा।मैं शुरू से ही डॉक्टर बनना चाहता और तुम जानती हो कि मेरा यही सपना रहा है”।

“हां, जानती हूं..इसमें माफी कैसी”।मैं हूं ना..सब संभाल लूंगी और यह सारे आसपास जितने भी लोग हैं पराए थोड़ी ना है सब अपने ही तो हैं..तू जा मेरी फिक्र मत कर” और जतिन चला गया था 2 सालों के अथक परिश्रम से उसने एमडी कर ली थी और बड़ा डॉक्टर बन गया था। गांव वाले अब उसे जतिन बाबू कहकर बुलाया करते थे। इधर जानकी देवी अपने विश्वास के लोगों के साथ ज़मीनें संभाल रही थी जिसमें बंसी भैया और रामदीन भैया सबसे प्रमुख थे।उन पर तो वह आंख मूंदकर विश्वास कर सकती थी क्योंकि वह दोनों उसके पति के बचपन से उनके साथ थे।

जतिन अब बड़ा डॉक्टर बन गया था।जानकी देवी चाहती थी कि वह गांव में आकर लोगों का इलाज करें लेकिन जतिन तो शहर में रहकर ही अपनी प्रैक्टिस करना चाहता था। “माफ करना मां, मैं अब गांव में रह नहीं सकता।यहां का रहन-सहन अब मेरे अनुसार नहीं रह गया है”, इस बार भी जतिन ने माफी मांगते हुए जानकी देवी को चुप रहने पर मजबूर कर दिया था और मां तो आखिर मां ही होती है जानकी देवी भी अन्य मांओं की तरह अपने बेटे की इच्छा के आगे चुप कर गई थी।

धीरे-धीरे वक्त सरक पर जा रहा था।जतिन ने वहीं शहर में एक अपने साथी डॉक्टर लड़की से शादी करनी चाही तो जानकी देवी से उनका परामर्श मांगा।जानकी देवी को क्या ऐतराज़ हो सकता था…उन्होंने हामी भर दी और देखते ही देखते जतिन परिणय सूत्र में बंध गया।

जानकी देवी खुश थी..जतिन बहू को गांव लेकर आया था।जानकी देवी ने पूरे गांव को दावत दी थी।सारा गांव  नए जोड़े को अपनी दुआएं दे रहा था थोड़े दिन बेटा बहू गांव में रहकर शहर वापस चले गए।इधर जानकी देवी कभी-कभी शहर चली जाती और अपने बच्चों का संसार देखकर खुश रहती और कुछ समय वहां बिता कर गांव वापिस आ जाती। 




धीरे-धीरे वक्त के साथ जतिन के बच्चे भी हो गए।जानकी देवी की भी अब उम्र हो चली थी।बंसी भैया के कहने पर जतिन उन्हें अपने साथ शहर ले गया था।वो चाहते थे कि अब जानकी देवी अपना समय बच्चों के साथ गुज़ारें। वह ज़मीनें तो देख ही रहे थे और जानकी देवी जतिन और उनके कहने पर शहर रहने आ गई।उनके आने पर पूरा गांव जैसे उदास सा हो गया था क्योंकि गांव में लोगों को ऐसा लगने लगा जैसे उनके सर पर से किसी बड़े का साया  उठ सा गया हो।

जानकी देवी बच्चों के मोह में आ तो गई लेकिन यहां उनका दिल ना लगता।बेटा बहू अपने अस्पताल में ही व्यस्त रहते थे और बच्चे अपनी पढ़ाई लिखाई में।बहू कभी-कभी उनके पास आकर थोड़ी देर बैठ जाती लेकिन उतना समय ना दे पाती जितना जानकी देवी चाहती थी। जतिन भी आते जाते ही मां से हाल चाल पूछता रहता और कभी-कभी कह दे देता,” माफ करना मां मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता”। 

जानकी देवी हंसकर उसकी बात टाल जाती और कहती,” इसमें माफी कैसी बेटा तेरा काम ही ऐसा है मैं सब समझती हूं”।

धीरे-धीरे जानकी देवी को अब लगने लगा था कि बहू के व्यवहार में कुछ बदलाव सा आ गया है।घर में कुछ मेहमान आते तो वह यही चाहती कि जानकी देवी उनके पास ना बैठे..शायद बहू को अपने मेहमानों के आगे उनका देहाती होना अखरने लगा था।जतिन खुल के तो कुछ नहीं कहता लेकिन उसका मौन समर्थन हमेशा अपनी बीवी की तरफ ही होता।

जानकी देवी सब समझने लग पड़ी थी और अपने आप को असहाय सा महसूस करने लग पड़ी थी।बंसी भैया बीच-बीच में आते और ज़मीनों का हिसाब दे जाते।इसी तरह से 1 दिन बंसी भैया घर आए तो देखा जानकी देवी अपने कमरे में अकेली बैठी थी और घर के दूसरे हिस्से में मेहमान आए हुए थे।बेटा बहू मेहमानों के साथ व्यस्त थे। बंसी भैया को यह देखकर बहुत बुरा लगा कि जानकी देवी को वहां शामिल क्यों नहीं किया गया।

 जानकी देवी ने पूछने पर कहा,”अरे, बंसी भैया तुम ऐसे ही बात का बतंगड़ बना रहे हो मैं उनके बीच में जाकर क्या करूंगी”?

“अरे, जहां बहू के माता-पिता बैठ सकते हैं वहां तुम क्यों नहीं बैठ सकती वह भी तो मेहमानों के बीच में बैठे हैं पर तुम यहां अकेले कमरे में..क्या तुम्हें बुरा नहीं लग रहा”? 

जानकी देवी बोली,”वो शहरी लोग हैं और मैं ठहरी देहाती.. मैं भला वहां क्या करूंगी”?

“फिर भी भौजाई..शहरी और देहाती का क्या मतलब  तुम आखिर जतिन बाबू की मां हो तुम्हारा ओहदा इस घर में सबसे बड़ा है।चलो ज़्यादा देर ना सही कुछ समय के लिए ही मेहमानों के साथ मिलवाना तो चाहिए”, बंसी भैया नाराज़ होकर बोले थे।

“अरे बंसी भैया, तुम काहे को नाराज़ होते हो..छोड़ो ना इन बातों को”,और जानकी देवी ने उन्हें भी चुप करा दिया था।

उस दिन तो बंसी भैया चले गए थे परंतु कुछ दिनों बाद जानकी देवी ने उन्हें फोन कर खुद ही बुला लिया था।बंसी भैया हैरान थे कि इतनी जल्दी भौजाई ने उन्हें कैसे बुला लिया।उनके पहुंचने पर उन्होंने देखा कि जानकी देवी अपना सामान बांधे बैठी थी।जतिन बाबू और बहुरानी दोनों अस्पताल में थे।

जानकी देवी ने बोला,”भैया, मुझे अभी तुम्हारे साथ गांव निकलना है”।

“ऐसी भी क्या बात होगी भौजाई..कुछ बताओ तो सही”। 

“कुछ नहीं बस,तुम्हें जो कहा है वह करो..मेरा सामान गाड़ी में रखो और हम अभी चलते हैं”, और जानकी देवी ने घर के नौकरों को बोलकर उस घर से प्रस्थान कर लिया था।पूरे रास्ते जानकी देवी चुप रही…बंसी भैया समझ गए थे कि कोई ना कोई बात ज़रूर हुई है लेकिन घर आकर  भी जानकी देवी ने किसी बात का ज़िक्र ना किया और बोली,” बंसी भैया, मैं आज से यहीं रहूंगी अपने घर..मेरा यही घर है और मरते दम तक मैं यहीं रहना चाहती हूं। इतना तो तुम लोग कर ही सकते हो मेरे लिए”।

बंसी भैया बोले,”भौजाई, कैसी बातें करती हो..इतनी बड़ी हवेली किसकी है आखिर तुम्हारी ही तो है तुम्हारे बिना यह हवेली क्या पूरा गांव ही सूना हो गया था।अच्छा है तुम यहीं रहो..हम तुम्हारी सेवा में हर समय उपस्थित हैं।मैं क्या पूरा गांव तुम्हारे लिए हमेशा तुम्हें खड़ा मिलेगा”। 

गांव वाले भी जानकी देवी के आने से बहुत खुश हो गए थे।इधर जतिन को घर आकर जब पता चला तो उसने बौखलाते हुए मां को फोन किया और मां के हेलो बोलते ही सवाल दाग दिया,” मां, तुम मुझे बिना बताए क्यों चली गई…क्या हो गया ऐसा”?

“कुछ नहीं बेटा”, जानकी देवी ने बस इतना ही कहा। 

“”अगर उस बात के लिए नाराज़ हो तो मैं तुमसे माफी मांगता हूं”।




“नहीं मेरे बच्चे.. तू क्यों माफी मांगेगा..तुझे जो ठीक लगा तूने वही किया” और यह कहकर जानकी देवी ने फोन रख दिया।

जतिन जान गया था कि  2 दिन पहले जब किसी बात को लेकर जानकी देवी ने उसकी बीवी को अपनी सलाह दी थी तो उसकी बीवी ने जानकी देवी के साथ बड़ी बदतमीजी से बात की और नौकरों के सामने ही उन्हें अच्छी खासी सुना दी थी लेकिन जतिन की हिम्मत ना हुई अपनी बीवी को कुछ भी कहने की..शायद..यही बात उसकी मां को चुभ गई थी।उसके बाद उसने मां को बहुत फोन किए लेकिन उन्होंने एक भी फोन नहीं उठाया।

जतिन गांव भी गया मां को मनाने के लिए लेकिन जानकी देवी ने उसके साथ जाने से साफ मना कर दिया।जतिन आता उनसे माफी मांगता और जानकी देवी उसे वही कहती,” बेटा, तेरे माफी मांगने की तो ज़रूरत ही नहीं..तूने तो वही किया ना जो तुझे सही लगा तो इसमें माफी मांगने की क्या बात है”। 

जतिन जानता था कि मां एक बार किसी बात को ठान ले तो वह कोई नहीं बदल सकता।कुछ महीनों से जानकी देवी की तबीयत खराब रहनी शुरू हो गई थी।जतिन इन महीनों में गांव नहीं जा पाया था उसकी व्यस्तता दिन भर दिन बढ़ती जा रही थी।जानकी देवी ने बंसी भैया को उसे बताने के लिए कुछ भी मना कर दिया था और एक रात जानकी देवी दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिए इस संसार से विदा हो गई।उसी वक्त बंसी भैया ने जतिन को फोन कर दिया था। जतिन और बहू उसी समय कार से गांव आ गए थे और आज जतिन मां के पार्थिव शरीर से लिपट लिपट के  रो रहा था और बार-बार माफी मांग रहा था।उसे यकीन था कि उसकी मां बिना उसे माफ किए इस दुनिया से विदा हो गई थी।

सारी रस्में पूरी कर हो चुकी थी।अगले दिन वकील साहब ने आकर जानकी देवी की वसीयत पड़ी जिसमें लिखा था कि वह अपने अपने सारे खेत खलियान और कुछ ज़मीनें जतिन के नाम कर गई थी और अपने सारे गहने जतिन के बच्चों के नाम और गांव की हवेली को उन्होंने गांव की लड़कियों के लिए सिलाई केंद्र खोलने के लिए गांव वालों को दे दिया था और जितने पैसे थे उनका एक ट्रस्ट बनाकर गांव की पंचायत को दे दिया गया था जिससे कि जब भी किसी गरीब को ज़रूरत पड़े उन पैसों से उसकी मदद हो सके।बाकी ज़मीनें वह बंसी भैया और रामदेव भैया के नाम कर गई थी जो जीवन के हर मुश्किल समय में उनका सहारा बने थे।

मां की वसीयत सुनकर जतिन फिर से फूट-फूट कर रोने लग पड़ा और आत्मग्लानि से भर उठा और मन ही मन सोच रहा था कि मां तो सारी उम्र एक मां का फर्ज़ निभाती आई और जाते-जाते भी उसी फर्ज़ को पूरा कर गई थी लेकिन वह एक अच्छे बेटे का फर्ज़ ना निभा सका और रोते-रोते वह फिर से बोल पड़ा,” मां, मुझे माफ कर दो” ।

बंसी भैया ने उसे गले लगा कर बोला,” जतिन बाबू, चुप कर जाओ अपना मन शांत रखो..भौजाई तो तुम्हें कब का माफ कर दी थी…मां थी ना” और जतिन ने बंसी काका को कसकर भींच लिया और उसकी रुलाई पूरे कमरे में गूंज उठी थी।

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