जीवन की आशा –   अभिलाषा “आभा”

मै कुछ दिनों के लिए सूरत आई हूंँ,अपने दूसरे बेटे पंकज के पास रहने के लिए।

बड़ा बेटा पटना में रहता है।

उसकी बहू पूनम से मेरी बनती ही नहीं। बड़ी मुश्किल से 3 महीने रह पाई उसके पास।

अब ये छोटी रागिनी तो उससे भी तेज़ है। पंकज के साथ ही बैंक में नौकरी करती है।

आज मैं शाम के समय घर के नजदीक वाले पार्क में घूम रही थी। अचानक बेंच पर बैठी एक अकेली महिला दिखी। मैंने सोचा “क्यों ना उससे बात किया जाए।”

मैं उस औरत के पास पहुंची। मैंने ध्यान से देखा,

“50 से 55 के बीच होगी वो।”

मैं वहीं बेंच पर बैठ गई और उससे पूछा आप यहीं कहीं रहती हैं क्या?

आज से पहले आपको नहीं देखा। उस महिला ने मुझे नमस्ते कहा तो मैं झेंप गई। मैंने भी उसको नमस्ते किया।

उसने कहा “दो दिन पहले ही वो लखनऊ से यहांँ अपने तीसरे बेटे के पास रहने आई है।

उसने अपना नाम आशा बताया। मैंने गौर से देखा उसे।बिल्कुल अपने नाम जैसी थी वो, जीने की आशाओं से भरपूर।

उसने आयरन की हुई सूती साड़ी पहनी थी। बहुत ही तरीके से बाल भी संवारे थे।

मैंने अपनी सूती साड़ी को देखा जो मुड़े हुए थे और मेरे बाल भी उलझे हुए।

कुछ औपचारिक बातें करके और कल फिर मिलने की बात कहकर मैं अपने घर अा गई।

मैं सीधे अपने कमरे में गई। आईने में खुद को देखा। “मै भी तो उसकी ही उम्र की हूं।

मैं इतनी बूढ़ी क्यों दिखती हूं?”

मुझे ध्यान आया, पूनम मुझे हमेशा कहती थी, “माँ जी, साड़ी अच्छे से पहन कर बाहर जाइए। बालों को रंग लीजिए।”।

मैं हमेशा उसको डांट दिया करती और कहती कि “बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम अच्छा नहीं लगता।”

इन्हीं बातों से मेरे और पूनम के बीच हमेशा तकरार होती थी।

आज रविवार है। सुबह से मैं बेचैन थी। पंकज और रागिनी दोनों घर में ही हैं।

अपने काम में व्यस्त।



तभी पंकज ने आकर पूछा “माँ क्या बात है? बैचैन लग रही हैं। कुछ चाहिए या तबियत ठीक नहीं है। बताइए मुझे।” तब मैंने सकुचाते हुए कहा, पंकज मुझे अपने बालों को रंग करना है और मेरी 4 साड़ियां हैं जो आयरन करवानी है।”

पंकज ने कहा ठीक है, “मैं सब करवा दूंगा।”

उसने रागिनी को जाकर बताया।

कुछ देर बाद रागिनी रंग और ब्रश लेकर आई और मुझसे कहा “लाइए माँ जी, मैं रंग देती हूंँ।” मेरे मना करने के बाद भी उसने मेरे बालों को बहुत ही अच्छे से रंग दिया

कुछ देर बाद मैं नहा कर आई तो उसने एक सुंदर सी आयरन की हुई सूती साड़ी दी और कहा आप “ये पहन कर आज पार्क जाइएगा माँ।”

उसकी बातों से आज पहली बार मैं खुश हुई। दोपहर में खाना खाकर रागिनी की दी हुई साड़ी लेकर मैं अपने कमरे में आ गई।

मुझसे शाम का इंतजार नहीं हो रहा था। जैसे ही पांच बजे, मैं रागिनी की दी हुई साड़ी पहनकर पार्क की तरफ गई।

पंकज और रागिनी भी मेरे इस बदले हुए रूप से खुश थे और शायद आश्चर्यचकित भी।

मैं जैसे ही पार्क पहुंच कर बेंच पर बैठी, आशा आती हुई दिखी।

वो भी आकर मेरे बगल में बैठ गई। हम दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते किया।

मैं तो आशा और उसकी बहू के बीच होने वाली लड़ाई के बारे में सुनने की इच्छुक थी, क्योंकि जब मैं पटना में बड़े बेटे बहू के पास रहती थी तो शाम के समय मोहल्ले की सभी सास मिलकर एक दूसरे से अपनी अपनी बहुओं की बुराइयां ही करते थे।

मैंने ही शुरुआत कर दी।मैंने कहा, “आशा जी, ये बहुएं जाने अपने आप को क्या समझती हैं?

मुझे तो उन लोग का रवैया,उनका रहन सहन बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।”

आशा जी ने कहा, “नहीं सुलेखा जी, ऐसा नहीं है। समय के अनुसार बहुत कुछ बदल ही जाता है।मेरी तीनों बहुएं मेरा बहुत ख्याल रखती हैं।

मेरे पति के जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेली हो गई थी।बेटे काम पर चले जाते, तो बहू ने ही मुझे संभाला। मेरी बड़ी बहू सरकारी अस्पताल में नर्स है। उसने एक महीने की छुट्टी ले ली। मेरी दूसरी बहू घर में रहती है, उसने घर का सारा काम संभाल लिया और छोटी वाली बुटीक चलाती है, उसने भी एक महीने तक अपना बुटीक बंद रखा, ताकि मेरे ऊपर ध्यान दे सकें। मेरी बहूओं का ही सहारा था कि मैं अपने गम से बाहर अा सकी।

अब मैं कैसे कहूं कि उनका रवैया अच्छा नहीं।”

मेरी तो बोलती ही बंद हो गई क्योंकि मेरे जीवन में आई ये पहली महिला है जो बहूओं के गुणगान कर रही है।

कल मिलने का वादा करके हम दोनों अपने अपने घर चली गईं।

आजकल मैं रागिनी से किचकिच नहीं कर रही, मेरे इस बदले हुए व्यवहार से दोनों बहुत आश्चर्य चकित थे। फिर भी किसी तरह घर में शांति है ये देख कर सबको बहुत अच्छा लग रहा था।


आज फिर मैं नीयत समय पर पार्क पहुंच गई।

आशा जी भी अा गई थी।

मैंने इधर उधर की बातें करने के बाद कहा आशा जी, “कल रात मेरी बहू ने खीर बनाई। चावल थोड़ी कच्चे थे। मैंने कह दिया तो उसने मुंह फूला लिया।”

आशा जी ने कहा, “मेरी बड़ी बहू ने भी एक बार खीर बनाई थी और चावल कच्चे रह गए थे। मैंने मन में सोचा कि खुद भी तो खाएगी इस खीर को। खुद ही पता चल जाएगा। मैं अपने मुंह से बोल  कर क्यों बुरी बनूं?” और सच में वही हुआ। मेरी बहू ने मुझसे आकर पूछा “माँ जी, आपने क्यों नहीं बताया कि खीर में चावल कच्चे हैं?”

मैंने कहा, “बहू मैं कहती तो तुझे जरूर बुरा लगता क्योंकि मैं तेरी सास हूं। ये रिश्ता ही ऐसा है। तुझे तेरी गलती का एहसास हो गया, आगे से कभी भी खीर के चावल कच्चे नहीं होंगे। कहकर मैंने उसको गले लगा लिया।”यह सुनकर तो मैं दंग रह गई

आशा जी की बातों में कहीं भी किसी की शिकायत नहीं होती। जिंदगी को देखने का उनका जो दृष्टिकोण था वो मैंने आज तक किसी सास या औरत में नहीं देखा।

शाम में घर आई तो रागिनी बैंक से आकर सबके लिए प्याज के पकौड़े और चाय बनाई । वैसे वो खाना अच्छा बनाती थी, पर मैंने कभी नहीं कहा।

आज मैंने कहा “रागिनी पकौड़े तो बहुत ही अच्छे बने हैं। मेरे लिए थोड़ा और लाना।” रागिनी भी दंग।

अब मैं और ज्यादा शांत हो गई थी। रागिनी के किसी काम में नुक्स नहीं निकालती। खाने की भी तारीफ करती। एक दिन रागिनी किसी से फोन पर बात कर रही थी और मैंने सुना “वो कह रही थी कि मेरी सास बहुत अच्छी हैं, मेरा बहुत ध्यान रखती हैं।”

मेरा मन गदगद हो गया।

आज शाम को आशा जी पार्क में नहीं आईं।

मैं बहुत देर तक इंतजार करती रही, फिर मैं घर चली गई।

रविवार था आज और तीसरा दिन भी । आशा जी नहीं अा रही थी। मेरा फोन नंबर उन्होंने लिया था, पर मुझे अपना नंबर नहीं दिया था।

तभी अचानक मेरे फोन की घंटी बजी।

एक अनजान नंबर था, मैंने फोन नहीं उठाया। दोबारा फोन बजा। मुझे लगा कि आशा जी का हो सकता है।

मैंने फोन उठा लिया। उधर से एक अनजान औरत की आवाज़ आई, “हेल्लो, आप सुलेखा जी बात कर रही हैं।”मैंने हाँ कहा।

उधर से बोलने वाली औरत ने बताया कि “आशा जी का निधन हो गया है। उनके कमरे से एक आपका फोन नंबर और आपके नाम की एक चिट्ठी मिली है। आप तुरत यहां “पलक वृद्धाश्रम” में अा जाइए।”

मैं घबरा गई और तुरंत अपने घर गई। वहां से पंकज और रागिनी को सारी बात बता कर उनके साथ वृद्धाश्रम पहुंची। आशा जी की लाश देखकर मुझे बहुत रोना आया।


मैंने वृद्धाश्रम में पूछताछ की तो पता चला कि “आशा जी के पति के मरते ही तीनों बेटे और बहुओं  ने उनका सब कुछ धोखे से लेकर उनको घर से निकाल कर यहां पहुंचा दिया था।”

तभी उस फोन करने वाली औरत ने मुझे आशा जी का पत्र दिया। उसी औरत ने बताया कि “इनको अस्थमा था। कल रात को बहुत तेज अस्थमा का अटैक आया और इनके प्राण निकल गए।”

मैंने वो पत्र खोला। उसमें लिखा था।

“मेरी प्रिय सखी,

सुलेखा।

बहुत प्यार।

पत्र देखकर आश्चर्य ना करना। मैंने बहुत कोशिश की, तुमको अपना सच बताने का।पर, तुम्हारे साथ मैं अपनी उस गृहस्थी को जी रही थी, जो मेरे कल्पना में थी।

तुम्हारे द्वारा बहुओं की बुराइयांँ सुन कर मुझे अपनी बहुएं याद आती थी। तुम तो बहुत भाग्यवान हो, कम से कम तुम्हारे बेटे और बहू ने तुम्हें घर से नहीं निकाला। तुम आज भी उस घर की मालकिन की तरह ही हो, सबके साथ बैठ कर खाती पीती हो। तुम्हें बेचैन देख कर तुम्हारे बेटे और बहू परेशान होते हैं।

मेरे भाग्य में ये सब सुख कहांँ।

कुछ ही दिनों में मैंने तुम्हारे साथ अपनी काल्पनिक गृहस्थी और बेटे बहुओं का जो सुख प्राप्त किया है, वो मेरे लिए अनमोल रत्न हैं।

मैंने तुमसे बहुत झूठ बोले, इसके लिए क्षमा करना। मैं अब नहीं बचूंगी। मेरी तबियत ने मुझे इशारा कर दिया है। तुमसे प्रार्थना है कि मेरे बेटे बहू को मेरे मरने की कोई खबर नहीं करना। पंकज और रागिनी भी मेरे बेटे और बहू हैं। उनसे ही मेरा क्रिया कर्म करवा देना।

तुम्हारी सखी आशा।”

पत्र पढ़कर मैं खूब रोई।

वहां रहने वाले लोगों ने उनके बेटे और बहू को खबर करने की बात कही, पर मैंने मना कर दिया।

आशा ने मुझे जीने का नया तरीका सिखाया है। मैंने वो पत्र पंकज और रागिनी को दिया। उनके आंखों में भी आंसू थे और वो दोनों अपना फ़र्ज़ पूरा करने के लिए तैयार थे।

 

          स्वरचित कथा

           अभिलाषा “आभा”

 

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