हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-6) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral

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सूखा हुआ डंठल…

पुलकित थे कमलकिशोर, इस समय वह अपने को शहजादा सलीम समझ रहे थे जिसे अनारकली से प्रेम था। इतना प्रेम कि उसके लिये वह दुनिया से रार लेने के लिए भी प्रतिबद्ध थे।

पर हाय…यहाँ तो उनके सारे अरमान खंडित हुये जा रहे थे। कोई उनकी प्रेमकहानी में बाधा डालने वाला ही नहीं था।

थी तो बस माई, लेकिन वह तो बलि-बलि जा रहीं थीं अपने नई नवेली बहू की सुंदरता, सुगढ़ता पर।

वह तो चाहतीं थीं कि उनके बेटे और बहू के प्रेम की सराहना दिग दिगंत तक हो।

बहू में अपूर्व लावण्य के साथ लज्जा थी, समर्पण था। बाधा तो कहीं था ही नहीं।

कमलकिशोर चाहते थे कि उमा नखरीली हों, पति से रोज ऐसी मांग करें कि उसे पूरा करने में कमलकिशोर का पूरा दम लग जाये फिर वह विजयी भाव से कह सकें कि लो देखो…मैं तुम्हारे लिये क्या नहीं कर सकता हूँ।

लेकिन संतोषी पत्नी और दानी माता के रहते उमा को कोई अभाव तो कभी रहा नहीं।

उमा की सौम्यता से कमलकिशोर दबे जा रहे थे। न हिरोइनों जैसे लटके-झटके थे उमा में, न वह नयनों की चितवन थी जिसके बाण से उनका हृदय घायल हो उठे। न वे पति को तरसातीं सतातीं थी, न ही गुलबकावली लेकर आओ, तभी तुम्हारे हाथ आऊंगी, का ठसन लेकर बैठतीं थी।

उमा तो दिनरात अपनी सासू मां का आंचल पकड़े घूमतीं थीं। गृहस्थी के गुर सीखती थी। और अगर कमलकिशोर उमा का आंचल पकड़ लें तो छुड़ा कर भागती भी नहीं थीं।

कहीं कोई फिल्मी रोमांस नहीं था।

शहजादा सलीम को अवसर ही नहीं मिला कि बड़ी बड़ी लफ्फाजी की जाये। क्योंकि सामने कोई अनारकली नहीं खड़ी थी। वहाँ तो उमा का साम्राज्य था जिसमें उनका पूरा ख्याल रखा जाता था।

कहते हैं न कि ज्यादा मीठा हो जाय तो स्वाद मर जाता है। यही स्वाद उनका मर गया।

वे उमा के शांत स्वभाव से खींचे खींचे रहते थे।

मगर माई का डर था जो कहीं बहक नहीं पाते थे। गांव, रिश्तेदारी में उमा उनकी माई के दिये नाम नयका का परचम लहराते प्रसिद्ध थी। कोई बहू उनकी बराबरी की, टक्कर की नहीं बैठती थी।

यह उमा का वह गौरव था जिसके नीचे कमलकिशोर दब से गये थे। अपने मनचाहे प्रेम का प्रतिसाद पाये बिना तीन बच्चों के पिता भी बन गये थे।

माई अपने इकलौते पुत्र की रक्षा में कोई जिम्मेदारी भी नहीं थोपतीं थी सो करने को भी कुछ ज्यादा नहीं था।

एक उत्तम गृहणी, एक सुखी गृहस्थी उन्हें रास नहीं आ रही थी। उन्हें प्रेम के आवेग की भूख थी। वह भूख माई के जाने के बाद चंदा से मिलने पर प्रखर हो गई।

आज वह उस घड़ी को कोसते हैं जब रिश्तेदारी निभाने वह चंदा के गांव पहुंचे थे।

वहाँ कब वे चंदा के लटके झटके में मोहित हो उठे, समझ भी नहीं पाये।

चंदा न तो सुंदरी थी, न ऐसा कोई लावण्य था कि कोई उस पर मर मिटे। लेकिन जाने क्यों उसने कमलकिशोर को अपनी तरफ खींच लिया।

बैठी हुई नाक, फुले हुये होंठों, थुलथुल शरीर की चंदा मन को ऐसी अच्छी लगी कि वे अपनी सुध-बुध ही खो बैठें।

उसकी खिलखिलाती हंसी मेंं डूब गये। हर दूसरे-चौथे वे उसके गांव का फेरा

लगाने लगे। चंदा से मुलाकात का जुगाड़ बैठाने लगे।

चंदा ने जब उनकी चाह समझ ली तब धीरे धीरे उनकी डोर इस कदर पकड़ी कि वे उसे पाने की चाहत में कुछ भी कर गुजरने पर उतारु हो गये। चंदा का कलुषित अतीत जानने के बाद भी वे कैसे धीरे-धीरे उसकी तरफ फिसलते गये, उन्हें यह होश नहीं था।

यही वह दौर था जब माई के जाने के बाद उमा गृहस्थी, बच्चों की सार सहेज में अकेले हाथ व्यस्त हो गईं थी कि पति की फिसलन का उन्हें जरा भी अंदाजा न हुआ।

कहते हैं न कि समाज ऐसी बातों को सबसे पहले भांप लेता है। यहां भी लोग उमा को इशारों इशारों में आगाह करने लगे थे लेकिन पंद्रह सालों के विश्वास पर वह इशारे हल्के पड़ गये।

उमा सोच भी नहीं पाईं कि उनका पति ऐसा-वैसा भी कुछ कर सकता है कि पति नगाड़े बजवाते अपनी नई दुल्हिन को ले उनके ही दरवाजे पर आन खड़ा हो गया…

आज कमलकिशोर को अपने उस उन्माद पर पछतावा है। लेकिन जब तीर कमान से निकल जाये तो निशाने पर बैठे या नहीं बैठे, वापिस हाथ में आने से रहा।

वह समय अब उनके हाथ नहीं रहा, वह तो निकल ही गया। अब पछताने से उस समय की भरपाई नहीं हो सकती है।

यह समझ कमलकिशोर को आ चुकी थी पर प्रायश्चित का कोई ठौर नहीं था।

सब छूट गया हाथ से, बच्चे, पत्नी, गृहस्थी सब। हाथ में बची चंदा ही थी लेकिन उन्हें तब ही पता पड़ गया था कि उन्हें तो चंदा से कोई प्रेम ही नहीं था।

चंदा उन्हें ग्रहण में ग्रसने के लिये ही मिली थी। उस ग्रहण का सूतक इस जन्म खत्म नहीं होने वाला, यह वे समझ चुके थे।

एक गहन निःश्वास लिया कमलकिशोर ने। जब नियति ही तय कर चुकी है उनकी नियती तो शिकायत करने, फरियाद करने किसके पास जायें।

कमलकिशोर सोचने लगे, जब उनके पास सब कुछ था तब भी उनकी चाहत अलग थी। जब उस चाहत की भरपाई हुई तो वह दो कौड़ी की हो गई।

तब उन्हें नयका की कदर नहीं थी। अब उन्हें चंदा की चाहत नहीं रही।

बस अब वे जी रहे हैं, जीने की चाहत नहीं रही। तब चले थे वे नयका की डोर काटने, कट उनकी ही डोर गई। दस सालों से वे आसमान में टंगे हिलडुल रहे हैं। कोई ठौर नहीं।

कमलकिशोर के आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।

तभी उन्हें जोर से हिलाती हुई चंदा की आवाज आई…का हो दुबेजी… उठे नहीं कि फिर सो रहे, ऐसे ही जैसे मेरी किस्मत सो रही तुम्हारे साथ। पकड़ो अपनी चाय, फिर न बनाने वाली मैं। कोई कांरु का खजाना नहीं भर दिये हो कि बार-बार चाय फेंक दुबारा चाय बनाने की हैसियत बची है।

उठकर बैठते हुये कमलकिशोर ने चंदा को गहरी नजर से देखते हुये बोले, तुम्हारा नाम चंदा जिसने भी रखा होगा, ठीक ही रखा है। तुम्हें देखते ही उसके मन में पहला ख्याल यही आया होगा कि तुम दिन भर अस्त ही रहो तभी कल्याण होगा।

कमलकिशोर की इस बात से तिलमिलाई चंदा चुप नहीं रही। उसने मुंह बिचकाकर कहा…मेरी तो छोड़ो, जिसने भी तुम्हारा नाम रखा होगा उसने कभी सोचा नहीं होगा कि एक दिन न तो तुम कमल रहोगे न किशोर।

सूखे हुये डंठल भर रह जाओगे।

सूखा हुआ डंठल, मन ही मन विहंस पड़े कमलकिशोर, कड़वी है पर बात तो सच कह गई चंदा। सूखा हुआ डंठल ही रह गये हैं वो।

किसी काम के नहीं…

पंद्रह साल उमा का साथ और दस साल चंदा का साथ, मिला क्या उन्हें, बीच की यह दीवार जिसे फांदने की उनकी चाहत तक मर चुकी है।

काश माई, तुम इतनी जल्दी न जाती…

क्रमशः …

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साधना मिश्रा समिश्रा

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