गाँव वाले बाऊजी  – रवीन्द्र कान्त त्यागी

“बाऊजी, आप की गाड़ी शाम चार बजे स्टेशन पर पहुंचेगी। मैं आप को लेने स्टेशन पर आ जाऊंगा।” रितेश ने गाँव से उसके पास शहर आ रहे अपने पिताजी से फोन पर कहा।

“क्यूँ, तुम्हारी ड्यूटी नहीं होगी क्या उस दिन। इतनी दूर ऑफिस से सिर्फ मुझे घर तक छोड़ने आओगे।”

“जी हाँ। मैं … मैं हाफ डे की छुट्टी ले सकता हूँ या …।”

“इसकी कोई आवश्यकता नहीं है बेटा। मेरे पास एक कंधे पर लटकाने वाला थैला ही तो होगा। फिर मौसम भी ठंड का है। कोई गर्मी तो है नहीं। तुम्हारा घर स्टेशन से दूर ही कितना है। मैं आराम से पैदल पहुँच जाऊंगा। तुम अपनी ड्यूटी पूरी करके ही लौटना। फिर शाम को घर पर ही मिलेंगे।” और उन्होने फोन काट दिया।

रितेश के पिताजी गाँव में रहते थे और साल में एक या दो बार दो चार दिन के लिए अपने बेटे बहू और पोते पोतियों के पास शहर आते रहते। उनका बेटा बैंक में एक अच्छी पोस्ट पर काम करता था और सामान्य रूप से एक सम्पन्न जिंदगी गुजरता था। उसके दो लड़के थे। बड़ा बेटा दसवीं क्लास में पढ़ता था और छोटा सातवीं क्लास में।

शहर में अपने बेटे के पास आकर भी बहात्तर साल के बाऊजी सुबह पाँच बजे बजे अपना बिस्तर छोड़ देते थे। तब सारा परिवार गहरी नींद में सोया रहता। जागने के बाद वे शौच इत्यादि से निवृत होकर प्रातः काल की सैर करने निकल जाते और सात बजे तक घर लौटते थे। तब उनकी बहू उन्हे चाय बनाकर देती थी। बाऊजी अपना सुबह का नाश्ता सुबह नौ बजे तक कर लिया करते थे। जब भी वे गाँव से आते रितेश को उनके लिए बाजार से मिश्रित अनाज का आटा और गुड खरीदकर लाना पड़ता था। वे सुबह के नाश्ते में गेहूं चने की रोटियाँ ही खाया करते थे।

बाऊजी को यहाँ आए हुए कई दिन हो गए थे। रितेश ने अनुभव किया कि इस बार बाऊजी न जाने क्यूँ कुछ चिंतित से रहते हैं। उन्होने अपनी पत्नी से भी पूछा था कि बाऊजी आजकल परेशान से क्यूँ रहते हैं। क्या तुम से कोई बात हुई है। किन्तु रितेश की पत्नी भी बाऊजी के माथे पर चिंताओं की रेखाओं के कारण से अनभिज्ञ थी।

रितेश अपने पिता से बहुत प्यार करता था और उसे लगातार इस बात की चिंता खाये जा रही थी कि मेरे या परिवार के व्यवहार में या सेवा सुश्रुषा में क्या कमी रह गई जो साल में चार छह दिन के लिए ही मेरे पास आने वाले बाऊजी परेशान से रहते हैं। मुझे लाड़ प्यार से पाल पोसकर यहाँ तक पहुंचाने वाले मेरे पालक चंद दिनों भी मेरे पास खुश न रह सकें तो चिंता का विषय तो है ही। उन्होने कई बार पूछने का प्रयास भी किया किन्तु बाऊजी ने कोई उत्तर नहीं दिया।




इतवार का दिन था। बाऊजी अपना नाश्ता कर चुके थे। बच्चे टेलीविज़न पर तेज आवाज में कोई वैब सिरीज़ देख रहे थे। रसोई में से तरह तरह के तेल और मसलों की खुशबू उड़ रही थी। पूरे घर का वातावरण एकदम खुशनुमा था किन्तु बाऊजी किसी गहरी सोच में डूबे थे।

रितेश एक प्लेट में पकौड़े लेकर बाउजी के पास आया और कहने लगा “बाऊजी, एक दो तो चख ही लो। आप की बहू ने बड़े जतन से बनाया है।”

“एक छोटा सा टुकड़ा रख दे रितेश। वैसे इस उम्र में मैंने ये सब खाना छोड़ दिया है। तू नाश्ता कर ले। फिर मुझे तुझ से कुछ बात करनी है।” बाऊजी ने गंभीर स्वर में कहा। रितेश शंकित सा वहाँ से चला गया।

थोड़ी देर में कोई गंभीर बात जानने की जिज्ञासा में सारा परिवार बाऊजी को घेर कर उनके पास बैठा था। दोनों पौत्र, स्वयं रितेश और पत्नी वैशाली।

सब से पहले वैशाली ने कहा “बाऊजी, आजकल आप कुछ उदास से रहते हैं। बोलते भी कम हैं। क्या मुझ से कोई गलती हुई है।”

“नहीं … मैं …।”

“दादू, इस बार आप ने गाँव की कहानियाँ भी नहीं सुनाई। क्या आप की तबीयत ठीक नहीं है।” बड़े पोते ने कहा।

“हाँ बाऊजी, आप को कोई परेशानी हो तो डॉक्टर को दिखा लेते हैं। इस उम्र में कुछ दवाइयाँ तो चलती ही हैं।”

बाऊजी ने अचानक मौन तोड़ते हुए कहा “बीमार मैं नहीं तुम हो।”

सारा परिवार उनकी तरफ आश्चर्य और उत्सुकता से देखने लगा। बाउजी ऐसे तो कभी नहीं बोलते थे।  थोड़ी देर मौन छाया रहा। फिर बाऊजी भावुक होकर धीरे धीरे बोलने लगे।

“तू मेरा एक ही बेटा है रितेश। अब … तू और तेरे परिवार के सिवा इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है। गाँव में अकेला रहता हूँ तो इस लिए कि यहाँ शहर में मेरा मन नहीं लगता और थोड़ी बहुत खेती बाड़ी भी है मगर … मगर यहाँ मैं अपने ही परिवार का पतन देख रहा हूँ।”




“ऐसा भी क्या हो गया बाऊजी। कैसा पतन। सब ठीक तो है। ठीक ठाक सैलेरी मिलती है। बच्चे पढ़ रहे हैं और … अपना मकान, संपत्ति …।”

“बस … यही है न तुम्हारे पास बताने को और गर्व करने को। यानी पैसा। दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण दूसरी चीज पैसा। और पहली?”

“पहली … वो क्या है बाऊजी?”

“स्वास्थ्य। ये जो तेरी ड्रॉअर में दवाइयाँ भरी हुई हैं जिन्हे तू दिन रात फँकने को मजबूर रहता है, ये क्या है।”

“वो … शहरों की जिंदगी में बाऊजी कई तरह के स्ट्रैस और … क्या करूं लाइफ ही ऐसी हो जाती है। अब … ब्लड प्रेशर है। डाइबिटीज़ है। हाइपरटेंशन और …।”

“अभी तो तूने कहा कि सब ठीक है। ये है सब ठीक। कुछ ठीक नहीं है रितेश। कुछ भी ठीक नहीं है। तुझे बयालीस की उम्र में इतनी सारी बीमारियाँ हैं। बड़े अजय की उम्र अभी चौदह पंद्रह साल है। मुझे लगता है कि इस समय उसका वजन सत्तर किलो से भी ऊपर रहा होगा। उसे थोड़ा सा तेज चलने में भी सांस फूलने लगती है। और बहू तुम। बेटा सारे दिन टीवी के सामने बैठकर सीरियल देखना और बाजार की चटपटी चीजें खाना। न एक्सर्साइज़ न योगा।”

“क्या करें बाऊजी। लाइफ ही ऐसी हो गई है। महानगरों में …।”

“लाइफ हो नहीं गई है तुम ने इसे ऐसा बना लिया है। ये … ये कैसा जीवन जी रहे हो तुम लोग। पूरा परिवार रात को बारह बजे सोता है और सुबह नौ बजे उठता है। फिर नाश्ते में कभी छोले भटूरे, कभी कचौड़ी या पराँठे। कभी कच्चे मैदे की बनी हुई मैक्रोनी और पीत्ज़ा और हानिकारक कैमिकल्स से भरे हुए नूडल्स।”

“जो बच्चों को और इन को पसंद है, वही नाश्ते में बना लेती हूँ बाऊजी। आप के बेटे को भी चटपटा खाने का बहुत शौक है। महीने के आधे दिन तो रेस्टोरैंट से मांगकर फास्टफूड खाते हैं और … मैं विरोध करती हूँ इस लिए बताते नहीं वरना मैंने तो सुना है की बाहर नॉन वैज़ भी …।” बहू ने संकोच के साथ कहा।

“हाँ, कर लो बाऊजी से मेरे चुगली। तुम्हें भी आज अच्छा मौका मिला है।”

“तुम कितना भी छिपाओ रितेश, इस घर में फैली महक से इतना पता तो मुझे लग ही गया है कि तुम स्मोक करते हो। बेटा, जब मैं अध्यापक था तो हमेशा अपने छात्रों को पढ़ाई से भी अधिक स्वास्थ्य और चरित्र की शिक्षा देता था। किन्तु आज मेरे अपने ही घर में …।” उन का स्वर भीग सा गया और वे चुप हो गए।

“मगर दादू, ब्रेकफ़ास्ट हो या डिनर, टेस्टी भी तो होना चाहिए। आज मैं आप को पिज्जा टेस्ट कराता हूँ। दादू, मजा आ जाएगा।” छोटे पौत्र ने कहा।




“देखो बेटा, कुदरत का एक नियम है कि जितनी भी हानिकारक चीजें होती हैं, उनमें एक आकर्षण होता है। एक खिंचाव होता है। नियति ने भिन्न भिन्न प्रकार के स्वाद, विलासिताएं, आनंद दायक चीजें और मद बनाए हैं किन्तु हर आनंद में एक मौन आदेश छुपा हुआ है और नियति का वो मौन आदेश है नियंत्रण का। आत्मविश्लेषण और अनुशासन का। मिठाई बहुत स्वादिष्ट लगती है किन्तु उसी स्वादिष्ट मिठाई का अत्यधिक सेवन आप की सेहत को तबाह कर सकता है। क्या कोई इंसान रोज अपनी जीभ का गुलाम होकर केवल मिठाइयों या भांति भांति के व्यंजनों के सहारे अपना पूरा जीवन व्यतीत कर सकता है। यही बात व्यसनों पर भी लागू होती है। अल्कोहल, अफीम और भांग इत्यादि का अल्प मात्रा में दवाइयों में प्रयोग किया जाता है किन्तु इन्ही नशीले पदार्थों ने, न जाने कितने घर और कितने जीवन बर्बाद कर दिये हैं। आप अपने जीवन की लगाम को इतना ढीला नहीं छोड़ सकते कि आप का स्वास्थ्य अनियंत्रित होकर ऐसे गड्ढे में जा गिरे जहां से उसे निकालना संभव ही न हो।”

“दरअसल पिताजी … गाँव के और शहर के जीवन में …।”
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“ये बहानेबाजी छोड़ो रितेश। क्या महानगर का जीवन तुम्हें रात को बारह और एक बजे सोने और सुबह नौ बजे उठने को बाध्य करता है। सुबह को रोज नाश्ते में मक्खन और पराँठे, समोसे और भटूरे,कचौड़ियाँ और नूडल्स खाने को महानगर कहता है क्या। कौन तुम्हें सामान्य व्यायाम करने से रोकता है। यहाँ भी कितने लोग मौर्निंग वॉक करने जाते ही हैं। किस ने तुम्हारे पाँवों में बेड़ियाँ ड़ाल रखी हैं भला।”

“बाऊजी, जैसी जीवनशैली आम शहरियों की हो गई है,हम भी धीरे धीरे उसी में ढल गए हैं।” बहू ने धीमे से कहा। वैसे हम नाश्ते में जूस और ब्रैड बटर …।”

“मुझे तुम से ज्यादा शिकायत है वैशाली बेटा। शादी से पहले के स्पोर्ट्स में मिले प्रमाणपत्र और शील्ड आज भी तुम्हारी अलमारी में सजे हुए हैं मगर इस परिवार से मिलकर तुम भी …। ये फैक्ट्रियों में बने हुए डिब्बा बंद मीठे कैमीकल के घोल को तुम जूस कहती हो और ब्रैड। क्या रितेश के डॉक्टर ने उसे बताया नहीं कि मैदे की बनी ब्रैड भी रेग्युलर खाना स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है। देखो बच्चो, ये शरीर तुम्हें कुदरत की दी हुई एक नियामत है। उस ने तुम्हें एक स्वस्थ शरीर दिया था किन्तु तुम उसके साथ क्रूर खिलवाड़ करके उसे विकृत बनाने पर आमादा हो। मुझे बेहद अफसोस और चिंता के साथ कहना पड़ रहा है रितेश कि तुम्हारा बेटा अभी चौदह साल का है और तुम दोनों अनेक बीमारियों से ग्रसित हो गए हो। अगर तुम इसी तरह का विलासी और अनियंत्रित जीवन जीते रहे तो … क्या तुम उसे एक स्वस्थ और योग्य नागरिक बनाने का दायित्व निभा पाओगे। कुछ भी हो सकता है रितेश … कुछ भी। अगर यही हाल रहा तो तुम असमय अपने परिवार को अनाथ छोड़कर …। ”




पूरा परिवार शांत और गंभीर मुद्रा में अपने जीवन की सहज और सामान्य लगने वाली भयावहता को समझकर गंभीर हो गया था। रितेश ने मूंह तक ले जाने के लिए हाथ में लिया पकौड़ा दोबारा प्लेट में रख दिया।

“देखो बेटा, प्रकृति का सीधा सिद्धान्त है कि एक मानव प्रकृति के उत्पादों का एक सीमा से अधिक उपभोग और दोहन नहीं कर सकता। शायद भगवान ने ये नियम इसी लिए बनाया होगा कि कयनात की सारी नियामतों का सब मानवों में और सब जीवों में बंटवारा हो सके। हा हा हा। अगर सारा माल पैसे वाले ही खा जाएंगे तो गरीबों का क्या होगा।” उन्होने हँसते हुए वातावरण को सामान्य करने का प्रयास किया।

“हाँ दादू। आप ठीक कहते हैं। सारे स्कूल के दोस्त मुझे मोटू मोटू कहकर चिड़ाते हैं।”

“तब क्या हम सब नौकरी वौकरी छोड़कर गाँव में जाकर बस जाएँ बाऊजी।” रितेश ने कहा।

“कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अभी देर नहीं हुई है बेटा। जब आँख खुलें तभी सवेरा है। यहीं रहकर पूरी जीवन शैली को बदलना होगा। सब ठीक हो सकता है। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। कल से पूरा परिवार सुबह पाँच या छह तो नहीं, सात बजे तक बिस्तर छोड़ देगा। परिवार के सभी लोगों को मौर्निंग वॉक करना होगा।”

“उसके बाद उबले हुए सब्जी के टुकड़े और काली चाय। क्यूँ दादू।” छोटे पोते ने हँसते हुए कहा।

“यही तो विसंगति है मेरे लाल। हम ने ये मान लिया है कि स्वस्थ जीवन के लिए स्वाद हीन और रूखा सूखा खाना पड़ता है। देखो बेटा सीधा सी बात है। अति सर्वथा वर्जियते। शरीर को वसा भी चाहिए, एनर्जी के लिए मीठा भी चाहिए। विटामिन और मिनरल्स चाहिएं किन्तु बस एक सिद्धान्त याद रखो। जितना शरीर में ख़र्च हो उस से कम खाओगे तो कमजोरी होगी और अधिक खाओगे तो वजन बढ़ेगा। विज्ञान का युग है। हमे अपने एक एक कोर का पता होता है कि इस में कितने विटामिन और कितने मिनरल्स हैं या कितनी हानिकारक बैड कैलेस्ट्रोल या शुगर मौजूद है। जहां तक तुम स्वादहीन खाने की बात करते हो, किस ने कहा कि स्वस्थ्य वर्धक भोजन स्वादिष्ट नहीं होते। हमारे देश के भिन्न भिन्न भागों में इतने स्वादिष्ट और हैल्दी भोजन मौजूद हैं कि स्वाद भी और स्वास्थ्य भी। दक्षिण भारत के इडली,उत्पम और सांभर, गुजरात के खांकरा और ढोकला, बंगाल का सौन्देश और हल्की फुलकी बंगाली मिठाइयाँ,राजस्थान की दाल बाटी। अरे व्यंजन तो भरे पड़े हैं। तुम डिब्बाबंद जूस छोड़कर मौसम के फलों का आनंद ले सकते हो। ब्रैड की जगह मिश्रित अनाज की मसालेदार रोटी बना सकते हो। इच्छा शक्ति चाहिए बेटा। तुम्हारी मम्मी एक पढ़ी लिखी लड़की है। बस तुम्हारे पापा के रंग में कुछ ज्यादा ही रंग गई है।” उन्होने हँसते हुए कहा।

“पापा, आज तो आप ने मेरी भी आँखें खोल दीं। गृहणी होने के नाते सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी तो मेरी ही है। आज के बाद … देखती हूँ कि आज के बाद ये कैसे ऊल जलूल चीजें खाते हैं।” वैशाली ने कहा।

“और मौर्निंग वॉक कब से।” बाऊजी ने पृश्नसूचक निगाहों से कहा।

“कल से।” पूरा परिवार समवेत स्वर में चिल्लाया।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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