दीयों की चमक – डॉ उर्मिला सिन्हा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :

 रमा तिलमिला उठी.. परिस्थिति ने उसे कठोर और असहिष्णु बना दिया था.

  बड़ी भाभी की तीखी बातें नश्तर सी चुभो रही थी.. कैसे इतनी कड़वी बातें कह जाते हैं वे लोग ….वह भी मुन्ने के सामने.. उनकी तीखी कड़वी बातों का मुन्ने के बालमन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा ….वे जरा भी नहीं सोचती…

           क्यों सोचेंगी वे… जब मां होकर वह अपनी नन्ही सी संतान की भलाई बुराई समझ नहीं पाई… भला उन्हें क्या गरज है.

   “हां… हां……सारा कसूर उसका है …  वैसे घर परिवार , भैया भाभी यहां तक कि मां भी उसे ही दोषी करार देती है…सोने सी गृहस्थी तोड़ने की जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है…..”

   घर टूटा उसका… जिसे सभी ने देखा और दिल… हृदय पर जो चोट लगी .. उसपर किसी की नजर नहीं ग‌ई..

      “बेटी मर्द को वश में रखना सीख..इस तरह अपना घर छोड़कर आने से तुम्हारा जीवन कैसे पार लगेगा..”मां के समझाने पर वह बिफर उठी थी…

   “मां किस मर्द की बात करती हो…. उसकी जो बात-बात पर अकड़ता है… अपनी मां बहन के इशारे पर नाचता है …या फिर उसकी जो शादीशुदा, एक बच्चे का पिता होते हुए भी….छि:…” आगे के शब्द आंसुओं में डूब गये.

       “रमा होश से काम लो ..अब तुम अकेली नहीं..एक नन्ही सी जान है तुम्हारे साथ…”मां ने धीरे से कहा.

      “इसी नन्ही सी जान की खातिर ही अपनी जान नहीं दी मैंने… नहीं तो किसी कुएं तालाब में कूद जाती….”

   “ना बेटी ऐसी अशुभ बातें मुंह से मत निकालो…”मातृहृदय

पिघल उठा.

      “तुम्हारे दरवाजे नहीं आती .. तुम लोगों के उलाहने नहीं सुनती … मेरे लिए इधर कुआं.. उधर खाई …..”रमा रोती जाती , बीच-बीच में अपनी वेदना मां के आंचल में डालती जाती.

     अभी भी बड़ी भाभी की जुबान कैंची की तरह चल रही थी,”दोनों में से एक काम हो …या उस मरदुए की आवभगत की जाये या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाय…”

    “सच में दोनो बातें एक साथ संभव नहीं लगता … उधर कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाओ और इधर हंस-हंसकर पकवान खिलाओ ..”छोटी भाभी भला कब पीछे रहने वाली थी.

“ओह तो एक कप चाय और दो सूखे बिस्कुट को पकवान कहा जाता है…”परिस्थिति ने रमा को मुंहफट बना दिया था.

     “खिलाओ पकवान… कोर्ट-कचहरी की क्या जरूरत है .. एक ओर गालियां देती हो .. दुनिया जहान से उसकी बुराई करते नहीं थकती और दुसरी ओर उसको एंटरटेन करती हो .. दुनिया क्या समझेगी…” बड़ी भाभी, छोटी भाभी एकबार शुरू हो जाती हैं .. उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है.

     उसका कसूर यही था कि शिष्टाचार वश अपने पति अवध को एक कप चाय बनाकर दिया था साथ में दो बिस्कुट भी..अवध से उसका  कोर्ट में तलाक का मुकदमा चल रहा है… कोर्ट के आदेश से वह महीने में एकबार अपने चार वर्षीय बेटे से मिलने आता है..उसे घुमाता -फिराता …तय समय पर वापस पहुंचा जाता..

  वैसे भी दुखी हृदय, कमजोर काया, दुर्बल पक्ष लेकर कब-तक बहस किया जा सकता है … रमा रोने लगी.

  मुन्ना हैरान.. परेशान… कभी बिलखती मां को देखता …. कभी रणचंडिका बनी दोनों मामियों को..

    वह किसका पक्ष ले… झगड़ा अक्सर उसे ही लेकर होता है ..इस तथ्य को वह समझने लगा है .. लेकिन क्यों इसे समझ  नहीं पाता … इस घर में और भी बच्चे रहते हैं .. लड़ते हैं… झगड़ते हैं…खाते हैं…. खेलते हैं… स्कूल पढ़ने जाते हैं उसी की तरह… परन्तु किसी को लेकर ऐसी लड़ाई नहीं होती…न हाय-तौबा .. किसी की मम्मी उसकी मम्मी की तरह नहीं बिसूरती रहती…

      मामियां रेशमी साड़ियों में बन-संवर कर अपने पति बच्चों के साथ सैर-सपाटे पर जाती हैं… हंसती खिलखिलाती…..

    एक उसकी मम्मी है बदरंग कपड़ों, सूखे होंठ, उलझे बाल … किचन में रहेंगी या पीछे बालकनी में उदास खड़ी आंखें पोंछती रहेगी ….

तीस की युवावस्था में साठ  वर्ष की गम्भीरता ओढ़े मम्मी नानी के पास बैठेंगी .. उनकी खुसुर फुसुर मुन्ने के समझ में नहीं आती .. कुछ रोने धोने की ही बात होगी तभी मम्मी का गला रूंधा रहता है … आवाज फंसी-फंसी निकलती है ..नानी भी एक ही टापिक से  ऊबी  हुई प्रतीत होती हैं  अतः मुन्ने को झिड़क देती हैं,”जा बाहर खेल ,जब देखो मां से चिपका रहता है….”

  “कहां जायेगा मां…इसे कोई साथ नहीं खेलाता.”.. मम्मी तुनक जाती.

“ढंग से खेलेगा सभी खेलायेंगे …..”नानी उकतायी हुई…

“मां तुम क्यों नहीं समझती.. बच्चे इसके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं.. बिना कारण मुन्ने से झगड़ते हैं ….मारते.. चिढ़ाते हैं…”रमा का दबा आक्रोश..वह उग्र हो उठी.

      नानी चुप.. रमा का बात-बात पर उत्तेजित हो जाना उन्हें नागवार गुजरता है; क्योंकि घर में तेजतर्रार बहुएं हैं… मां-बेटी का यूं  बातें करना दोनों भाभियों को जरा भी नहीं सुहाता है..

“आज हमारी खैर नहीं .. छोटी.. खूब लगाई-बुझाई हो रही है …”

“होने दो दीदी हम नहीं डरतीं किसी से; अपने पति की कमाई खाती हैं .. कोई आंखें उठाकर देखे तो सही..नोच डालूंगी…” बहुओं के ताने-तिश्ने से मां घबरा जाती मन ही मन उस घड़ी को कोसती जब रमा हाथ में अटैची  और गोद में दस माह के बच्चा लिए उनकी देहरी पर आई थी…

    पांच वर्ष पहले ही कितनी धूमधाम से बिटिया का विवाह किया था.दोनो भाईयों से छोटी; सबकी लाडली.. पिता थे नहीं  उन की जगह दोनों भाइयों ने रमा को पूर्ण संरक्षण दिया. दोनों भाभियों भी प्यार दुलार की वर्षा करते नहीं थकती थीं… आज वही भाभियां तलवार की धार बनी उस पर हर घड़ी वार करने के लिए इतनी बेचैन क्यों रहती है…

     शायद बदली हुई स्थिति  के कारण… रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर….

 आज मुन्ने को कोर्ट के निर्देशानुसार अपने पापा के पास आठ घंटे के लिए जाना था..वह उतावला हो रहा था..”जल्दी मम्मी जल्दी…”

  अर्द्धविक्षिप्त सी रमा गिरते गिरते बची…,”ओह चप्पल टूट गया..इसे भी अभी ही धोखा देना था..”दो कदम चलना दूभर हो गया. पुरानी घिसी हुई चप्पल.. लाचार इधर‌-उधर  देखने लगी ..

” मम्मी जल्दी चलो, पापा आ गए होंगे…”उसकी मनःस्थिति से अनजान मुन्ने की बेसब्री…

“मैं क्या करूं.. तेरी जान को रोऊं ,जब देखो सिर पर सवार रहता है..दो मिनट की चैन नहीं.. कभी यह तो कभी वह.. महिने भर मैं खटती -पीटती रहती हूं ..उसकी कोई कीमत नहीं.. तेरे पापा को क्या महिने में एक दिन…  लाड़ चाव लगाना रहता है …और तू उन्हीं का माला  जपता  रहता है …सारे संसार की बैरी मैं .. सब की नजरों में खटकती हूं ..अब इस चप्पल को भी कब का बैर था मुझसे…इसे अभी ही टूटना था ..मुझसे चला नहीं जाता…”रमा बिफर उठी;मुन्ना सहम गया .. उसने मां की पांव की ओर देखा ,”सच्ची मम्मी इन टूटे चप्पलों में कैसे चलेंगी..”

  चप्पल मम्मी के गोरे पैरों का सहारा भर था,वरना वह कब का  घिस चुका था .. बदरंग ,पुराना …

    मुन्ना के आंखों के समक्ष मामियों की ऊंची एड़ी की मार्डन चमचमाती जूतियों का जोड़ा घूम गया …कितनी जोड़ी होगी उनके पास… जब वे उसे धारण कर खटखटाती चलती हैं ..कितनी स्मार्ट लगती हैं .. किसी फिल्म तारिका जैसी…

…. और उसकी। मम्मी घर-बाहर यही एक जोड़ी चप्पल … और आज वह भी टूट गया.

  मुन्ना उदास हो गया.उसका बाल सुलभ मन इन विसंगतियों को समझ नहीं सका … रमा किसी प्रकार अपना पैर सम्भाल -सम्भाल मंजिल तक पहुंची … सामने खड़े अवध उसे एकटक देख रहे थे.. नज़रें मिलते ही उन्होंने आंखें  झुका  ली ..

कितने स्मार्ट लग रहे हैं अवध.. लगता है नया सूट सिलवाया है राॅयल ब्लू पर लाल टाई …कार भी न‌ई खरीदी है … अरे वाह .. क्षण भर के लिए ही सही उसकी आंखें चमक उठी.  

    मुन्ना पापा को देखते ही दौड़ पड़ा” बाय मम्मी….”

“बाय ..”

   “पापा न‌ई गाड़ी , किसकी है …”पापा को पाकर मुन्ना  सारे जग को भूल जाता है … शायद मां को भी.  

  “तुम्हारी है ….!  तुम्हें कार की सवारी पसंद है न …”

“सच्ची, मेरे लिए .. मेरी है.” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

  पिछले सप्ताह वह मामा के कार में ताक-झांक कर रहा था ….. उसे मामा के बेटे ने हाथ पकड़  कर ढकेल दिया था.

  “मैं भी गाड़ी में बैठूंगा…”मुन्ने का मन कार से निकलने का नहीं कर रहा था.

    मामा का  बेटा उसे परास्त करने का तरीका सोच ही रहा था … उसी समय बड़ी मामी सजी धजी कहीं जाने के लिए निकली … मुन्ने को कार में ढिठाई करते देख सुलग पड़ी,”पहले घर …अब कार… सबमें इसको हिस्सा चाहिए …इन मां-बेटा ने जीना दूभर कर दिया है…सांप का बेटा संपोला…”

     मामी की कटुक्तियां  वह समझा या नहीं किन्तु इतना अवश्य समझ गया कि इस खूबसूरत कार पर उसका कोई अधिकार नहीं है…

   उसे उसकी मम्मी उसके पापा से कोई प्यार नहीं करता… उसने कार से उतरने में ही अपनी भलाई समझी .. अभी जाकर मम्मी से सबकी शिकायत करता हूं …

   लेकिन मम्मी है कहां?वे रसोई में शाम की पार्टी की तैयारी में जुटी थी… बड़े मामा का प्रमोशन हुआ था और उनके शादी का सालगिरह भी था… सभी व्यस्त थे… खरीदारी, घर की सजावट, रंग रौगन … फ़ालतू तो वह और उसकी मम्मी..

    वह मम्मी के पास जा पहुंचा…आग की लपटों में मम्मी का गोरा रंग  ताम्ब‌ई हो रहा था.. वह एक-के-बाद-एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में हलकान हो रही थी …इस स्थिति में उन्हें परेशान करना सही नहीं…

        “मम्मी एक ले लूं…..”लाल सुर्ख कचौड़ी की खुशबू उसे सदैव आकर्षित करती है…

   मम्मी ने ऊंगली के इशारे से मना किया .. उसके बढ़ते हाथ रूक गये.

     “पूजा के बाद मिलेगा न मम्मी…”

“हां मेरे लाल..”मम्मी ने लाड़ले को सीने से लगा लिया .. मां का शरीर कितना गर्म है…. सीने में उबलते हुए जज़्बात चक्षु से भाप बन निकलने लगे..

“मेरा राजा बेटा,अपना होमवर्क करो … मैं थोड़ी देर में आती हूं…..” वह जानता है मम्मी रात्रि के बारह बजे से पहले नहीं वाली.. तब तक  वह  दुबक कर सो जायेगा..

      मम्मी पार्टी समाप्त होने पर बचा-खुचा काम समेंटेंगी.. दो निवाले खायेंगी या “भूख नहीं है…” कहकर छुट्टी पा लेंगी..  उसे एकबार मम्मी ने इसी तरह किसी पार्टी में एक मिठाई खाने के लिए दे दी थी… उस दिन कितना शोर मचा था… दोनों मामियों को   यूं अपने बेटे को कुछ खाने के लिए देना कितना नागवार गुजरा था …. उस दिन से मम्मी ने जैसे कसम खा ली थी…न कुछ उठाकर बेटे को देती थीं न खुद लेती थीं…. अपने ही मां-बाप के घर में; अपने लोगों के बीच दोनों मां-बेटे किरकिरी बने हुए हैं..

     सिर्फ मांग में सिंदूर पड़ जाने से…. एक बच्चे की मां बन जाने से … कोई इतना पराया हो जाता है… यही भाभियां रमा की एक‌-एक अदा पर न्यौछावर होती थीं …उसको खिलाने पिलाने में आगे रहती थी … उन्हीं के नजरों में वह ऐसा गिर चुकी है…

“मम्मी देखो न‌ई गाड़ी.…मेरे लिए … तुम भी चलो, खूब घुमेंगे, पिकनिक पर जायेंगे .. अपने दोस्तों को भी ले जाऊंगा … मुन्ना खुशी से बावला हो रहा था..

    अवध अपने बेटे का चमकता मुखड़ा निरेख रहे थे … और रमा बाप-बेटे के इस मिलन को किस प्रकार ले ..हंसे या रोये… हंसना वह भूल चुकी है और रोना… इस आदमी के सामने जो उसके बेटे का बाप है…

….ना वह रोयेगी नहीं.. कमजोर नहीं पड़ेगी… वहां से भागना चाहती है …. टूटी हुई चप्पल ..हाय….रे समय की फेर…

  पति कार स्टार्ट कर जा चुके थे , मुन्ने का हिलता हाथ नजरों से ओझल हो गया… वह टूटी चप्पल वहीं फेंक नंगे पांव घर लौट आई.

  मां पूजा कर रही थी… भाभियां अपने आप में मस्त…..किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं….. वह बिस्तर पर कटे पेड़ के समान गिर पड़ी … हृदय की पीड़ा आंखों में आंसू बन बह चला… बचपन से लेकर आजतक की घटनाएं क्रमवार याद आने लगी……..

     रमा के पिता व्यापारी थे.अच्छा खाता-पीता परिवार… दोनों भाईयों से छोटी रमा सबकी लाड़ली , सुंदर, संस्कारी…….

पिता के बाद भाईयों ने कारोबार संभाल लिया.. भाभियां उसपर दिलों जान छिड़कती… भाई-बहन का प्यार देख मां फूली नहीं समाती. रमा रूपवती मिलनसार लड़की थी किन्तु मां की अत्याधिक लाड़-प्यार, भाईयों का संरक्षण, भाभियों का दोस्ताना व्यवहार .. उसे कुछ ज्यादा ही भावुक बना दिया था निर्णय लेने की क्षमता का उसमें विकास नहीं हो पाया था..आगा-पीछा नहीं जानती थी.. शायद यही सब उसके सर्वनाश का कारण बना और् उसे आज इस  … .. और उसे आज  इस विकट स्थिति में खड़ा कर दिया..

    “रमा बड़ी हो गई है, उसके लिए वर ढूंढने की जिम्मेदारी तुम दोनों भाइयों की … और विवाह की तैयारी दोनों भाभियों …”मां बेटी व्याह के लिए चिंतित थी.

   भाईयों ने इसे गंभीरता से लिया और उसी दिन से शुरू हुआ उचित वर.. घर की तलाश.. घर-वर दोनों मनोनुकूल मिलना इतना आसान नहीं…

  कहीं लड़का योग्य तो घर कमजोर… कहीं घर समृद्ध लेकिन वर रमा के योग नहीं… इसी बीच गांव घर की बुआ अवध का रिश्ता लेकर आईं.वे कभी अवध के रूप गुण का बखान करती … कभी उसके ऊंचे खानदान और धन-दौलत की.. रमा छिप-छिप कर सुनती .. अपने भावी जीवन के कल्पना में डूबते-उतराते रहती.

  रिश्ता पक्का हो गया.. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.. लेन-देन में कोई कमी नहीं .वरपक्ष से कोई दबाव भी नहीं था… उन्हें रमा भा गई थी , परिवार पसंद आ गया था.   शुरू में सब-कुछ ठीक-ठाक रहा ..अवध रमा पर जान छिड़कता था ..मैके की तरह रमा ससुराल में भी सबकी लाड़ली बनी हुई थी..

      मुन्ना के गर्भ में आते ही अवध खुशी से झूम उठा. सास-ससुर,देवर-ननद ने रमा की बलैया ली .. देखने वाले दंग.. इतने वर्षों पश्चात घर में पहला बच्चा.. रमा को सभी हथेली पर रखते”,बहू यह न करो .. वह न करो ..”सासु मां लाड़ लगातीं .

    “लो बहू तुम्हारे लिए..”ससुर का हाथ फल, मेवों अन्य पौष्टिक पदार्थों से भरा रहता.

  और अवध.. वह बावला रमा को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था..

    दफ्तर से बार-बार फोन करता.. नित्य प्रति बालों के लिए गजरा , उपहार लाता … गोल-मटोल शिशुओं के तस्वीर से कमरा जगमगा उठा.

   मां भाई रमा को लाने गये .. सास-ससुर ने हाथ जोड़ लिए … बेटी का सुख-सौभाग्य, मान-सम्मान देख मां भाई गदगद हो उठे… ईश्वर सब की बेटियों को ऐसा ही घर-परिवार दे.

  मां भाई चाहते जच्चगी मायके में हो … सास-ससुर, पति पल भर के लिए बहू को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे……

…..रमा दोनों पक्षों के दांव-पेंच पर मुस्कुरा उठती…

    वही रमा ने इधर की रही न उधर की …समय का फेर..!

    रमा ने स्वस्थ सुंदर बेटे को जन्म दिया.. बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया क‌ई दिनों तक दान-पुण्य चलता रहा.

    मां बनकर रमा निहाल हो उठी ….जब देखो मुन्ने को छाती से चिपकाए रहती .

  घर भर का खिलौना मुन्ना अपने बाल-सुलभ अदाओं से सबका मन मोह लेता.

 रमा बड़ा होकर मुन्ना मेरी तरह इंजीनियर बनेगा…”अवध की आंखें चमकने लगती..

        ” नहीं मैं इसे डॉक्टरी पढ़ाऊंगी… लोगों की सेवा करेगा…”रमा हंस पड़ती..

       “ना डाक्टर न‌ इंजीनियर यह मेरी तरह बैरिस्टर बनेगा …”दादा जी कब पीछे रहने वाले थे..

   “कहीं नाना जैसा व्यापारी बना तो…” नानी बीच में टपक पड़ती.

  सभी हो हो कर हंसने लगते… हर्षोल्लास से लबालब मैके -ससुराल … किसकी नजर लग गई.

   ..आज उसी मुन्ने की जननी की सुध किसी को नहीं थी…

    आखिर उसके पीछे कारण क्या है… मुन्ने के जन्म के बाद तीसरे महीने ही दिवाली का त्यौहार  .. और उस मनहूस दिवाली ने रमा और उसके मुन्ने की जीवनधारा ही पलट कर रख दी.

    उस दिन घर बाहर खूब रंग-रौशन  हुआ था . नाना प्रकार के पकवान, मिठाईयां , मेवों , उपहारों का ढेर लग गया था… रेशमी साड़ी और कीमती आभूषणों से लदी-फंदी रमा पति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी … साथ बैठकर  लक्ष्मी पूजन के लिए..

  अवध देर से लौटे.. साथ में एक सुन्दर युवती थी,” रमा यह मेरी कालेज की सहपाठी दिवा है..”

   रमा ने हाथ जोड़ दिए,” नमस्ते..”

   ‌दिवा ने चुभती नजर रमा पर डाली,”कहां ढूंढा इतनी खूबसूरत पत्नी …”

    “अरे.. तुमसे कम ही..”अवध का मजाकिया स्वभाव…

    किंतु रमा झेंप गई .. अवध के इस बेतुके मजाक ने सीधे उसके दिल को छू लिया.. दिवा जितनी देर रही अवध से चिपकी रही … सुंदर वह थी ही ..उसकी दिलकश अदाएं , बात करने का अंदाज, बेवजह खिलखिलाना उसे जरा भी नहीं सुहाया..

    दिवाली पूजन, हंसी-मजाक, शोर-शराबा, भोजन पानी करते करते आधी रात बीत गई.

  “अब मैं चलूंगी…

   ” चलो मैं तुम्हें छोड़ आता हूं ..” अवध  के आंखों की चमक वह…आजतक भूल नहीं पाई है….

अगर वह पुरुष मनोविज्ञान की ज्ञाता होती ….तो कभी भी अपने पति को उस मायावी के संग न भेजती.

   … पति जब तक घर लौटे वह मुन्ने को सीने से चिपकाए सो ग‌ई थी…….. फिर तो अवध रमा और मुन्ने की ओर से उदासीन होता चला गया..उसकी शामें रमा के साथ बीतने लगी..

 पत्नी से उसकी औपचारिक बातचीत ही होती … मुन्ने में भी खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी …भोली रमा पति के इस परिवर्तन को भांप नहीं पाई… दिन-रात मुन्ने में खोई रहती…

   वह  मुन्ने को कलेजे से लगाए…सुख स्वप्न में खोई थी .. एक दिन उसकी सहेली ने फोन पर जानकारी दी,”आजकल तुम्हारे मियां जी बहुत उड़ रहे हैं…”

  “क्या मतलब…”

“..अब इतनी अनजान न बनो … तुम्हारे अवध का रमा के साथ क्या चक्कर चल रहा है .. तुम्हें मालूम नहीं .. कैसी पत्नी हो तुम .. दोनों स्कूटर पर साथ-साथ घुमते हैं .. सिनेमा . होटल जाते हैं और तुम पूछती हो … क्या मतलब…”सहेली ने स्पष्ट किया.

   “देख , मुझे झूठी सच्ची कहानियां न सुना वह अवध के साथ पढ़ती थी..”रमा चिहूंक उठी.

   “..पढ़ती थी न..अब अवध के साथ क्या गुल खिला रही है….मुझपर विश्वास नहीं है.. पूछकर देख ले… फिर न कहना .. मुझे आगाह नहीं किया.. तुम इन मर्दों को  नहीं जानती …लगाम खींचकर  रख नहीं तो …पछतायेगी..”सहेली ने फोन रख दिया.

अब रमा का दिल किसी काम में नहीं लग रहा था.. मुन्ना भी आज उसे बहला नहीं सका… वह छटपटा उठी.. सहेली की बात किससे कहें .. मां जी से… पिता जी से …. ना-ना उसकी हिम्मत जवाब दे गई … वह सीधे अपने पति से ही बात करेगी .. मेरा अवध ऐसा नहीं है..

   अवध सद से ही अपने रख-रखाव , पहिरावे का विरोध ध्यान रखते थे… इधर कुछ ज्यादा ही सजग ,सचेत रहने लगे हैं.. हरदम खिले-खिले, प्रसन्न अपने-आप में मग्न.. घर में पांव टिकते नहीं थे .. भूलकर भी रमा को कहीं साथ घुमाने नहीं ले गए .. मुन्ना एक अच्छा बहाना था… रमा को कोई शिकवा भी नहीं थी.. वह अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त थी… जहां उसका प्यारा पति एवं जिगर का टुकड़ा मुन्ना था .. वहीं उसकी  खुशियों में उसकी सहेली ने सेंधमारी की थी…. वह बेसब्री से अवध की राह देखने लगी.

   रात गये अवध लौटा……गुनगुनाता… सीटी बजाता बिल्कुल आशिकाना मूड में..

” खाना ..”रमा को अपने इंतजार में देख उसे आश्चर्य हुआ.

  ” खा लिया है…”वह बेफिक्री से कोट का बटन खोलने लगा…

   रमा ने लपककर कोट थाम लिया .लेडिज परफ्यूम का तेज भभका ..

रमा को यूं कोट थामते , अपने लिए जागते देख अवध चौंका..

   क्योंकि मुन्ने के जन्म के बाद से वह बच्चे में ही खोई रहती .. वह रात में लौटता उस समय वह मुन्ने के साथ गहरी नींद में खर्राटे लेती मिलती .. आज ऐसे तत्पर देख आश्चर्य चकित होना स्वाभाविक है.

   परफ्यूम की महक ने रमा को दिवाली की रात की याद दिला दी … यही खुशबू दिवा के कपड़ों से उस दिन आ रहा था… सहेली ठीक कह  रही थी… रमा उत्तेजित हो उठी..”कहां खाये..”

   “पार्टी थी…”

 “कहां..”

” होटल में , कुछ क्लांइट आये थे..”

“सच बोल रहे हो..”

” तुम कहना क्या चाहती हो …”

“यही कि तुम दिवा के साथ समय बिताकर, खाकर आ रहे हो..” अवध का चेहरा  क्षण भर के लिए    फक् पड़ गया… फिर  ढिठाई से बोला.. “तुम्हें कोई आपत्ति है.. मेरी बातों का विश्वास नहीं  ..”

  “दिवा के साथ  गुलछर्रे उड़ाते तुम्हें  शर्म नहीं आती  …एक बच्चे का पिता होकर  छि:….”रमा क्रोध से कांपने लगी..

“दिवा पराई नहीं मेरी पहली पसंद है… वह तो  मां ने तुम्हारे नाम की माला न जपी होती… तुम्हारी  जगह पर  दिवा होती.. “

…”उसने  मेरे चलते  अपना  विवाह  नहीं किया.. वह आज भी मुझे उतना ही चाहती है  जितनी  कालेज के  दिनों में  ..फिर मैं उसका साथ क्यों न दूं…एक  वह  है  जो  मेरे लिए  पलक बिछाए रहती है  और एक तुम हो जिसे अपने  बच्चे से  फुरसत नहीं है.”.  पति बेहयाई पर उतर आया..

   रमा के पांव तले जमीन खिसक गई …आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला  चलने लगा..

अवध का कहना था, “तुम्हें खाने पहनने की कोई दिक्कत नहीं  होगी… जैसे  चाहो रहो… किन्तु मैं दिवा को नहीं छोड़ सकता… तुम पत्नी हो और वह प्रेमिका… “

    क्या केवल खाना-पहनना और पति के अवैध रिश्ते  को… अनदेखी करना ही  ब्याहता का धर्म है… रमा इस कठदलीली को कैसे बर्दाश्त करती..

  खूब रोई-धोई..अपने सिंदूर  मुन्ने

का वास्ता दिया… सास-ससुर  से इंसाफ मांगा… सभी ने उसे  धैर्य रखने की  सलाह दी  …बेटे को  ऊँच-नीच  समझाया.  डांटा ..दुनियादारी का हवाला दिया..

  परन्तु  अवध पर दिवा के रूप लावण्य का जादू चढ़ा हुआ था… रमा जैसे चाहे रहे.. वह  दिवा को नहीं  छोड़ेगा..

    एक  म्यान में  दो तलवारें नहीं  रह सकती… रमा को प्यार  विश्वास  का खंडित हिस्सा  स्वीकार्य  नहीं…

   पति-पत्नी का मनमुटाव  विश्वास घात शयनकक्ष से बाहर आ चुका था  …जब रमा पति को  समझाने  में  नाकामयाब रही… तब एक दिन  मुन्ने को गोद में  ले मायके का रास्ता  पकड़ा..

   सास-ससुर ने समझाया “बहू अपना घर पति को छोड़ कर मत जाओ.. अवध के आंखों से  परदा जल्दी ही उठेगा  ..हम सब तुम्हारे  साथ हैं..”

   किंतु रमा का भावुक  हृदय  पति के इस  विश्वासघात  से टूट गया था  …व्यावहारिकता से  सर्वथा अपरिचित  वह इस घर में  पल भर भी रुकने के लिए  तैयार नहीं थी..  जहाँ उसका पति पराई स्त्री  से  संबंध रखता हो… उसकी खुद्दारी ने मां के  आँचल का सहारा लेना ही उचित समझा.

    भविष्य की  भयावह स्थिति से अनजान  ..

“बहू  मुन्ने के बगैर हम कैसे  रहेंगे.    …”सासु मां का मनुहार..

“पहले अपने  बेटे को  सम्भालिये, मैं  अपने बेटे पर  उस दुराचारी पुरुष की छाया तक नहीं पड़ने देंगे.. “

  “उसे  संभालना तुम्हें पड़ेगा  बहू.. तुम उसकी पत्नी  हो ब्याहता हो  ..इस प्रकार मैदान  छोडने से बात  बिगड़ेगी ही… “

  “मुझे कुछ नहीं सुनना..मुझमें इतनी  सामर्थ्य है कि अपना और अपने मुन्ने का पेट  भर सकें..  “

    रमा एक झटके में  पतिगृह छोड़ आई.. मां ने  जब सारी बातें सुनी तब सिर पीट लिया.. फूल सी बच्ची पर ऐसा अत्याचार… उन्होंने बेटी को सीने से लगा लिया, “मैं अभी  ज़िंदा हूँ  ..जेल की चक्की न पिसवा दी तो कहना… “

  भाइयों ने दूसरे दिन ही कोर्ट में  तलाकनामा दायर करवा दिया.. भाभियां भी  खूब चटखारे  ले-लेकर ननद-ननदोई  के  झगड़ों का वर्णन सुनती… रमा अपना सारा आक्रोश, अपमान, कुण्ठा नमक-मिर्च  लगाकर  बयान करते नहीं  थकती…

  शुरूआती दिनों में  सभी जोश-खरोश से रमा का साथ  देते.. मुन्ने का भी  विशेष  ख्याल रखा जाता… फिर  प्रारंभ हुई कोर्ट कचहरी की  लंबी प्रक्रिया.. तारीख पर  तारीख़  …वकीलों की ऊंची  फीस… झूठी-सच्ची उबाऊ बयानबाजी.. एक ही  बात.. उलट फेर कर.. जगहंसाई… रमा और  मुन्ने का बढ़ता खर्चा  ..निर्णय की अनिश्चितता..

भाइयों में झुंझलाहट बढ़ने लगी.. भाभियां जैसे इसी मौके के  तलाश में थी.. वे रमा और मुन्ने को नीचा दिखाने  का कोई अवसर हाथ से जाने  नहीं  देती..

     बूढी होती मां.. सिहर उठती  ..मेरे बाद इस लाड़ली बेटी का क्या होगा  ..बेटे-बहूओं का रवैया वह देख रही थीं… उनका चिढ़ना भी  स्वाभाविक है  क्योंकि सबकी घर -गृहस्थी है, बाल-बच्चे  हैं.. बढ़ते खर्चे हैं.. इस  भौतिकवादी  युग में  कोई किसी का नहीं…. उसपर परित्यक्ता बहन और उसका  बच्चा.. जो जबरन उनके  गले पड़े हुए हैं.

    कानूनी लड़ाई  में ही  महीने का  आखिरी रविवार  कोर्ट ने  मुन्ने को अपने पिता से मिलने का  मुकर्रर किया था.. मुन्ने को इस दिन का  बेसब्री से इंतज़ार  रहता.. बाकी दिनों की अवहेलना को विस्मृत कर देता..

अवध बिना नागा आखिरी रविवार के सुबह आते… रमा मुन्ने को उनके पास  पहुंचा देती… दोनों एक-दूसरे की ओर देखते अवश्य लेकिन  बात नहीं होती.. मुन्ना हाथ हिलाता पापा के  स्कूटर पर हवा हो जाता..

  अवध ने मुन्ने को अपने संरक्षण में लेने के लिए  कोर्ट से गुहार लगाई है  …बच्चे के भविष्य के लिए… ठीक  ही है  पापा के पास रहेगा  ,ऊंची पढ़ाई  कर पायेगा ,सुख-सुविधाएं पा सकेगा… वह  एक प्राइवेट स्कूल की  टीचर  ..दो हजार  कमाने वाली.. उसे क्या दे सकती है..

कोर्ट के आदेश से कहीं मुन्ना उससे  छीन गया… अपने पापा के पास  चला गया तब वह  किसके सहारे जियेगी.. किसी निर्धन से उसकी  पोटली गुम हो जाए तो जो पीड़ा उस गरीब को होगी वही ऐंठन रमा के  कलेजे में  होने लगा.. “ना  ना मैं बेटे को अपने से किसी कीमत पर  अलग नहीं होने देंगे… ‘”वह सिसकने लगी. स्वयं से  जवाब सवाल करते  उसे  झपकी आ गई..

  आंखें  खुली तो पाया मुना आ चुका है.. हर बार की तरह खिलौने, मिठाईयों उसके पसंद की चाकलेट से  लदा-फंदा..

    घरवाले उन सामानों को हिकारत से देखते… यह नफरत की  बीज उसकी ही बोई हुई है… रमा सब कुछ छोड़-छाड़  भागी न  होती  ..उसकी गृहस्थी यूं तहस नहस नहीं  होती… वह  डाल से  टूटे  पत्ते के समान  धूल चाट नहीं रहती..

“मम्मी तुम्हारे लिए.. “

“क्या… “

लाल पैकेट में  दो जोड़ी कीमती चप्पलें…रमा भौंचक्का… “यह क्या.. तुमने  पापा से कहा.. “

   “नहीं, नहीं  पापा ने अपने मन से खरीदा… पापा अच्छे हैं  बहुत अच्छे  मम्मा… “

    रमा ने चप्पलों की जोड़ी झट से छुपा दी… अगर  पहनती है तो घर वालों की कटुक्तियां…और न पहने तब मुन्ने की  जिज्ञासा…

     दिवाली का त्यौहार  आ पहुंचा… भाई-भाभी सपरिवार  खरीदारी में  व्यस्त… वह सूखे होंठ, गंदे कपड़ों में  घर की  सफाई में  लगी थी..

  दरवाजे की  घंटी बजी.. शायद घर वाले लौट आये.. इतनी  जल्दी..

  रमा ने  दरवाजा खोला… सामने  अवध… रमा स्तब्ध..  घर  में कोई नहीं  था  उसके  जबान पर जैसे  ताला लग गया..  

   “भीतर आने के लिए नहीं कहोगी… अवध के  प्रश्न पर वह संभल चुकी थी.

“हां.. हां.. आइए परंतु इस समय घर में कोई नहीं है  ..”

“मुन्ना कहाँ है…? “

   “वह अपनी नानी के साथ मंदिर  गया है.. “

“अच्छा  दीवाली की सफाई हो रही है… “

   रमा समझ नहीं पा रही थी  वह क्या  कहे..  इस विषम परिस्थिति के लिए वह कत ई तैयार  नहीं थी… जिस व्यक्ति पर कभी उसने अपना  सर्वस्व न्यौछावर किया था उसके बच्चे की मां  बनी थी  …उससे  ऐसी झिझक… थोड़ी सी बेवफाई और  कानूनी  दाँवपेंच ने  दोनों के बीच  गहरी खाई खोद दी थी..

    “रमा तुम  मुझसे बहुत नाराज हो  …होना भी चाहिए  …मैं तुम्हारा  अपराधी हूं… मेंने तुम्हें बहुत दुख दिये..  दिवा रुपी मृगतृष्णा के पीछे  भागता रहा… अपनी पत्नी के निश्छल  प्रेम के सागर को पहचान नहीं पाया.. अब  मैं तुम्हें और  मुन्ने को लेने आया हूँ  …मुझे  माफ कर दो… “

   “मैं आपके साथ कैसे जाएंगी। …दिवा के साथ नहीं रह सकती… मुझे  मेरे हाल पर  छोड़ दीजिए …”आक्रोश आंखों से बस निकला..

    “दिवा.. दिवा से मेरा कोई लेना-देना नहीं  है  ,मेंने उससे  सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं… पहले ही काफी  देर हो चुकी है  …अब अपनी पत्नी और बच्चे से  दूर नहीं रह सकता… “

  “किंतु  मेरी मां, भाई, कोर्ट कचहरी… “उसे  अपनी कानों पर  विश्वास नहीं  हो रहा था.

   “मां, भाई को क्यों  एतराज होगा… अपनी पत्नी और बेटे  को लेने आया हूँ… और रहा कोर्ट कचहरी… लो तुम्हारे सामने ही सारे कागजात फाड़ फेंकता हूँ… जब मियां बीबी राजी.. तब क्या  करेगा  काजी… :”

  “पर, मैं  कैसे  विश्वास करूं… “

    “विश्वास तुमको करना पड़ेगा…. भरोसा एवं प्यार पर ही दाम्पत्य की  नींव टिकी रहती है  … तुमने मुझपर पहले ही अपना अधिकार जता बांहों का सहारा दे अपने पास  खींच लिया होता  तो मैं  दिवा  में अपनी खुशियां नहीं  तलाशता…सच है कि मैं  भटक गया था… किंतु  यह न भूलो… भटका हुआ मुसाफिर भी कभी न कभी सही राह  पा लेता है… “अवध ने अपनी बांहे फैला दी..

परिस्थितियों की मार से आहत रमा इस अप्रत्याशित  घटनाक्रम से अचम्भित  अपने पति के हृदय से जा लगी..

     अवध रमा और मुन्ने  दिवाली के दिन  जब अपने घर पहुंचे… एक साथ लाखों दिये जल उठे..गृहलक्ष्मी के आते ही दीवाली की खुशी  द्विगुणित हो गई  …उनका  उजड़ा संसार  दीवाली की रौशनी में आबाद हो चुका था.

सर्वाधिकार सुरक्षित  मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा

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