हर बीमारी का इलाज सिर्फ दवा नहीं होती- रश्मि झा मिश्रा । Moral stories in hindi

चुप रहो…रश्मि झा मिश्रा 

“मां… तुम चुप रहा करो ना… तुमको क्या मतलब है… वे आपस में लड़ें… झगड़ें… जो करें… पति-पत्नी हैं… आज लड़ेंगे कल फिर सुलह हो जाएगी… तुम्हें बीच में पड़कर किसी की सिफारिश करने की क्या जरूरत है…!”

” पर बेटा मैं भी इंसान हूं… घर में दिन भर हल्ला मचा रहे… झंझट होता रहे… तो कैसे देखा जाएगा…!”

” कहीं बाहर निकल जाओ… घूमने चली जाओ… मंदिर चली जाओ… पर उन दोनों के बीच मत बोलो…!”

” ठीक है… कोशिश करूंगी…!”

 वसुधा जी के पति का देहांत अभी 2 साल पहले ही हुआ था… तीन बच्चों में सबसे बड़ी थी गौरी… फिर प्रतीक… फिर अंश… गौरी का ब्याह तो पिता करके ही गए थे… प्रतीक का ब्याह भी 6 महीने पहले हुआ था… पर जब से ब्याह कर बहु घर आई थी हर वक्त घर में किसी न किसी बात की तनातनी चलती ही रहती थी… और अगर मां कुछ प्रतीक की साइड ले ले तब तो और भी बात का बतंगड़ बन जाता था…!

 असल में बहु अन्नू ज़रा तीखे स्वभाव की और कड़क मिजाज थी… इनसे बचने के लिए प्रतीक ने ही दीदी से कहा था…” दीदी मां को समझाओ ना.… बीच में ना बोले… हम जैसे होगा मामला खुद सुलझा लेंगे…!”

 इसलिए गौरी आज मां को समझाने चली आई थी… वसुधा जी का मिजाज शुरू से जरा चुलबुला रहा था… हंसना, बोलना, मजाक करना, इसलिए और भी बीच में कुछ ना कुछ तड़का डाल ही देती थी…!

 वसुधा जी ने हां तो कर दिया पर बरसों की आदत तुरंत थोड़े ही जाती है… हां धीरे-धीरे वे कोशिश करतीं… बीच में ना पड़ूं…!

इसी तरह 2 साल हो गए… इस बीच वसुधा जी एक प्यारे से पोते की दादी बन गई थीं… पोते के लाड़ दुलार में लगी दादी को अब और किसी बात की चिंता नहीं थी… पर यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी… बच्चा धीरे-धीरे बड़ा और शरारती हो रहा था… मां सख्त स्वभाव की थी ही बच्चे को डांटना पीटना उसके लिए सहज बात हो गया था… अब एक बार फिर वसुधा जी अपने पोते के लिए उसकी मां से उलझने लगीं… रोज-रोज फिर से घर में कोहराम मचने लगा…!

 इस बार तो प्रतीक ने खुद ही मां से कह दिया…” मां तुम्हें क्या जाता है… उसका बेटा है… वह जो करे… मारे, पीटे, कुएं में डाल दे… तुम क्यों पड़ती हो बीच में… ऐसा रोज-रोज चलता रहा तो कैसे रहेंगे एक छत के नीचे…!”

 वसुधा जी के पैरों के नीचे की धरती डोल गई… यही तो एक इकलौती जमीन थी उनकी… उनकी घर, गृहस्थी… बच्चे, बहू, पोता, इसके बिना उनकी जिंदगी… नहीं… नहीं… क्या होगा मेरा…!

 उनकी सहेलियों ने भी उन्हें यही सलाह दी… “देख वसुधा एक उम्र में जाकर सबको चुप रहना सीखना पड़ता है… घर को शांत रखने के लिए… जैसा माहौल है… वैसे ढलने की कोशिश कर… वरना ऐसे कैसे काटेगी अकेली जिंदगी…!” 

वसुधा जी घुटने लगीं… मन की बातें मन में रखतीं… आक्रोश से सांस फूलने लगी… गुस्से से प्रेशर बढ़ गया… चिंता से नींद चली गई… सब की दवा शुरू की… दवाओं की अधिकता के बोझ से दबी वसुधा जी को मधुमेह ने भी जकड़ लिया…!

 पचपन की होते-होते वसुधाजी पचास रोगों का घर बन गईं…बिना नींद की दवा खाए एक दिन भी सो नहीं पाती थीं… हंसना बोलना तो बिलकुल छोड़ ही दिया था… इस डर से की कब अन्नू को कौन सी बात बुरी लग जाए… आखिर बच्चे भी तो यही चाहते थे… कि घर में शांति बनी रहे…!

 प्रतीक की शादी के 7 साल बाद अंश का ब्याह हुआ… वह अपनी जिंदगी संवारने की कोशिश में लगा हुआ था इतने दिन… अब जाकर एक अच्छी नौकरी मिली तो बढ़िया घर में शादी भी हुई…!

 प्रज्ञा नाम था उसकी नई नवेली प्यारी पत्नी का… प्रज्ञा अन्नू के स्वभाव से बिल्कुल विपरीत थी… हंसमुख जिंदादिल घरेलू लड़की… ससुराल में जाकर नए माहौल में… अपनी जेठानी अन्नू के कड़क स्वभाव से वह पहले ही दिन वाकिफ हो गई…!

 मां वसुधा जी तो अलग-अलग ही रहती थीं… कुछ बोलना नहीं बस टाइम से दवाइयां लेना.… खाना खाना… और अपने में रहना… यह बात प्रज्ञा को बड़ा अखरता था…कोई हंसने बोलने वाला भी तो हो… उसने अंश से पूछा भी…” मां अभी से इतनी सारी दवाइयां क्यों लेती हैं…!”

” इतनी सारी परेशानियां है… तो दवाइयां तो लेनी ही पड़ेगी ना…!”

 पर प्रज्ञा को यह बात ना जंची.… वह बार-बार सासू मां से बात करने जाती… जबरदस्ती बातें पूछती… धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाई… वसुधा जी अब प्रज्ञा से बातें करने लगी थीं… बातें क्या उनका स्वभाव अपनी छोटी बहू से मिल गया… अब तो घर में नित नए हंसी के गुब्बारे फूटने लगे… दोनों मिलकर खूब बातें करतीं… नए पुराने किस्से… अंश के किस्से… प्रतीक के… गौरी के… और एक दिन तो मां ने बातें करते-करते रात की नींद की गोली भी नहीं ली… वैसे ही थककर चूर हो… सो गईं…!

  अन्नू दवा लेकर आई तो मां सो गई थी…” वाह… आज चार सालों में… ऐसा पहली बार हुआ है प्रज्ञा… वरना मां को तो बिना दवाओं के कभी नींद ही नहीं आती है…!”

 प्रज्ञा ने दीदी का हाथ पकड़ उन्हें कमरे से बाहर चलने का इशारा किया… बाहर आकर कहा…” दीदी हर बीमारी का इलाज सिर्फ दवा नहीं होती… यह सच है कि हंसना, बोलना, अपने मन की बातें साझा करना, दिल खोलकर कहीं रख देना, भी कई उलझनों को… बीमारियों को… पनपने से पहले ही खत्म कर देता है…!”

 “पर प्रज्ञा मुझे यह सब फिजूल की बातें पसंद नहीं… फालतू वेस्टेज ऑफ टाइम…!”

” ठीक है ना दीदी… नहीं पसंद है तो आप रहने दीजिए… मैं और मां मिलकर.… खूब वेस्टेज ऑफ टाइम करेंगे… आप बस गुस्सा मत करना… ओके…!”

” ठीक है… ओके…!” बोलकर अंजू मुस्कुरा कर अपने कमरे में चली गई…!

स्वलिखित

रश्मि झा मिश्रा

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