प्रस्तावना: वो जून की दोपहर थी। सीमित साधनों में जी रही सीमा अपनी माँ की पुरानी साड़ी में बैठी थी — चुपचाप। आँखों में कोई सपना नहीं, बस चिंता, तनाव और टूटन।
उसका विवाह तय हो चुका था — एक नौकरीपेशा लड़के से। पर उसकी माँ आज रो रही थी।
“लड़के के पिता ने आज साफ कह दिया- दो लाख नकद और बाइक चाहिए। नहीं तो रिश्ता यहीं खत्म।”
सीमा की माँ ने थके स्वर में कहा-
“बेटी, हम बहुत कोशिश कर चुके, अब भगवान ही मालिक है…”
पात्र परिचय:
सीमा — एक शिक्षित, समझदार, लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न परिवार की स्वाभिमानी लड़की।
अविनाश कुमार — एक प्रगतिशील सोच वाला युवा, जिसने बचपन से ही दहेज के खिलाफ खड़े होने की ठानी थी।
शांति देवी (अविनाश की मौसी) — गांव में सामाजिक रूप से सम्मानित, जिनके घर सीमा कुछ दिनों से ठहरी थी।
मोड़ की शुरुआत: संयोगवश अविनाश, गर्मी की छुट्टियों में अपने गाँव आया। मौसी के घर पहुँचते ही सीमा से पहली बार मुलाक़ात हुई।
सीमा मौसी की बहन की बेटी थी। गंभीर स्वभाव की, लेकिन आँखों में एक गहराई थी।
शांति देवी ने अविनाश से कहा –
“लड़की भली है, पर किस्मत नहीं साथ दे रही। अच्छा लड़का मिला, पर दहेज के बिना बात नहीं बनी…”
अविनाश के माथे पर शिकन उभर आई।
“मौसी, क्या हम अब भी बेटियों को वस्तु मानते हैं? क्या रिश्ता अब भी कीमत से तय होता है?”
एक प्रस्ताव – एक क्रांति:
अविनाश ने चुपचाप सीमा से बात की।
“क्या तुम बिना दहेज के विवाह करना चाहती हो?”
सीमा चौंकी। धीरे से बोली –
“मैं कोई बोझ नहीं बनना चाहती किसी पर…”
अविनाश मुस्कुराया –
“और मैं तुम्हारे स्वाभिमान को अपनी शक्ति बनाना चाहता हूँ।”
अविनाश ने अपने माता-पिता से स्पष्ट बात की –
“यदि विवाह करूँगा तो इसी लड़की से – बिना दहेज, बिना तामझाम।”
परिवार में पहले हलचल हुई, रिश्तेदारों ने ताने दिए –
“लड़की गरीब घर की है।”
“लोग क्या कहेंगे?”
“कोई परंपरा नहीं निभेगी?”
पर अविनाश अडिग था।
“परंपरा वही होती है जो समाज को बेहतर बनाए, अन्यथा वह केवल बोझ है।”
विवाह – साधारण लेकिन असाधारण
अविनाश और सीमा का विवाह गाँव के मंदिर में, केवल परिवार और दो मित्रों की उपस्थिति में हुआ।
न बैंड, न भोज, न मांग।
केवल सात फेरे, सात संकल्प और एक सामाजिक संदेश।
शहर में इस विवाह की चर्चा फैल गई। कुछ लोगों ने आलोचना की, पर अधिकांश ने सराहा।
“पहली बार देखा कि कोई बेटा आगे आया और दहेज नहीं माँगा।”
“बेटी को सम्मान मिला, बोझ नहीं समझा गया।”
समय की परीक्षा: विवाह के बाद भी चुनौतियाँ आईं। रिश्तेदारों की उपेक्षा, समाज की संकीर्ण सोच, सीमित संसाधन पर सीमा और अविनाश ने मिलकर हर चुनौती का सामना किया।
सीमा ने आगे पढ़ाई पूरी की, और ग्रामीण स्कूल में अध्यापिका बनी।
अविनाश ने अपने सामाजिक कार्यों के माध्यम से दहेज मुक्त विवाह अभियान शुरू किया।
उपसंहार: आज, 30 गाँवों में 70 से अधिक विवाह बिना दहेज के हो चुके हैं — अविनाश और सीमा की प्रेरणा से।
लोग अब कहते हैं: “जहाँ सोच बदलती है, वहीं समाज बनता है।”
“अगर हर अविनाश जैसे बेटे हों, तो हर सीमा मुस्कुराएगी।”
सारांश: यह कहानी केवल विवाह की नहीं, सामाजिक चेतना की है।
यह केवल सीमा की नहीं, हर उस लड़की की है जो दहेज की बेड़ियों में जकड़ी है।
यह केवल अविनाश की नहीं, हर उस युवक की है जो कुछ अलग और बेहतर करने का साहस रखता है।
@ सुरेश कुमार गौरव सिमली सहादरा रामधनी रोड, मालसलामी, पटना सिटी-800008, पटना (बिहार)