किसके भाग्य खुले..? – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : अरे राधा.. जरा बुलाओ अपनी बहू को.. शगुन देने आई हूं.. सविता जी ने अपनी भाई की पत्नी राधा से कहा…

 राधा:  क्या दीदी..? शादी पर तो आई नहीं और अब शगुन देने आ रही हो..? इस शगुन से ज्यादा अरुण और बहू को आपका आशीर्वाद चाहिए था.. 

सविता जी:   अरे आशीर्वाद भी तो देने आई हूं.. अब शादी के मौके पर ही मेरी तबीयत खराब हो गई तो यहां आकर तुम लोगों के रंग में भंग में कैसे डालती..? अभी यह सब छोड़ो बहू को बुलाओ..

तभी घूंघट लिए राधा की बहू प्रज्ञा आती है और अपनी बुआ सास के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेती है.. प्रज्ञा को आशीर्वाद देते हुए सविता जी कहती है, अरे वाह..! बड़ी सुंदर और संस्कारों वाली बहू लाया है तुमने राधा… सच में देखकर जी को बड़ी शांति मिली.. अभी जितने दिन यहां रहूंगी इसे और निपुण बना दूंगी..

राधा:  हां दीदी अब सिर्फ सूरत ही दिया है भगवान ने.. बाकी तो..? राधा यह कह ही रही होती है तभी सविता जी बोल पड़ी.. बाकी तो का क्या मतलब..? अरे इस इस घर में आए हुए अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं तुम ऐसा भी बोलने लगी..?

 राधा:   दीदी आपको तो पता ही है मेरे अरुण का कहीं रिश्ता नहीं हो पा रहा था.. इसलिए तो इस रिश्ते के लिए हां करना पड़ा.. यह कहकर राधा प्रज्ञा से बुआ जी के लिए चाय नाश्ता बनाकर लाने को कहती है… जिस पर प्रज्ञा वहां से उठकर चली जाती है..

 सविता जी:   हां तो तुम क्या कह रही थी..?

राधा:   अरे दीदी सिर्फ सूरत ही अच्छी है.. ना दान, ना दहेज बिल्कुल गरीब है इसका परिवार.. अब आपकी बहू को ही देख लो, कितना भर भर कर सामान लाई थी अपने साथ.. कितना गर्व महसूस हुआ होगा आपको और एक मैं हूं..? शादी में सबसे झूठ कहती रही के दहेज का सामान बाद में आएगा… अब रिश्तेदारों को क्या ही बताती..?

 राधा और सविता जी यह सारे बातें करते हैं इतने में प्रज्ञा चाय नाश्ता बनाकर ले आती है.. उसके बाद वह रसोई में चली जाती है खाने का इंतजाम करने.. दोपहर को प्रज्ञा ने ढेर सारे पकवान बनाए वह भी हुआ जी के पसंद के और उन्हें अपने हाथों से परोसा.. तभी राधा उससे कहती है कढ़ी नहीं बनाया..?

प्रज्ञा:  मां जी दही खत्म हो गई थी इसलिए कढ़ी की जगह यह कच्चे आम की चटनी बनाई है.. आप इसे खाइए ना..

 राधा:  तो अब तुम मुझे बताओगी क्या खाना है और क्या नहीं..? देखा दीदी कैसे यह सोच रही है यह अपनी हुकूमत चलाएगी..? यहां सिर्फ मेरा राज चलेगा और जो मैंने कह दिया वही मानना है तुम्हें… दही खत्म हो गया है तो मुझे क्यों नहीं बताया? यही होता है जब अपने औधे के मेल से रिश्ता न जोड़ो.. दीदी इसके तो भाग्य विधाता ने बड़ी अच्छी भाग्य लिखी और मेरे भाग में इसे लाकर पटक दिया.. यह बड़ी ना इंसाफी की भगवान ने मेरे साथ..

सविता जी कुछ नहीं कहती और इधर प्रज्ञा सिर झुकाए रसोई में चली जाती है.. अगले दिन राधा को बुखार आ जाता है और वह सुबह दवाई खाकर सोई रहती है.. उसने यह बात किसी को नहीं बताई.. इधर सविता जी भी नहा धोकर मंदिर चली गई थी.. कुछ घंटे बाद राधा को प्रज्ञा नींद से उठती है.. राधा नींद से उठकर देखती है, सामने प्रज्ञा हाथों में खिचड़ी लिए खड़ी है..

 राधा:  यह सब क्या है..? तुम्हें नहीं पता मैं पूजा किए और भगवान को भोग लगाए बिना कुछ नहीं खाती..?

 प्रज्ञा:  मां जी… मैंने पूजा भी कर ली और भगवान को भोग भी लगा दिया… मैं यहां पहले भी आई थी क्योंकि इतनी देर तक आप नहीं सोती, पर यहां आकर जाना आप बीमार है, तो मैंने आपको जगाना ठीक नहीं समझा… पर अब तो काफी देर हो गई है.. आपको भूख भी लगी होगी इसलिए खिचड़ी बनाकर लाई हूं.. आप इसे खाकर फिर से सो जाइए.. मैं बीच-बीच में यहां आकर आपको देखते रहूंगी.. यह कहकर प्रज्ञा खिचड़ी वहीं रखकर चली जाती है.. उसके बाद प्रज्ञा अपनी सास की खूब सेवा करती है, पर राधा के मन में उसके प्रति कोई भावना नहीं जागती, उसे लग रहा था कि यह जो वह उसे इस घर की बहू बनाकर लाई हैं, उसके बदले में प्रज्ञा यह सब कर रही है..

अगले दिन सविता जी ने राधा से कहा, कल मैं जा रही हूं राधा, रमेश और मंजू आ रहे हैं लेने, वह इधर किसी काम से आए थे तो कहां मुझे लेकर ही जाएंगे.. उसके अगले दिन सविता जी के बेटे बहु उन्हें लेने पहुंच जाते हैं.. प्रज्ञा उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं रखती.. पर मंजू पैसे वाली थी उसे इस बात का बड़ा घमंड था.. और वह इस बात का ताना प्रज्ञा को बराबर दिए जा रही थी.. इधर राधा भी साथ ही में मंजू के सामने प्रज्ञा का तिरस्कार भी कर रही थी…

पर प्रज्ञा चुपचाप अपना काम कर रही थी, जब जाने का वक्त हुआ और सभी जाने लगे.. रमेश ने अपनी मां का कोई सामान नहीं लिया और गाड़ी निकालने चला गया, तो इस पर सविता जी अपना सामान उठाकर खुद ही जाने लगी, तभी राधा ने मंजू से कहा, अरे बहु मां की कुछ मदद कर दो… यह सामान तुम उठा कर ले जाओ… राधा ने इतना कहा ही था कि मंजू बोल पड़ी, अरे मामी जी.. मैं अपना ही समान नहीं उठाती, इनका क्या उठाऊंगी..? मुझे इतना भारी उठाने की आदत नहीं.. यह कहकर वह भी निकल गई…

तभी रसोई से प्रज्ञा दौड़ती हुई आई और कहा बुआ जी, यह लड्डू बनाए थे आपके लिए, आपको बहुत पसंद आई थी ना..? यह लीजिए.. और यह क्या.? आपने यह बैग क्यों उठाया हुआ है.? चलिए मैं ले चलती हूं, जिस पर सविता जी प्रज्ञा को अपना बैग देखकर कहती है… जा बहु, इसे गाड़ी में रख दे.. मैं आती हूं..

सविता जी:  राधा भाग्यविधाता जब भाग्य लिखता है ना, वह हमारे कर्म देखता है, तूने भी अपने कुछ अच्छे कर्म किए होंगे जो ऐसी बहू तेरे भाग्य में मिली, पर तुझे हमेशा पैसा दिखता है, इस चमक में तू अपने भाग्य के हीरे को ही देख नहीं पा रही, बुढ़ापे में पैसा धरा का धरा रह जाता है, जो अपने को कोई संभालने वाला ना हो, अभी भी समय है भाग्य विधाता के विधान को समझ लो… क्या प्रज्ञा के इस घर में बहू बनकर आने से उसके भाग्य खुले हैं या तेरे..?

दिन भर अपने कमरे में पड़ी रहती हूं फिर भी कोई सूध लेने नहीं आता… यहां तो तेरे कमरे से न निकलने पर खुद ही तेरे बारे में जानने चली गई और तेरी फटकार खाकर भी तेरी सेवा करती रही… यह कहकर सविता जी चली जाती है और उसके बाद से राधा प्रज्ञा को बहू नहीं, बेटी सा मान सम्मान और प्यार देने लगी, क्योंकि उन्हें सच का आइना दिख चुका था..

धन्यवाद 

रोनिता कुंडु 

# भाग्यविधाता

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