गलती से लड़की हो गई – स्मिता टोके “पारिजात”

“कहाँ मैं पोते की आस लगाए बैठी थी और यहाँ तो बहू को गलती से लड़की हो गई । ” सुशीलादेवी अपनी ननद से बात कर रही थीं ।

“मैं तो पहले ही कह रही थी भाभी कि सोनोग्राफी करवा लो । किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी । पर आपने सुना ही नहीं ।”

“उसी गलती की सज़ा भुगत रहे हैं ।” सुशीलादेवी ने अफसोस से माथा पकड़ लिया ।

स्वर ऐसा था कि पूरे मोहल्ले को सुना रही हों । बहू सरिता नवजात बेटी को गोद में उठाए क्षोभ से भर उठी । किन अरमानों के साथ ब्याहकर इस घर में आयी थी । तब कहाँ पता था कि घर के लोग इतने दकियानूसी हैं । भाग्य को भी क्या दोष दूँ, विनोद का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि पापा ने रिश्ता करते समय आगा पीछा नहीं देखा । काश ये सब पहले से ही पता होता तो मैं शादी के लिए कभी हाँ न कहती ।

सरिता एक मध्यमवर्गीय परिवार की तीसरी औलाद थी । पिता रमेश कुमार पोस्ट ऑफिस में हेड क्लर्क थे और माँ सुहासिनी गृहिणी । दोनों भाईयों और माँ बाप की चहेती सरिता हमेशा एक राजकुमारी की तरह घर में रही । रमेश जी ने अपनी बेटी की शिक्षा दीक्षा में कोई कमी न रखी । सुहासिनी ने अपनी बेटी को गृहकार्य में दक्ष बना दिया । अपने परिवार की शान सरिता एम.ए. करते ही शहर के एक नामी स्कूल में जॉब करने लगी ।

सरिता के दोनों बड़े भाई यथासमय अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो चुके थे और चाहते थे कि उनकी शादी से पहले सरिता के हाथ पीले कर दिए जाएँ । रमेश जी और सुहासिनी को भी ये बात जम गई । विनोद के पिता शारदा प्रसाद अपने पिताजी की पेंशन के सिलसिले में पोस्ट ऑफिस आते रहते थे । रमेश जी और उनकी अच्छी जानपहचान हो गई । एक दिन बातों ही बातों में विनोद की शादी की बात निकली । उधर रमेश जी ने सरिता के ब्याह का विषय उठाया । शारदा प्रसाद जी ने तुरंत सरिता की  तस्वीर माँग ली और विनोद की तस्वीर और डिटेल्स रमेश जी को व्हाट्सएप कर दिए ।




एक औपचारिक कार्यक्रम के बाद शादी फिक्स हो गई । विनोद ने अपने सहृदय स्वभाव से सबको इम्प्रेस कर दिया । सरिता इतना अच्छा घर परिवार और भावी जीवनसाथी पाकर फूली नहीं समा रही थी ।

“तुम चाहो तो शादी के बाद भी जॉब कंटीन्यू रखना । ” एक दिन रेस्तरां में मिलने पर विनोद ने कहा ।

“हाँ, मैं भी क्लियर करना ही चाहती थी । सारी बातें हो गईं, ये बात रह गई ।”

“मैं जानता हूँ, इसीलिए आज कहा । मैं स्त्री-पुरूष समानता का पक्षधर हूँ । हम मिलकर आप अपना संसार बनाएँगे । जैसे मुझे जरूरत हो तब तुम सपोर्ट करोगी, वैसे ही जब तुम्हें जरूरत हो मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा ।”

सरिता को लग रहा था जैसे वह कोई सपना देख रही हो । अपने आसपास की घटनाएँ, किसी सहेली को ससुराल में दुर्व्यवहार मिलने की दुःखद बातें, पतियों के तानाशाही रवैय्ये की बातों से मन में जो थोड़ी बहुत शंका थी, विनोद की बातों से दूर होती चली गई ।

सगाई के दो माह के बाद ही मुहूर्त पक्का करके सरिता और विनोद की शादी हो गई । सरिता की जॉब यथावत जारी थी । कभी विनोद तो कभी ससुर शारदा प्रसाद उसे स्कूल में ड्रॉप कर देते और यथासमय वापिस लेने आ जाते । गुज़रते दिनों के साथ वह ससुराल में रम गई । अपनी सास सुशीलादेवी से नए रीति रिवाज़ सीखते-सीखते और ‘बहू, खुशखबरी कब सुना रही हो’ इस वाक्य को धैर्य से आत्मसात करते-करते एक दिन नन्हे जीव ने अपने आने की खबर दे दी ।

पोते की आस में सुशीलादेवी सरिता की ज़्यादा ही देखभाल करने लगी । सब कुछ ख़ुशी ख़ुशी चल रहा था । एक दो बार उन्होंने दबी आवाज़ में बेटे से कहा भी की बहू की जाँच कर लेते हैं लेकिन बेटे ने साफ इनकार कर दिया । वे मन मसोसकर राह गई ।




डिलीवरी के लिए सरिता मायके आ गई और एक स्वस्थ बेटी को जन्म दिया । नाना, नानी, दादा, पापा, मामा सब ख़ुश थे एक सुशीलादेवी को छोड़कर । बेटी के नामकरण संस्कार के बाद एक महीने में सरिता अपनी ससुराल आ गई । बड़ौदा में रहनेवाली बुआ सास शादी के बाद पहली बार घर आई थीं ।

शाम के समय दोनों ननद- भौजाई सोफे पर बैठकर गप्पे लड़ा रही थीं इस बात से अनभिज्ञ कि उनकी बातों से सरिता के दिल को कितनी चोट पहुँच रही है । हाल ही में ऑफिस से लौटा विनोद सारा माजरा समझ गया । माहौल को ठीक रखने के लिए सरिता की चुप रहना उसे अखर रही थी ।

कहाँ मैं पोते की आस लगाए बैठी थी और यहाँ तो बहू को गलती से लड़की हो गई । बहू में ही कोई खोट है ।” सुशीलादेवी ननद से बोली ।

विनोद अबकी बार चुप न रह सका, ” देखो माँ …. आप तो प्रकृति को ही गलत ठहराने पर तुली हो । लड़का होगा या लड़की ये स्त्री पर नहीं , पुरुष पर निर्भर करता है । चाहो तो अपनी डॉक्टर मैडम अनु से पूछ लो । चलो मैं ही फोन लगा देता हूँ । बहुत दिनों से अनु से बात भी नहीं हुई है ।”

बेटे की बात सुनकर सुशीलादेवी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं । ननद रानी ने भी वातावरण की गंभीरता को देखते हुए छुओ रहना उचित समझा ।

“औलाद कोई भी हो सरिता और मेरे लिए दोनों बराबर हैं । दीपक हो या दीपिका घर तो दोनों ही रौशन करते हैं ,,,,,,,,,,,,,।”

बेटे की बात सुनकर सुशीलादेवी की आँखें शर्म से झुक गईं । नन्हीं बिटिया कुनमुनाई , माहौल में समझ की मनमोहक खुशबू थी ।

स्मिता टोके “पारिजात”

  इंदौर

स्वरचित एवं मौलिक

सर्वाधिकार सुरक्षित

#बेटियाँ_साप्ताहिक_विषय

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